राजपूताने का खजुराहो तिमनगढ़ दुर्ग यदुवंशियों की वीरता, साहस एवं शौर्य का प्रतीक।

सांस्कृतिक एवं कला का अलौकिक प्रतीक
Edited By- Vijay Laxmi Singh
बयाना से लगभग 23 कि.मी दक्षिण में एक उन्नत पर्वतशिखर पर मध्यकाल प्रसिद्ध दुर्ग ताहनगढ़ (तिमनगढ़) या त्रिभुवनगढ़ स्थित है। दुर्गम पर्वतमालाओं से आवृत , वन सम्पदा से परिपूर्ण तथा नैसर्गिक सौन्दर्य से सुशोभित इस दुर्भेद्य दुर्ग की अपनी अदभुत निराली ही शान और पहिचान है। शौर्य, वीरता और पराक्रम की अनेक घटनाओं के साक्षी इस किले में प्राचीन काल की भव्य और सजीव प्रतिमाओं के रूप में कला की एक बहुमूल्य धरोहर बिखरी पड़ी है जिसके कारण इसे राजस्थान का खजुराहो कहा जाता है।
महाराजा ताहनपाल के नाम से जाना जाता है दुर्ग ताहनगढ़-
समुतल से लगभग 1309 फीट की ऊँचाई पर स्थित इस दुर्ग का निर्माण बयाना के जादों राजा विजयपाल के पुत्र ताहनपाल (तिमनपाल / त्रिभुवनपाल) ने 11वीं शताब्दी (1058 ई0) ईस्वी के उत्तरार्द्ध में कराया था। अपने निर्माता के नाम पर यह किला ताहनगढ़( तिमनगढ़ ,तवनगढ़ ,थनगढ़, त्रिभुवनगढ़ ) तथा दुर्ग वाली पहाड़ी त्रिभुवनागिरि कहलाती है। इतिहास में ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि मुस्लिम आधिपत्य के बाद इसका नाम इस्लामाबाद कर दिया गया था।
विदित इतिहास के अनुसार बयाना (विजयमन्दिरगढ़ ) के जादों महाराजा विजयपाल की मृत्यु एवं बयाना के विजयमन्दिरगढ़ दुर्ग पर मुस्लिम आधिपत्य होने के बाद यादव (आधुनिक जादों ) कुछ वर्षों तक गुप्तरूप में बयाना से बाहर किसी अज्ञात सुरक्षित स्थान पर रहे। तत्पश्चात विजयपाल के पुत्र ताहनपाल ने एक सिद्धयोगी मेढकीदास का आशीवाद प्राप्त कर बयाना से लगभग 23 किलोमीटर दूर ताहनगढ़ का यह किला तथा सागर नामक जलाशय बनवाया ।कुछ इतिहासकारों ने इस इस दुर्ग के अन्दर बसे हुए नगर को त्रिपुरा नगरी /त्रिभुवन नगरी कहा गया है जो किसी जमाने में बहुत ही समृद्ध नगर था ।
"मुस्लिम आक्रांताओं ने जदुवंशियों से बयाना का किला हस्तगत लिया। बयाना के जादों शासक विजयपाल के 18 पुत्र थे। सबसे बड़ा पुत्र ताहनपाल बारह वर्ष तक पोशीदह रहकर अपनी धाय माता के घर पर आया, उसने ताहनगढ़ का किला बयाना के अग्निकोण में 23 किलोमीटर की दूरी पर दक्षिण दिशा में बनवाया ।"
मध्यप्रदेश में देवास के निकट इणगोड़ा नामक गाँव से विक्रम संवत 1190 आषाढ़ सुदी 11(11जून 1533ई0 ) मिले शिलालेख के अनुसार तवनपाल या तहणपाल की उपाधि " परम् भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर "लिखी मिली है जिससे यह ज्ञात होता है कि वह एक वीर एवं शक्तिशाली शासक था। इतिहासकारों के अनुसार उसके राज्य में वर्तमान अलवर का आधा भाग, भरतपुर धौलपुर , वर्तमान करौली , गुणगाव और मथुरा का क्षेत्र एवं वर्तमान आगरा तथा ग्वालियर का काफी भू- भाग सामिल था। ताहनपाल के दो पुत्र हुए धर्मपाल और हरिया हरपाल थे ।तहनपालन का उत्तराधिकारी धर्मपाल था ।धर्मपाल का पुत्र यदुवंशी राजा कुँवरपाल ।
ताहनगढ़ के शासक -
परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर तिमनपाल(1093 ई0) के बाद धर्मपाल , कुँवरपाल प्रथम( 1112ई0) ,महाराजाधिराज अजयपाल(1150ई0) ,हरिपाल(1170ई0) तथा सहनपाल ( 1187ई0) के पश्चात कुंवरपाल द्वितीय तिमनगढ़ के शासक बने। डॉ० दशरथ शर्मा ने इनको कुँवरपाल (द्वितीय) बतलाया है। उधर फारसी इतिहासकार हसन निजामी के अनुसार 1196 ई० में तिमनगढ़ ( थनकीर )कुंवरपाल का शासन था। करौली की ख्यात में इसे कुंवरपाल बताया गया है, जो सही प्रतीत होता है।
कुँवरपाल को अपनी विशाल सेना एवं सुदृढ किले पर गर्व था। कुंवरपाल (द्वितीय) एक कुशल एवं प्रतापी शासक था तथा उसके पास एक विशाल सेना थी। वह एक धार्मिक सहिष्णु शासक था। उसने सभी धर्मों का आदर किया लेकिन जैन धर्म के अहिंसावादी विचारधारा का दृढ़ता से पालन करता था। उसे हिंसा बिल्कुल पसन्द नहीं थी। इस कारण उसका शासन काल समृद्ध व शांत प्रिय था।
उसने जैन मुनियों से अहिंसा की शिक्षा ली और अहिंसा का पुजारी बन गया था तथा यह जनकल्याण की भावना से प्रेरित होकर अपने कल्याणकारी कार्यों में प्रसन्नता महसूस करता था किन्तु उसका अहिंसा का पुजारी होना समय के अनुकूल नहीं था, क्योंकि इस समय भारत पर तुर्कों के हिंसक हमले हो रहे थे। उसके शासनकाल में 1196 ई० में मुहम्मद गौरी ने अपने सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक एवं वहाउद्दीन तुगरिल के साथ एक विशाल सेना लेकर तिमनगढ़ ( थंगगीर) पर आक्रमण किया और तिमनगढ़ उसके हाथों से निकल गया ।
तिमनगढ़ पर मुहम्मद गौरी का आक्रमण-
मुहम्मद गौरी गौर राज्य का रहने वाला था तथा शंसवनी वंश से सम्बन्ध रखता था । गौर राज्य गजनी व हरात के मध्य एक छोटा-सा पहाड़ी राज्य था। मोहम्मद गौरी का बड़ा भाई गियासुद्दीन 1163 ई० में गौर का सुल्तान बना । उसने मुहम्मद गौरी को 1173 ई० मे गजनी का सुबेदार नियुक्त किया ।यद्यपि वह गजनी में एक स्वतंत्र शासक की हैसियत से राज्य करता था। उसका पूरा नाम शहाबुद्दीन उर्फ मुईजुद्दीन मुहम्मद था वही आगे चलकर मुहम्मद गौरी के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुआ।
उसके पास एक बड़ी सेना थी तथा कुतुबुद्दीन ऐबक , वहाउद्दीन तुगरिल तथा बख्तियार खिलजी जैसे उसके वीर सेनापति थे।वह स्वयं एक साहसी युवक था । वह दूसरे राज्यों को जीत कर अपना गौरव बढ़ाना चाहता था तथा साम्राज्यवादी विचारधारा रखता था। दूसरी तरफ इस युग में सैनिक यश को अधिक महत्व दिया जाता था। इस लिए वह विजय एवं शक्ति की अभिलाषा के लिए विशाल साम्राज्य स्थापित कर प्रतिष्ठा कमाना चाहता था।इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु भारत पर बार-बार आक्रमण किये । गौरी ने अधिकांश भारतीय राज्यों , नगरों , मन्दिरों पर आक्रमण किये जिससे वहाँ से धन की प्राप्ति हो सके और इस्लाम धर्म का प्रचार किया जा सके।
मुहम्मद गौरी एवं जादौ राजपूतों का युद्ध-
मुहम्मद गौरी में 1192 ई० में तराइन के द्वितीय युद्ध में चौहान राजा पृथ्वीराज तृतीय को हराकर दिल्ली पर अधिकार कर लिया। इसके पश्चात उसने दिल्ली के आस-पास राजपूत राज्यों को अपने अधिकार में करने का प्रयास किया और इसी परिपेक्ष में दिल्ली के यदुवंशी राज्य तिमनगढ़ पर गौरी ने हसन निजामी के अनुसार हि०स० 592/1196 ई0 में आक्रमण किया जब कि मिनहाज-उस-सिराज के अनुसार हिजरी संवत 591 / 1195 ई० में आक्रमण किये।
इन तिथियों के इस विरोधाभास से प्रतीत होता है कि गौरी ने ताहनगढ़ हि0 सं0 591 के अंत में आक्रमण किया और यह अभियान हि0 संवत 592 के प्रारम्भिक महीनों तक चला अर्थात एक लम्बे समय बाद गौरी को थनगर (तिमनगढ़ /ताहनगढ़ /त्रिभुवनगिरि ) पर सफलता मिली थी। ताज-उल-मासीर के अनुसार तिमनगढ़ का नाम थनगर था जबकि तबकाते नासीरी ने थनकर नाम का उल्लेख किया है। ताज-उस-मासीर के अनुसार गौरी के आक्रमण के समय कुँवरपाल तिमनगढ़ पर शासन कर रहा था। वह गौरी के आक्रमण की सूचना पाकर अपने सुदर्द दुर्ग तिमनगढ (थनगीर) में सुरक्षित हो गया क्योंकि उसे अपनी विशाल सेना व सुदृढ़ दुर्ग पर गर्व था।
कुतुबुद्दीन ऐबक का ताहनगढ़ पर आक्रमण-
इस सम्बन्ध में हसन निजामी ने ताज -उल मासीर में लिखा है कि " सुल्तान ने 1196ई0 /592हिजरी संवत में गजनी से सेना लेकर भारत की ओर प्रस्थान किया तो हाँसी में कुतुबुद्दीन ऐबक अपनी सेना सहित दिल्ली में चलकर इस अभियान में सम्मिलित हो गया। कुतुबुद्दीन ऐवक , मुहम्मद गौरी का कृपापात्र व कुशल सेनापति था। इस प्रकार गौरी ने अपने विश्वास पात्र सेनापति कुतुबुद्दीन ऐवक व बहाउद्दीन तुगरिल के नेतृत्व में थनगर (तिमनगढ़) पर आक्रमण करने हेतु प्रस्थान किया।
यहाँ का शासक कुंवरपाल बड़ा ही साहसी व वीर था। उसे अपनी विशाल सेना तथा सुदृढ दुर्ग पर बड़ा गर्व था ।अब तक उसके दुर्ग को संसार के किसी भी शासक ने नहीं जीता था। यह दुर्ग व नगर मूर्ति पूजा का एक पवित्र धार्मिक केन्द्र था। सुल्तान ने अपने सेनापति ऐबक एवं तुगरिल की सलाह से तथा अपने विवेकानुसार ब्यूह रचना कर दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया तथा दुर्ग के चारों और लोहे (चट्टानों) की ऊंची-ऊंची पहाडियों पर सेना के डेरे डाले गये। शाही डेरों के रस्से आकाश तक पहुंचे तो आस-पास की भूमि कई प्रकार के रंग वाले डेरों से विभूषित हो गई।
भारी खून -खराबा होने के बाद यह सुदृढ दुर्ग जीत लिया गया जिसे अभी तक दुनिया के किसी शासक ने नहीं जीता था। जब यहाँ के राजा कुंवरपाल ने प्रतिपक्ष की सेना की शक्ति को देखा तो वह भयभीत हो गया और अपने प्राणों की भीख मांगी और दास की भाँति उसने अपने दातों से भूमि का चुम्बन किया तब उसे क्षमा करके कृपापात्र बना लिया गया और उसे अभयदान दे दिया ।
दूसरी ओर मिनहाज-उस-सिराज ने तबकाते-नासीरी में लिखा है कि गौरी ने हि0 स0 591 / 1195 ई0 मे बयाना देश में थनगर (तिमनगढ़) पर वहां के राजा (राय) के साथ युद्ध लड़कर जीता तथा अपने कृपापात्र दयाभावी निष्पक्ष तथा विनम्र स्वभाव के वयोवृद्ध सेनापति बहाउददीन तुगरिल को यहाँ का प्रशासक बना दिया। तुगरिल सुल्तान के वृद्ध नौकरों (सेवको) में से एक था इस कारण सुल्तान ने उस पर कृपा कर उसे प्रशासक बना दिया।
तुगरिल ने इस नगर व दुर्ग की स्थिति पुनः सुधारने हेतु हिन्दुस्तान के विभिन्न भागों से तथा खुरसान से व्यापारियों एवं सम्पन्न व्यक्तियों को यहाँ निवास हेतु बुलाया गया। उन्हें घर व सामान दिये तथा भूमि देकर भूस्वामी बना दिया ताकि ये स्थाई रूप से बस सके। परन्तु कुछ समय पश्चात् तुगरिल और उसकी सेना ने धनकर में स्थाई रूप रहना पसन्द नहीं किया और वह बयाना के पास सुल्तानकोट नामक नए नगर की स्थापना कर वहां रहने लगा।
उपरोक्त दोनों फारसी इतिहासकारों ने गौरी के इस अभियान को बढ़ा-चढ़ा कर लिखा है।उनके मतानुसार सुल्तान ने अपनी शक्ति के बल पर दुर्ग को लड़ कर वहां के शासक से प्राप्त किया ।तत्कालीन शासक कुंवरपाल ने अपने आप को दुर्ग में घिरा हुआ पाकर वह घबरा गया और सुल्तान से क्षमादान की मांग की ।कुंवरपाल ने परिस्थितियों को प्रतिकूल जानकर दुर्ग तुर्कों के हवाले कर दिया और गौरी से प्राणों की भीख मांगी ।इस पर गौरी ने तिमनगढ़ का राज्य छीन लिया और कुंवरपाल को अभयदान दे दिया गया ।
फ़ारसी इतिहासकार के यह विचार एक पक्षीय हैं ।वास्तविकता में तिमनगढ़ दुर्ग पर मुहम्मद गौरी ने हिजरी संवत 592 / 1195-96 ई0 में भारत में आक्रमणों का अभियान किया और थनगीर (तिमनगढ़ ) पर अचानक आक्रमण की योजना बनाई और अपने सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक एवं बहाउद्दीन तुगरिल्के अधीन एक बड़ी सेना भेजकर थनगीर /तिमनगढ़ को चारों ओर से घेर लिया।उधर तिमनगढ़ के शासक कुँवरपाल को अपने सुदृढ दुर्ग एवं विशाल सेना पर अभिमान था तथा उसने भी अपने आप को किले में सुरक्षित कर दुर्ग की रक्षार्थ सैनिकों को तैनात किया।
लेकिन खुदा की कृपा से तुर्कों की शक्ति दिन -प्रतिदिन बढ़ती गयी।परिस्थितियों को अनुकूल जानकर गौरी ने दुर्ग को कुछ दिन घेरे रखा और उचित अवसर पाकर यदुवंशियों के सैनिक मोर्चों पर आक्रमण कर दिया।दूसरी तरफ दुर्गाध्यक्ष कुँवरपाल ने भी तुर्कों के सम्मुख आत्मसमर्पण करना उचित नहीं समझा तथा परिस्थितियों को प्रतिकूल समझकर एवं जनहानि की रक्षा करने के बास्ते से गुप्त मार्ग से तिमनगढ़ दुर्ग छोड़ दिया गया और वहां के व्यापारी एवं जनता अन्य सुरक्षित स्थानों पर चले गये।
यादवों की सेना दुर्ग की रक्षार्थ अपनी क्षमता के अनुरूप लड़ती रही लेकिन वह तुर्कों के सामने अधिक समय तक टिक नहीं सकी तथा अधिकांश सैनिक युद्ध करते -करते वीरगति को प्राप्त हुए।तिमनगढ़ की बर्वादी एवं पतन का मुख्य कारण गौरी की कड़ी मोर्चाबन्दी एवं कुशल नेतृत्व था जिसकी वजह से उसने तिमनगढ़ की यादव वाहिनी सेना पर विजय प्राप्त की तथा इसके बाद तुर्कों ने क्षेत्रीय छोटे -बड़े दुर्गों को भी हस्तगत कर लिया था।मुहम्मद गौरी ने बड़ी चतुरता से यह ध्यान रखते हुए कि यादव संगठित होकर पुनः विद्रोह न कर सकें इस के लिए गौरी ने तिमनगढ़ में एक सैनिक छावनी भी स्थापित कर दी ताकि इस क्षेत्र पर लम्बे समय तक आधिपत्य बना रहे।
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मुहम्मद गौरी अपने विश्वसनीय योग्य सेनापति वहाउद्दीन तुगरिल को दुर्ग की जिम्मेदारी देकर स्वयं ग्वालियर विजय अभियान के लिए प्रस्थान कर गया।तिमनगढ़ का पराजित यदुवंशी शासक कुंवरपाल अपने परिवार सहित दुर्ग छोड़कर कर चम्बल पार मध्य भारत के सबलगढ़ क्षेत्र में चला गया।कुछ इतिहास वेत्ताओं के अनुसार पराजित कुंवरपाल अपने नजदीकी रिश्तेदारों के यहां रीवा के अंधेर कोटला नामक स्थान पर चला गया ।
तिमनगढ़ के मूल निवासी कवि लक्ष्मण (लाखू ) ने " जिनदत्त चरित्र " में मुसलमानों के आक्रमण बारे में लिखा है-
ते तिहुवणगिरि भग्गउ उज्ज्वेण ।
घित्तउ बलेण मिच्छाहिवेण ।।
अर्थात तिमनगढ़ पर मलेच्छों ने आक्रमण कर दिया और लेखक तिनगढ़ छोड़कर अन्यत्र भाग गया। इस प्रकार मुहम्मद गौरी के द्वारा इस दुर्ग पर अधिकार करने से यहां के गौरवशाली स्वर्णिम युग का अन्त हो गया।
ताहनगढ़ दुर्ग की अलौकिक कलाकृतियां-
लगभग 8 कि०मी० की परिधि में फैला ताहनगढ़ /तिमनगढ़ दुर्ग शास्त्रक्तगिरि दुर्ग का उत्तम उदाहरण है। उन्नत और विशाल प्रवेशद्वार तथा ऊँच परकोटा इस दुर्ग के स्थापत्य की प्रमुख विशेषता है। जगन पोल और सूर्यपोल इसके दो प्रमुख प्रवेशद्वार हैं। बीते जमाने में यह किला अपने आप में एक सम्पूर्ण इकाई था। समूचा नगर दुर्ग के भीतर बसा हुआ था। दुर्ग में 60 दुकानों से युक्त एक विशालकाय बाजार था।
इसके अतिरिक्त खास महल, बड़ा चौक, भौजाई का कुंआ, दुर्गाध्यक्ष के महल, राजगिरि, सैनिकों के आवासगृह, जीर्ण -शीर्ण छतरियाँ तथा तहखाने आदि भवन उल्लेखनीय हैं। तिमनगढ़ दुर्ग में उपलब्ध प्राचीन प्रतिमाओं के कारण यह दुर्ग केवल ऐतिहासिक दृष्टि से ही महत्त्वपूर्ण नहीं अपितु अपनी बहुमूल्य सांस्कृतिक एवं कलात्मक धरोहर के कारण भी विशिष्ट महत्त्व रखता है।
यादवों (आधुनिक जादौन राजपूत)की पराजय के कारण-
तिमनगढ (थनगर) के यादवों के पास सुदृढ दुर्ग एवं विशाल सेना होने के बावजूद वे तुर्कों से हार गये ।
इसके लिए निम्नलिखित कारण थे-
- प्रथम तो यादवों में नेतृत्व का अभाव था ।यदुवंशियों की सेना का नेतृत्व उनके राजा कुँवरपाल ने नहीं किया बल्कि वह स्वयं किले में जाकर सुरक्षित हो गया। उधर शत्रु सेना का नेतृत्व स्वयं गौरी ने किया तथा उसने स्वयं किले को घेरने की योजना बनाकर दुर्ग के चारों ओर ऊँची पहाड़ियों पर सेना के डेरे लगाये और किले को चारों ओर से घेर लिया। इस प्रकार कुशल नेतृत्व के अभाव में यादव सेना वीरता पूर्वक मुकाबला नहीं कर सकी और पराजय का मुंह देखना पड़ा।
- ताहनगढ़ के यदुवंशी राजपूतों का पड़ोसी राज्यों से मित्रता के सम्बन्ध नहीं थे तथा उनमें पारिवारिक वैमनस्य था । इस कारण तिमनगढ़ के सुरसैनी यादव तुर्कों के सामने अकेले ही रह गये तथा उन्हें किसी क्षेत्रीय राजपूत शासक की मदद नहीं मिली।
- यदुवंशियों के सामन्त एवं जागीरदारों ने अपनी ओर से इस युद्ध में रुची से भाग नहीं लिया ।उनमें आपसी एकता का अभाव था , जब कि सेना विशाल थी लेकिन फिर भी पराजय का सामना करना पड़ा।
- गौरी के अपनी सेना में एक धार्मिक ओजस्वी भाषण देने के कारण उसके सैनिक लड़ कर मरना अच्छा मानते थे ।पड़ौसी राज्यों ने यादवों को कोई सहयोग नहीं दिया। तुर्की सेना ने इस देश के राज्यों की आपसी फुट का लाभ उठाया और एक -एक कर अधिकांश राजपूत शासकों को जीत लिया। उसमें प्रशिक्षित सेना का अभाव था तथा सैनिक संगठन सुदृढ एवं केंद्रीकृत नहीं था। शासक को अपने राज्य के सामन्तों एवं जागीरदारों से युद्ध के समय सैनिक सहयोग मिलता वह नहीं मिला। यादव सेना के पास परम्परागत हथियार थे तथा अश्वरोही सेना का अभाव था। यादवों के पास अधिकांश पैदल सेना थी जब कि तुर्की सेना प्रशिक्षित ,उत्साही एवं संगठित थी। उनके पास अश्वारोही सेना का दस्ता तथा कुछ सैनिक व सेनापति दुर्ग घेरने एवं युद्ध की रचना करने में माहिर थे। इसके फलस्वरूप यादवों की पैदल सेना तुर्की घुड़सवार सेना के दस्तों के सामने अधिक समय तक युद्ध में नहीं टिक सकी। इस घुड़सवार सेना ने यादव सेना पर भीषण आक्रमण कर तुर्कों को विजय श्री दिलाई।
- तिमनगढ़ के यादव शासकों पर जैन धर्म का प्रभाव था। उन्होंने जैन मुनियों के धर्मोपदेश को सुनकर उनके परम भक्त बन गये ।इस वंश के शासक पीढ़ी दर पीढी अहिंसा का पालन करते रहे और इस कारण राजाओं ने हिंसक युद्ध नहीं किये और न ही साम्राज्य विस्तार किया।
- यदुवंशियों में दूरदर्शिता का अभाव था एवं उनके पास गुप्तचर सेना की भी कमी थी। इस कारण गोरी के अचानक हुए आक्रमणों से यादव इसका सामना नहीं कर पाये और वे हार गये। इस प्रकार उनका पतन हो गया।
दूसरी और दुर्ग पतन का कारण एक राज्य की नटनी का शाप भी बतलाया जाता है। लोक मान्यताओं के अनुसार यहाँ के राजा ने एक बार नटनी से शर्त रखी थी कि यदि वह रस्से पर चलकर दुर्ग में आ जाऐगी तो आधा राज्य दे दिया जाएगा । नटनी शर्त के मुताबिक रस्से पर चलकर दुर्ग तक आने वाली ही थी कि राजा चिन्तित हो गया और रस्सा कटवा दिया जिससे नटनी की मृत्यु हो गई और उसने शाप दिया कि राजा तेरा पूरा नगर पत्थर का बनकर वीरान हो जायेगा । कहा जाता है ऐसा ही हुआ।
कुँवरपाल द्वितीय के पश्चात् तिमनगढ़ दुर्ग की स्थिति-
तिमनगढ़ पर अधिकार करने के बाद गौरी ने यह दुर्ग अपने एक सेनापति बहाउदीन तुगरिल को दे दिया और स्वयं ग्वालियर लौट गया। मिनहाज-उस-सिराज के अनुसार बहाउद्दीन तुगरिल गौरी का एक सर्वश्रेष्ठदास था जिसने ताहनगढ़ का शासन बढ़ी कुशलता से चलाया और उसके विकास के लिए कई कदम उठाये किन्तु जब इसके लोगों को यह दुर्ग असुविधाजनक और अरुचिकर लगने लगा तब उसने बयाना दुर्ग के पास सुल्तानकोट नामक नगर बसाकर अपना मुख्यालय बनाया। यह दुर्ग अहमद खां जलवानी के पुत्र अशरफ को सौंपकर बहाउद्दीन ने अपना कार्यालय सुल्तानकोट में स्थानान्तरित कर दिया।
तिमनगढ़ के दुर्ग के सम्बन्ध में किसी भी इतिहासकार ने अधिक नहीं लिखा है। कुँवरपाल द्वितीय के पश्चात उसके उत्तराधिकारियों द्वारा समय-समय पर दुर्ग पर पुनः अधिकार करने के प्रयास किये गये थे किन्तु इस पर स्थाई रूप से अधिकार नहीं कर पाये। इस सम्बन्ध में मुंशी अकबर अली बेग ने "तवारीख-ए-करोली " में लिखा है कि "कुतुबुद्दीन की मृत्यु के बाद राजपूताने में एक बार पुन स्वतंत्र राज्य घोषित करने का अभियान चला था ।इस क्रम में यदुवंशियों ने भी पुनः ताहनगढ़ को लेने का प्रयास किया किन्तु वे इस दुर्ग को प्राप्त करने में असफल रहे और इस पर का दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश का अधिकार हो गया। सुल्तान इल्तुतमिश ने नसुरूदीन तापसी को इस दुर्ग का हाकिम बना दिया। इस प्रकार यह दुर्ग तुर्कों के अधिकार में ही रहा।
हमीर महाकाव्य से भी इस बात की पुष्टि होती है कि कुंवरपाल द्वितीय के वंशजों ने पुनः ताहनगढ़ पर अधिकार किया था। इस महाकाव्य में यह कहा गया है कि रणथम्भौर के शासक हमीरदेव चौहान महाराष्ट्र , खण्डिल , चम्पा , आदि को लूटता हुआ जब वापस अपनी राजधानी लौट रहा था तब मार्ग में त्रिभुवनगिरि (तिमनगढ़ ) पहुंचने पर वहां के शासक त्रिलोचनपाल ने हमीरदेव का भारी स्वागत किया।
यद्यपि हमीर महाकाव्य में शासक का नाम नहीं दिया गया है लेकिन कुछ इतिहासकारों के अनुसार उस समय त्रिलोचनपाल को ही तिमनगढ़ का शासक स्वीकार किया है। जबकि कुछ इतिहासकारों जैसे हरिचरण गुप्ता के अनुसार तिमनगढ़ का शासक उस समय घुघलदेव को माना है । किन्तु इस सन्बन्ध में फिर भी मतभेद बना हुआ है।
14वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यादव वंशीय अर्जुनपाल ने अपने पैतृक राज्य तिमनगढ़ पर पुनः अधिकार कर लिया और सरमथुरा के 24 गाँव बसाये । उसने विक्रम संवत 1405 (1348 ई0 ) में कल्याण जी का मन्दिर बनवा कर कल्याणपुरी नामक नगर बसाया जो वर्तमान में करौली कहलाता है। इस प्रकार अपनी स्वतंत्र सत्ता खोने के बावजूद भी तिमनगढ़ का महत्व बना रहा।
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निस्तर आन्तरिक झगड़ों में उलझे होने के कारण तिमनगढ़ /बयाना के यदुवंशी राजपूत राजा उत्तर भारत की राजनीति में कोई महत्वपूर्ण भाग नहीं ले सके। यद्यपि तुगलक एवं सैय्यद राजवंश के अवसान तक उनकी स्वतंत्रता विद्यमान रही किन्तु शीघ्र ही यादव शासक चन्द्रपाल या चन्द्रसेन के शासनकाल में मालवा के महमूद खलजी ने 1454 ई0 में तिमनगढ़ दुर्ग पर आक्रमण कर उस पर अपना अधिकार कर लिया।
आगे चलकर 1516 ई0 में तिमनगढ़ पर सिकन्दर लोदी का अधिकार हो गया। 953 हि 0 में शेरशाह के अधीन रहा यहां शेरशाह के पुत्र शालीम शाह का लेख मिला है। मुगल शासक बाबर के शासनकाल में आलम खाँ यहाँ का दुर्गाध्यक्ष था ।कालान्तर में राजा गोपालदास ने अकबर के शासनकाल में उसे अपनी सेना से प्रसन्न कर अपने पैतृक राज्य को पुनः प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की थी।
सारांशतः यह कहा जा सकता है कि तिमनगढ़ के यदुवंशी शासकों ने अपनी स्वतंत्रता को पुनः प्राय करने के लिए कई बार संघर्ष किया किन्तु 16वीं शताब्दी में अकबर के काल में बदलते हुए राजनीतिक परिवेश के कारण यहाँ के शासक करौली की ओर स्थानान्तरित हो गये और उन्होंने ताहनगढ़ दुर्ग के रख-रखाव के लिए कोई ध्यान नहीं दिया जिससे इस दुर्ग का शनै -शनै पतन हो गया और यह दुर्ग खण्डहरों में परिवर्तित हो गया।
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- करौली राज्य का इतिहास -लेखक दामोदर लाल गर्ग
- यदुवंश का इतिहास -लेखक महावीर सिंह यदुवंशी
- अध्यात्मक ,पुरातत्व एवं प्रकृति की रंगोली करौली -जिला करौली
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- राजस्थान के प्रमुख दुर्ग -लेखक रतन लाल मिश्र
- यदुवंश -गंगा सिंह
- राजस्थान के प्रमुख दुर्ग-डा0 राघवेंद्र सिंह मनोहर
- तिमनगढ़-दुर्ग ,कला एवं सांस्कृतिक अध्ययन-रामजी लाल कोली
- भारत के दुर्ग-पंडित छोटे लाल शर्मा
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- प्रोटेक्टेड मोनुमेंट्स इन राजस्थान-चंद्रमणि सिंह
- आर्कियोलॉजिकल सर्वे आफ इंडिया रिपोर्ट भाग ,20.,पृष्ठ न054-60--कनिंघम
- रिपोर्ट आफ ए टूर इन ईस्टर्न राजपुताना ,1883-83 ,पृष्ठ 60-87.--कनिंघम
- राजस्थान डिस्ट्रिक्ट गैज़ेटर्स -भरतपुर ,पृष्ठ,. 475-477.
- राजस्थान का जैन साहित्य 1977
- जैसवाल जैन ,एक युग ,एक प्रतीक
- राजस्थान थ्रू दी एज -दशरथ शर्मा
- हिस्ट्री ऑफ जैनिज़्म -कैलाश चन्द जैन ।
- ताहनगढ़ फोर्ट :एक ऐतिहासिक सर्वेक्षण -डा0 विनोदकुमार सिंह
- तवारीख -ए -करौली -मुंशी अली बेग
- करौली ख्यात एवं पोथी अप्रकाशित ।
लेखक:- प्रोफेसर डॉ. धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव:- लढोता, सासनी
जिला:- हाथरस,उत्तरप्रदेश
प्राचार्य:- राजकीय कन्या महाविद्यालय ,सवाईमाधोपुर ,राजस्थान ,322001
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