हिन्दू स्थापत्य के विख्यात उन्नायक एवं हिन्दू मंदिरों के महान निर्माता ओरछा नरेश वीर सिंह जूदेव बुंदेला।
Edited By- Vijay Laxmi Singh
पारवारिक परिचय
राजा वीर सिंह जूदेव बुंदेला (1605-1627 ई.) ओरछा के सबसे प्रतापी शासक थे। उनके काल को बुंदेला राजवंश के इतिहास में स्वर्णिम काल कहा जाता है। इस काल में बड़ी संख्या में इमारतों का निर्माण हुआ और बुंदेला वास्तुकला का बहुत विकास हुआ। वे राजा मधुकर शाह बुन्देला के पुत्र थे। माता कुंवर गणेश राजे जो भगवान राम की अनन्य भक्त थीं। इन्होने बहुत किले व तालाबों का निर्माण अपने राज्यकाल में कराया।
मुग़ल सम्राट जहांगीर के शासनकाल में ओरछा के राजा वीर सिंह बुंदेला हिन्दू मंदिरों के निर्माता एवं हिन्दू स्थापत्य के विख्यात उन्नायक हुये। उन्होंने सन् 1605 से 1627ई0 तक लगभग ओरछा पर शासन किया। वे ओरछा के समस्त राजाओं में सबसे प्रसिद्ध एवं प्रभावशाली नरेश हुये ।एक महान योद्धा , निडर एवं कुशल शासक थे। अपनी वीरता ,योग्यता और शासन -कुशलता से उन्होंने ओरछा राज्य की बड़ी उन्नति की थी ,और उसकी सम्रद्धि में बड़ा योगदान दिया था।
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राजा वीरसिंह बुंदेला की ब्रजमण्डल यात्रा एवं ब्रज में उनके निर्माण कार्य-
राजा वीरसिंह ने संवत 1671 में ब्रजमंडल की तीर्थ -यात्रा की थी ।उस अवसर पर उन्होंने मथुरा के विश्रामघाट पर अपनी सोने की तुला कराई थी ।तुला में अपने भार बराबर स्वर्ण -दान करने के साथ -साथ उन्होंने 81 मन सोने का और भी धर्मार्थ संकल्प किया था। उस विशाल स्वर्ण -राशि के धन से विविध स्थानों पर 52 निर्माण कार्य एक साथ किये गये थे ।उन सवका शिलान्यास एक ही मुहूर्तसंवत 1675की माघ शु0 5 रविवार को हुआ था ।उन निर्माण कार्यों में भवन ,दुर्ग ,बाटिका ,घाट ,कुण्ड ,सरोवर ,ताल ,कूप आदि विभिन्न इमारतों का बनबाया जाना था ।इनका विवरण बुन्देली कवि प्रतीति राय लक्ष्मणसिंह लिखित "श्री लोकेन्द्र ब्रजोत्सव "नामक ग्रन्थ में दिया हुआ है ।इससे ज्ञात होता है कि वे निर्माण कार्य मथुरा ,वृंदावन तथा बृज के कई अन्य स्थानों के अतरिक्त ओरछा ,दतिया और काशी में भी किये गये थे।
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केशवदेव जी का मंदिर का निर्माण-
सम्राट जहांगीर के शासनकाल में ओरछा के राजा वीर सिंह ने मथुरा के श्री कृष्ण -जन्मस्थान पर श्री केशवदेव जी का मंदिर का जो विशाल मंदिर बनवाया था वह ब्रज के मुग़ल कालीन इतिहास की सवसे महत्वपूर्ण घटना है ।वीरसिंह के निर्माण कार्यों में सबसे विशाल और सर्वाधिक महत्वपूर्ण था ये मंदिर । राजा वीर सिंह अपने समय में "हिन्दू स्थापत्य "के प्रमुख "उन्नायक "थे ।वह सम्राट जहांगीर के अत्यंत कृपा -पात्र थे, और उसी के कारन उन्होंने राज्याधिकार प्राप्त किया था ।मथुरा में केशवदेव जी का मंदिर संवत 1680 के लगभग बन कर पूरा हुआ था,और उसके निर्माण में उस समय 33 लाख रूपये लगे थे ऐसा कहा जाता है।
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मथुरा के विश्राम घाट पर विशाल दरवाजे का निर्माण-
ओरछा के राजा वीर सिंह जू देव बुंदेला ने 1618 में मथुरा के विश्राम घाट पर विशाल दरवाजे का निर्माण कराया था। इस दरवाजे को तुला दरवाजा कहा जाता है। प्राचीन काल से ऐसी धार्मिक मान्यता रही है कि जो भी विश्रामघाट पर तुला दरवाजे का निर्माण कर इसके अंदर सोने के सिक्कों से तुलादान कर गरीबों को बांटेेगा उसके लिए यह तुला दरवाजा मोक्ष का मार्ग बन जाएगा। इसी मान्यता के मद्देनजर वीर सिंह बुंदेला ने विश्रामघाट पर विशाल दरवाजे का निर्माण कराया था, इस दरवाजे के ऊपर मंदिर की तरह गुंबद, नक्कारखाने बने होने के साथ ही यह स्थापत्यकला का बेजोड़ नमूना है। इसमें आज भी वीरसिंह जूदेव के नाम का शिलालेख लगा हुआ है। इस तरह के पांच दरवाजे विश्राम घाट पर बने हुए हैं, पर सबसे प्राचीन और पहला दरवाजा वीर सिंह बुंदेला के द्वारा बनवाया गया था। लक्ष्मण सिंह गौर की पुस्तक ओरछा का इतिहास और रस ब्रज रज कौ पुस्तक में ओरछा नरेश वीर सिंह जूदेव के इस तुला दरवाजा का उल्लेख है।
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तुला दरवाजा को माना जाता है मोक्ष का द्वार
संत किशोर दास जी महाराज वृंदावन बताते हैं कि प्राचीन ग्रंथों में विश्राम घाट को विश्रांति तीर्थ भी कहा गया है। ऐसा कहा गया है कि यहां स्नान करने से स्वर्ग गंगा का फल प्राप्त होने के साथ ही मोक्ष का मार्ग खुलता है। इसी मान्यता के तहत सोलहवीं सदी में ओरछा के महाराजा वीर सिंह बुंदेला ने यमुना नदी के किनारे विश्राम घाट पर तुला द्वार का निर्माण करवाकर इसमें तुलादान कर गरीबों को सोने के सिक्के बंटवाए थे। मंदिर की तरह बने इस विशाल दरवाजे में वीर सिंह जू देव के नाम का शिलालेख भी लगा हुआ है। हिंदू धार्मिक मान्यता के अनुसार इस तुला दरवाजा को मोक्ष का द्वार माना जाता है। वराह पुराण में वर्णन आता है कि मथुरा के विश्राम (विश्रांति) तीर्थ के दर्शन मात्र से दीर्घ विष्णु व केशव देव के दर्शनों का पुण्य फल प्राप्त होता है। भगवान वराह वसुंधरे से कहते हैं कि मथुरा में विश्रांति तीर्थ पर स्नान व दान करने वाला व्यक्ति देव लोक में निवास करने का अधिकारी हो जाता है, क्योंकि विश्रांति तीर्थ में श्रीहरि निवास करते हैं।
ब्रज मंडल के नंदगांव के अन्य निवासी भजन गायक दिनेश गोस्वामी बताते हैं कि ऐसी कथा है कि कंस को मारने के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने इसी स्थान पर कुछ देर विश्राम किया था, इस कारण इसका नाम विश्राम घाट पड़ा। यहां पर श्रीहरि का निवास माना जाता है। इसी के चलते मोक्ष की कामना के साथ रियासतों के राजाओं ने घाट की सीढ़ियों पर तुला द्वारों का निर्माण कराया था। इस घाट पर कुल पांच तुला द्वार हैं, इनमें सबसे पहले 1618 में ओरछा के राजा वीर सिंह बुंदेला ने निर्माण कराया। इसके बाद दूसरा द्वार उदयपुर के राणा ने, तीसरा दरवाजा रीवा के राजा रघुराज सिंह ने, चौथा काशी नरेश ने व पांचवें द्वार का निर्माण अहमदाबाद के सेठ गोविंद मणिलाल ने कराया था।
विश्रामघाट का तुला-द्वार भी वहां के द्वारों में सवसे प्राचीन है ।जिन देशी -विदेशी यात्रियों ने उस मंदिर को समय -समय पर देखा था ,उन्होंने भी उसका प्रशंसात्मक उल्लेख किया है ।वह मंदिर इतना विशाल ,भव्य और कलापूर्ण था कि उसके दर्शनार्थ प्रति वर्ष अनेक यात्री मथुरा आया करते थे ।वह मंदिर तो अब नहीं रहा ,किन्तु किला अभी विद्वयमान है ।क़िला के आकार से राजा वीरसिंह के उक्त मंदिर की विशालता का अनुमान किया जासकता है ।मथुरा का वह दर्शनीय देव -स्थान केवल अर्ध शताब्दी तक विद्यमान रहा था ।संवत 1726 में वह मंदिर औरंगजेब के मझवी उन्माद का लक्ष्य बना था ,जिसने बरवर्ता पूर्वक ध्वस्त करा दिया था ।
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वृंदावन में निर्माण कार्य-
राजा वीर सिंह देव ओरछा ने वृंदाबन के अक्रूर घाट पर एक दर्शनीय देवालय और मथुरा नगर के सामने यमुना पार के हंशगंज में बलदेव -मंदिर का भी निर्माण कराया।
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राजा वीरसिंह जुड़े बुंदेला ने की थी अकबर के दरवारी इतिहासकार अबुल फजल की हत्या-
वीरसिंह बुंदेला मुग़ल शहज़ादा सलीम (बाद में जहाँगीर) का कृपापात्र था। सलीम के कहने पर ही वीरसिंह बुन्देला ने बादशाह अकबर के विश्वसनीय मित्र , परामर्शदाता तथा दरबारी विद्वान इतिहासकार अबुल फ़ज़ल की 9 अगस्त 1602 ई. में हत्या कर दी थी। पुरस्कार स्वरूप सम्राट बनने पर जहांगीर ने वीरसिह बुंदेला को ओरछा का राजा बना दिया।
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ओरछा में जहाँगीर महल का निर्माण -
ओरछा में जहाँगीर महल का निर्माण वीरसिंहदेव ने जहाँगीर के लिए कराया था, यद्यपि जहाँगीर इस महल में वीरसिंहदेव के जीवन काल में कभी नहीं ठहर सका। जहांगीर तथा वीरसिंह देव की प्रगाढ़ मैत्री इतिहास प्रसिद्ध है। महल का प्रवेश द्वार पूर्व की ओर था किन्तु बाद में पश्चिम की ओर से एक प्रवेश द्वार बनवाया गया है। आजकल पूर्व वाला प्रवेश द्वार बंद रहता है तथा पश्चिम वाला प्रवेश द्वार पर्यटकों के आवागमन के लिए खोल दिया गया है। पर्यटकों के विशेष आग्रह पर पुरातत्व विभाग के कर्मचारीगण पूर्व वाला प्रवेश द्वार भी कभी खोल देते हैं जहां से मनोहारी दृश्यों का अवलोकन कर मन प्रकृति में डूब सा जाता है। यहां से नदी, पहाड़ एवं ओरछा के सघन वनों के ऐसे रम्य दृश्य दिखाई देते हैं कि पर्यटकों की सारी थकान स्वत: ही दूर हो जाती है।
ओरछा जहाँगीर महल को वीरसिंहदेव ने जहाँगीर के लिए बनवाया था, यद्यपि जहाँगीर इस महल में वीरसिंहदेव के जीवन काल में कभी नहीं ठहर सका। जहांगीर तथा वीरसिंह देव की प्रगाढ़ मैत्री इतिहास प्रसिद्ध है। महल का प्रवेश द्वार पूर्व की ओर था किन्तु बाद में पश्चिम की ओर से एक प्रवेश द्वार बनवाया गया है। आजकल पूर्व वाला प्रवेश द्वार बंद रहता है तथा पश्चिम वाला प्रवेश द्वार पर्यटकों के आवागमन के लिए खोल दिया गया है। पर्यटकों के विशेष आग्रह पर पुरातत्व विभाग के कर्मचारीगण पूर्व वाला प्रवेश द्वार भी कभी खोल देते हैं जहां से मनोहारी दृश्यों का अवलोकन कर मन प्रकृति में डूब सा जाता है। यहां से नदी, पहाड़ एवं ओरछा के सघन वनों के ऐसे रम्य दृश्य दिखाई देते हैं कि पर्यटकों की सारी थकान स्वत: ही दूर हो जाती है।
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झांसी का दुर्ग एवं उसकी तलहटी में स्थित प्राचीन पंचकुइयां मंदिर का निर्माण-
बंगरा नामक पहाड़ी पर इन्होंने 1613 में झांसी का किला भी बनवाया था जो झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और अंग्रेजों के मध्य हुये युद्ध में काफी प्रसिद्ध हुआ ।इसके आलावा इन्होंने बहुत से हिन्दू परम्परा से सम्बंधित निर्माण कार्य मुगलकाल में कराये ।
झांसी के दुर्ग की तलहटी में स्थित प्राचीन पंचकुइयां मंदिर अपने आप में जहां धार्मिक वैभव और चमत्कार समेटे हुए हैं वहीं इसका अपना गौरवशाली इतिहास भी है। यूं तो मंदिर के मुख्य दरबार में स्थापित मां शीतला व संकटा माता की प्रतिमाएं चंदेलकालीन हैं, पर उस समय इनका छोटा सा मंदिर था। सोलहवी शताब्दी में ओरछा के महाराजा वीर सिंह जूदेव ने झांसी के किले के निर्माण के दौरान ही पंचकुइयां के इस छोटे से मंदिर को विशाल स्वरूप दिया था।
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इसके अलावा मंदिर के अंदर अन्य देव प्रतिमाओं की भी स्थापना करवाई थी। बुंदेलखंड का यह एक मात्र मंदिर है जहां पर अलग-अलग बीमारियों के उपचार के लिए अलग-अलग देवियों की स्थापना की गई है। इनके छोटे-छोटे मंदिर भी परिसर में ही स्थित हैं। यहां हर बीमारी से संबंधित पूजा पद्धति भी अलग-अलग है। इसके वैज्ञानिक आधार के बारे में तो नहीं कहा जा सकता पर, धार्मिक आस्था के अनुसार सैकड़ों लोग यहां आकर संबंधित बीमारी की पूजा करवाते हैं। इनमें बड़ी चेचक, छोटी चेचक, मोतीझरा, फलक बराई जैसी बीमारियों के अलावा बच्चों की बीमारियों का निदान पूजा करके व जल पिलाकर होता है। जब झांसी में मराठा शासन आया तब महारानी लक्ष्मीबाई किले की तलहटी में स्थित इस मंदिर में प्रतिदिन पूजा अर्चना करने आती थीं।
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निधन-
ओरछा के नरेश वीरसिंह बुंदेला का निधन सन 1627 ईo हो गया था ।मैं ऐसे हिंदुत्व रक्षक को सत् -सत् नमन करता हूँ ।
जय हिन्द। जय राजपूताना।।
लेखक:- डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
गाँव:- लढोता, सासनी, जिला-हाथरस उत्तरप्प्रदेश
प्राचार्य:- राजकीय कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय सवाईमाधोपुर
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