यदुवंशी वनाफर राजपूतों का ऐतिहासिक शोध - बयाना /करौली जादों राजवंश के निकटतम भाई-बन्ध हैं यदुवंशी बनाफर राजपूत।
यदुवंशी वनाफर राजपूतों का ऐतिहासिक शोध ---
"बयाना /करौली जादों राजवंश के निकटतम भाई-बन्ध हैं यदुवंशी बनाफर राजपूत "
हमारी इस पावन पवित्र वीरों के बलिदान की भारत भूमि का इतिहास किसी एक भू -भाग का ऋणी नही है ।प्राचीनकाल में अयोध्या ,मगध ,काशी ,मथुरा ,शक्ति केंद्र रहे तो बाद के वर्षों में उज्जैन ,पाटिलपुत्र शक्ति केंद्र बने ,इसके बाद मध्यकाल में दिल्ली ,कन्नोज ,पाटन फिर मेवाड़ ,मारवाड़ में शक्तिकेंद्रों का उदय हुआ।इसके बाद बुन्देलखण्ड की ताकत ने पूरे देश में स्थान बनाया और बुन्देलखण्ड की वीरभूमि के इस गौरव में महोवा की भी वीरप्रसुता भूमि पूज्यनीय है जिसमें आल्हा एवं ऊदल जैसे रणवांकुरे वीर योद्धाओं ने जन्म लेकर उसको गौरवान्वित किया।
आल्हा -ऊदल के स्मारक ही बने उनके वैभव के साक्षी-
अतिशयोक्ति वर्णन से आल्हा-ऊदल को इतिहास में भले ही वह स्थान न मिला हो जिसके वे हकदार थे पर आल्हा-ऊदल के स्मारक इस बात के साक्षी हैं कि चन्देल राजपूतों के गौरवशाली कालखण्ड में उनका ऊँचा स्थान था।इलाहवाद जिले के जसरा के समीप चिल्ला गांव में आल्हा-ऊदल की बैठक इस तथ्य की साक्षी है ।उस बैठक में 7 कमरे , आंगन व बरामदा बना हुआ है।दूर -दूर तक पत्थर पड़े होने से अनुमान लगाया जा सकता है कि यह उनके जमाने में विशाल भवन रहा होगा।वीर आल्हा की जन्म 25 मई 1140 ई0 को महोबा में हुआ था।
मथुरा से है बनाफर यदुवंशी राजपूतों का प्राचीन इतिहास-
बनाफर राजपूतों के विषय में इतिहासकारों एवं स्वयं बनाफर राजपूतों में भी अलग -अलग भ्रांतियां हैं ।कुछ लोग इनको चन्देल राजपूत मानते हैं जो बिल्कुल गलत है। कुछ दूसरे समाज आल्हा -ऊदल को अवैध तरीके से अपने आप से जोड़ रहे हैं।कोई बनाफरों को चन्द्रवंशी भीम के पुत्र घटोत्कच्छ की सन्तति से जोड़ता है वह भी पूर्णतया गलत ही है।अधिकांश उच्चकोटि के भारतीय एवं विदेशी अंग्रेज इतिहासकारों जिनमे कर्नल जेम्स टॉड तथा विलियम क्रोकी , आदि ने भी बनाफर राजपूतों को यदुवंशी ही माना है जिसके प्रमाण जादों राजपूतों के जगाओं एवं भाटों की वंशावलियों एवं करौली राज्य की ख्याति तथा अन्य इतिहास की पुस्तकों में भी मिलते हैं ।
आल्हा -ऊदल के पूर्वज मथुरा के यदुवंशी (आधुनिक जादों ) क्षत्रिय थे-
मध्यकाल में मथुरा के यादवों (आधुनिक जादों राजपूतों ) की वंशावली का जब हम अध्ययन करते हैं तो सन 879 ई0 के लगभग मथुरा के शासक इच्छापाल थे जिनके दो पुत्र ब्रह्मपाल एवं विनायक पाल (विनयपाल )थे ।ब्रह्मपाल बड़े होने के कारण मथुरा की गद्दी के अधिकारी हुए जिनके पुत्र जयेन्द्रपाल से बयाना , तिमनगढ़ एवं आधुनिक करौली के जादों राजपूतों की संतति चली ।विनायक पाल महुवे चले गए जिनकी संतति उनके नाम से "बनाफर " कहलाये ।
इस प्रकार बनाफर एवं जादों राजपूत काफी नजदीकी भाई-बन्ध है जिसके विषय में लोग अभी भी अनभिज्ञ हैं ।तथा सत्य को स्वीकार भी नहीं करते और अपना मनगढ़ंत इतिहास बनाते रहते हैं ।यह प्रचलन आजकल कुछ अन्य समाजों में अधिक ही चल रहा है ।कई समाज आजकल अपना स्तर ऊँचा प्रदर्शित करने के उद्देश्य से राजपूतों के इतिहास में अवैध तरीके से घुस कर जोड़ -तोड़ से आजकल अपना नया इतिहास बनाने की जुगत में लगे हुए हैं।
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विनायक पाल के वंशज सीतावरन पुनः महोवा से विस्थापित होकर पूरब में बनारस की ओर गये और पुरनियाँ में रहे ।इनके 15 पीढी बाद इनके वंशज श्यामराज पूरेनियाँ छोड़कर ककरदेवा में आकर रहे।इनके पुत्र मैनिगराज एवं अनुपशाह हुए। कहा जाता है कि अनुपशाह की दस शादियां हुई थी जिनमें जो रानियां थी वे बडगुजर , भटातरे(अहेर ) की भदौरिया , गहरवार , चौहान मैनपुरी , हाड़ा बून्दी , गहलौत , वैसन डौडियाखेड़ा , कच्छवाही , सोमवंशी , सोलनखिन थीं।
इनके एक पुत्र चिंतामन हुआ जो खजुराहो में आकर रहे और चन्द्रब्रह्म चन्देल के मुसातिव रहे ।इन्होंने अग्नि देवता की आराधना की जिनके आशीर्वाद से इनके वनाफ़र वंश की वृद्धि हुई ऐसा कहा जाता है।इनके पुत्र अभयराज जो खजुराहो से जाकर खटोला के फौडे में वसे।वहीं उनके वंशज हैं।छोटा पुत्र मकरन्द खजुराहो ही रहा ।मकरन्द के वंश में ( वनाफरों की 38वीं पीढ़ी में ) बच्छराज तथा दस्सराज हुए। महाकाव्य आलखण्ड के अनुसार आल्हा -ऊदल के दादा मौजा बक्सर के जागीरदार थे।ये दोनों भाई महोबा जाकर रहे।
चन्देल राजा परमालदेव व बनाफर सम्बन्ध-
ऐतिहासिक राजा परमालदेव संभवतः अपने पूर्ववर्ती मदन वर्मा चन्देल का पुत्र था ।लेकिन लोककथा की स्थिति काफी भिन्न है।इसके अनुसार परमाल पूरे भारत का विजेता था।उसने सर्वप्रथम बुन्देलखण्ड के महोबा नगर पर अधिकार प्राप्त किया , जहां का शासक वासुदेव परिहार था ।उसके एक पुत्र माहिल तथा तीन पुत्रियाँ मालना , अथवा पदमिनी , दिवाला एवं तिलका थीं।राजा परमालदेव ने मालना से विवाह कर लिया और माहिल के साथ सदव्यवहार किया , लेकिन माहिल अपने पिता के विजेता को कभी क्षमा नहीं कर सका और अन्तोगत्वा उसके पतन का कारण भी बना ।सभी काव्यखण्डों में उसकी भूमिका सदैव खलनायक की ही रही है।
राजा परमालदेव ने दस्सराज एवं बच्छराज दोनों बनाफर वीरों के लिए माहिल की दो बहिनों दिवाला एवं तिलका का विवाह अपनी इच्छानुसार करा दिया।कहा जाता है कि राजा परमाल ने इन दोनों वनाफर भाइयों को अपने दरबार में उच्च पदों (सेनापति आदि )पर आसीन किया था।
कहा जाता है कि मांडो के राजा जम्बे का पुत्र करिंगाराय सोते हुए दस्सराज एवं बच्छराज को धोखे से मारकर उनके सिर काट ले गया और सिरों को मांडोगढ़ में बट वृक्ष पर टंगवा दिए गये ।साथ में नौलखा हार , हाथी , पचशावद और राज नर्तकी लाखा को भी छीन ले गया।
उस समय दस्सराज की पत्नी देवल के गर्भ में ऊदल पल रहा था ।आल्हा की अवस्था पांच(5) वर्ष की थी ।कुछ दिनों बाद ऊदल का जन्म हुआ ।जस्सराज के भाई बच्छराज के भी डॉनपुत्र मलखान और सुलखान(नवलराय ) थे ।इन चारों भाइयों में आल्हा बड़े थे जो बनाफ़रराय कहलाते थे।कुछ वर्षों में आल्हा ,ऊदल , मलखान और नबल योद्धाओं के रूप में बड़े हुए ।इनके साथ परमालदेव का पुत्र ब्रह्मा भी हो गया तो इन की वीरता की धाक जम गई।कन्नोजपति जयचन्द का पुत्र लाखन भी इनका मित्र बन गया।
माहिल का बनाफरों को युद्ध के लिए उकसाना-
जब आल्हा की उम्र 13 वर्ष की थी तो सन 1179 ई0 के लगभग मामा माहिल के द्वारा उनको महोबा में जाकर उलाहना दिया गया कि तुम्हारे पिता को राजा मांडों ने कैसे मारा था।माहिल परमालदेव अपने बहनोई से भी ईर्ष्या रखता था।परमाल आल्हा एवं ऊदल को अधिक महत्व देता था ।परमाल ने इन आल्हा एवं मलखान दोनों भाइयों को सिरसा तथा कलिंजर में जागीरें भी देदी थीं।आल्हा को महोबा के दक्षिण पूरब में "वांदा "के वर्तमान जिले में कलिंजर क्षेत्र जागीर में दिया और मलखान को सिरसा "ग्वालियर "जिले के पतंग नदी के निकट की जागीर मिली।
कबके ऊदल भये तरवरिया , इनको नेंक देउ समझाय।
जो कुछ जोर भुजन में उनकौ , क्यों ना लेंई बाप को दाय ।
टंगी खुपड़िया जस्सराज की , सो बदले को लेउ चुकाय ।
उक्त चुनौती को सुनकर आल्हा ,ऊदल , मलखान , तलंसीराय , ताला सैयद तथा ढेवा ने सेना लेकर मांडोगढ़ पर आक्रमण किया तथा कडंगराय (करिंगाराय ) का सिर काट कर अपनी माँ को भेंट किया।साथ ही हाथी, नौलखाहार तथा लाखा नृत्यकी को भी वापिस ले आये।यह इन वीरों का पहला युद्ध था।
आल्हा,ऊदल एवं मलखान के वैवाहिक सम्बन्ध-
वीर आल्हा का विवाह वर्तमान मिर्जापुर के समीप चुनार में थी जिसे मैनागढ़ नाम दिया गया है । यहां के राजा राधोमच्छ की पुत्री मछला से हुआ था ।इससे इन्दल का जन्म हुआ ।इन्दल का विवाह ज्वाला सिंह की पुत्री सुआपंखिनी से हुआ था। मलखान का विवाह जूनागढ़ के राजा गजराज सिंह की पुत्री जगमोहिनी से हुआ ।ये सौलंकी राजपूत थे।
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ऊदल का विवाह नवरगढ़ के राजा नृपति सिंह की पुत्री चन्द्रकला से हुआ।ऊदल का पुत्र हरिंद था जो अपनी ननिहाल में रहा।कुछ इतिहासकार ऊदल का विवाह जूनागढ़ के सोलंकियों में बताते हैं ।कहते हैं कि ऊदल की पृथ्वीराज चौहान से हुई लड़ाई में मृत्यु हो गयी थी तभी उसके बेटे को उसका मामा अपने यहां लेगया और उसे अपने राज्य में जागीर दी थी ।उसके वंशज उदैपुर के करीब बसते हैं और वहां वे रावल कहलाते हैं। आल्हा के पुत्र इन्दल को विनैदीव बादशाह ने सन 1194 ई0 में महोबा और सिहुडा का परगना जागीर में दिया।
बनाफरों का राजा परमाल के साथ पृथ्वीराज चौहान से युद्ध-
आल्हा-ऊदल का पृथ्वीराज चौहान से युद्ध- सन 1182 के अंत में हुए अन्तिम बैरागढ़ के युद्ध (सन 1166-1182ई0) में जो पृथ्वीराज चौहान और परमालदेव चन्देल के बीच हुआ था उसमें ऊदल मारे गए थे और आल्हा को गुरु गोरखनाथ अपने साथ ले गये थे।महोवा के कीरत सागर के तट पर आल्हा की बैठक बनी हुई है।मदनपुर में आल्हादेव मन्दिर है।महोबा में आल्हा का एक चौराहे पर स्मारक भी है।
आल्हा के पुत्र इन्दल के वंशज-
इन्दल के पुत्र सूरसेन , भगवानदास , समलदास तथा नरसिंह भानु थे -ये लौड़ी में आकर रहे ।इनके 6 पुत्र हुए गजन जु , बदन जु आदि। इनके वंशज कलहरा में हैं ।निवानी के वंशज लौड़ी में हैं ।कुंजलमाह , मौलती तथा डोंगरराय के वंशज बारीगढ़ , जेवराहा , महोबा के परगने और चरवारी के हटवा परगने में बहुतायत से पाये जाते हैं ।गजनजु इनके 4 पुत्र हरी , वसावन श्रुत , मोलक हुए ।इनके वंशजों में इलाराय और मुकुटमन के वंशज कमिहरिया में जमींदार हैं।मनकटराय के वंशज छितहरी धर्मपुर के जमींदार हैं।दुलाराय के वंशजों में धीरज सिंह की सन्तति कसार के जमींदार हैं ।वागराज के वंशज 1/3हिस्से के गुढा के जमींदार थे।रतनभान मुडेर के जमींदार हैं ।
मांडोगढ़ युद्ध के बाद तो आल्हा और ऊदल जीवन युद्धों में ही निकला जिनमें नैनागढ़ , शंकरगढ़ ,तथा वेतवा नदी आदि की लड़ाईयां प्रमुख हैं ।महाकाव्य आल्हा में इन युद्धों में आल्हा ,ऊदल ,मलखान, ब्रह्मा , लाखन और इनके पुत्रों की वीरता का सजीव वर्णन है।
आल्हा -ऊदल के विषय में अतिशयोक्ति वर्णन के कारण सम्भवतः इतिहास ने भले ही उन्हें उचित स्थान न मिला हो , पर उनके जगह -जगह स्मारक और बैठकें आज भी उनके वैभव , शौर्य एवं वीरता को ऊँचे दर्जे का सिद्ध करते नजर आते हैं जो उनके अवर्णनीय वीरता एवं साहस के द्योतक हैं ।तभी तो ऐसे ही वीरों के विषय में किसी ने कहा है कि---
बारह बरस लौ कूकर जीवै , अरु तेरह लौ जिये सियार ।
बरस अट्ठारह क्षत्रिय जीवै , आगे जीवन को धिक्कार ।।
वास्तव में "आल्हा दो भाइयों आल्हा और ऊदल की वीरता की गाथा है।जैसे राजस्थान में काका गोरा और भतीजे बादल अपने अतुलनीय शौर्य के कारण दन्तकथाओं के नायक बने वैसे ही बुन्देलखण्ड में आल्हा-ऊदल बहादुरी एवं अदम्य साहस के प्रतीक बने ।ये दोनों भाई अन्तिम हिन्दू सम्राट पथ्वीराज चौहान के समकालीन थे।पथ्वीराज चौहान जैसे अजेय योद्धा को भी युद्ध में किसी ने परास्त किया तो वे आल्हा-ऊदल ही थे ।
अंत में पृथ्वीराज चौहान के साथ हुए युद्ध में ही ऊदल ने वीरगति प्राप्त की।आपसी वैमनस्य में ही इस प्रकार भारत की वीरता एवं संप्रभुता नष्ट हुई ।बुन्देलखण्ड एवं चम्बल नदी के आस-पास के क्षेत्र में मध्यप्रदेश के ग्वालियर , मुरैना ,भिंड , दतिया ,श्योपुर ,शिवपुरी तथा उत्तरप्रदेश के इटावा ,ललितपुर ,महोबा , वांदा ,हमीरपुर ,जालौन ,आदि जिलों में उनकी वीरता एवं शौर्यता का वर्णन करने वाला "परमाल रासो " आल्हाखण्ड में वर्णित है ।यह काव्य इन जिलों में बहुत ही चाव के साथ गाया जाता है।
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डा0 स्मिथ, जार्ज गियर्सन जैसे विदेशी विचारकों ने भी इस ग्रंथ की भूरि-भूरि प्रसंशा की है। उनके अनुसार आलखण्ड राजपूती शौर्य की गाथा अंग्रेजी पाठकों की संवेदना को ,संस्कृत के कृत्रिम महाकाव्यों की अपेक्षा कहीं अधिक छूती है ।शायद लय बनने से यह स्वीकार हुआ हो ।फर्रुखवाद के तत्कालीन कलक्टर इलियट ने भिन्न -भिन्न लोक नायकों को बुलाकर इसकी पांडुलिपि तैयार करवायी थी और उसे प्रकाशित कराया था।
इस वंश का कभी भी स्वतंत्र राज्य नहीं रहा और इन दो पीढ़ियों के अतिरिक्त न ही ये कभी प्रकाश में आये। वनाफर यदुवंशी राजपूत उत्तर प्रदेश के वाराणसी , हमीरपुर, महोबा , जालौन , बांदा ,गाजीपुर ,मिर्जापुर तथा बिहार के गया ,रांची जिलों में पाए जाते हैं।मध्यप्रदेश के जबलपुर आदि जिलों में भी बनाफर राजपूत पाये जाते हैं।
संदर्भ-
- पाथेय कण मासिक पत्रिका , 9 मई 1918।
- राजपूत शाखाओं का इतिहास-ठा0 ईश्वर सिंह मडाढ
- धर्मयुग ,15 जुलाई 1984
- करौली राज्य की ख्याति।
- करौली जादों वंश का इतिहास स्वर्गीय जगा कुलभान सिंह जी ,ठिकाना अकोलपुरा ,करौली ।
- हैंडबुक ऑन राजपूतस -कैप्टेन बिंगलेय
- राजपुताना का इतिहास -जगदीश सिंह गहलौत
- 27-ब्रजभारती ,भाग XV, न02 पेज 15-16।
- पृथ्वीराज रासो -कवि चन्द्र वरदाई
- ब्रज का सांस्कृतिक इतिहास प्रथम भाग -प्रभुदयाल मित्तल
- मथुरा डिस्ट्रिक्ट मेमोयर -ग्राउस
- गैज़ेटर ऑफ उत्तरप्रदेश डिस्ट्रिक्स -मथुरा ,झांसी , वांदा ,हमीरपुर , वराणसी तथा जालौन ।
- इलियट सप्लीमेंट्रल ग्लॉसरी टर्म्स।
- ट्राइब्स एंड कास्ट्स ऑफ नार्थ -वेस्ट प्रोविन्सेस वॉल।,2,3-विलियम क्रूके 1974।
- बुन्देली लोकगीतों में 1857 की लोकलहर-लेखक मदन सिंह ।
लेखक:- डॉ0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव:- लढोता, सासनी
जिला:- हाथरस, उत्तरप्रदेश
प्राचार्य:- राजकीय स्नातकोत्तर कन्या महाविद्यालय ,सवाईमाधोपुर ,राजस्थान
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