आधुनिक हिन्दी के जन्मदाता राजा लक्ष्मण सिंह बजीरपुरा (आगरा ) का जीवन पर एक झलक।

आधुनिक हिन्दी के जन्मदाता राजा लक्ष्मण सिंह बजीरपुरा (आगरा ) का जीवन परिचय
बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्तित्व आधुनिक हिन्दी के जन्मदाता राजा लक्षमण सिंह जी, जादों क्षत्रिय ठिकाना बजीरपुरा (आगरा) की स्मृति में समर्पित मेरा ये लेख "तुम मुझे यूँ ही भुला न पाओगे "
- राजा लक्ष्मण सिंह पूर्व हरिश्चंद्र युग की हिन्दी गद्य -शैली के प्रमुख विधायक हैं।
- अंग्रेज सरकार में तहसीलदार, डिप्टी कलक्टर एवं कलक्टर।
- 10 से अधिक साहित्यिक भाषाओं के ज्ञानी।
- कालिदास की कई रचनाओं के हिंदी में अनुवाद कर्ता।
- कई पुस्तकों के लेखक और प्रसिद्ध साहित्यकार थे राजा लक्ष्मण सिंह जी।
- भारतेंदु हरिश्चंद युग से पूर्व की हिंदी गद्य की विकास यात्रा में हिंदी गद्य को समृद्ध करने और नई दिशा देने वालों में राजा लक्ष्मण सिंह का अविस्मरणीय योगदान।
- सरकारी कामकाज में हिंदी राजा लक्ष्मण सिंह जी और राजा बलवन्त सिंह जी अवागढ़ की देन।
- बुलहंदशहर जिले का गजेटियर राजा साहब ने लिखा था जो आज भी मौजूद है।
- उर्दू मिश्रित हिंदी के विरोधी थे राजा लक्ष्मण सिंह।
- वे संस्कृतनिष्ठ हिंदी के पक्षधर थे।
- आगरा का सौभाग्य था कि उन्होंने हिंदी भाषा का परचम पूरे देश में फहराया।
- आगरा में राजपूत बोर्डिंग हाउस के संचालन में आर्थिक मदद करने वाले दानदाता।
उन्नीसवीं शदी के उत्तरार्द्ध में अँग्रेजी सरकार ने अपने हितों को साधने के लिए हिन्दी -उर्दू' भाषा-विवाद को गरमाने में बड़ी कारगर भूमिका निभायी। इस भाषा- विवाद में प्रशासनिक दबावों के कारण राजा शिवप्रसाद 'सितारे हिन्द' बीच का रास्ता अपनाते हुए अरबी-फारसी के शब्दों से बनी खिचड़ी भाषा पर स्वीकृति की मुहर इस तर्क से लगा रहे थे- 'शुद्ध हिन्दी चाहनेवालों को हम यकीन दिला सकते हैं कि जब तक कचहरी में फारसी का हरफ जारी है तब तक इस देश में संस्कृत शब्दों को जारी करने की कोशिश बे-फायदा होगी।' राजा लक्ष्मण सिंह को 'सितारे हिन्द शिवप्रसाद का यह तर्क कतई रास नहीं आया।
उन्होंने उर्दू के विरोध में शुरू हुए शुद्ध हिन्दी-आन्दोलन को तीव्र करने में विशिष्ट भूमिका निभायी। राजा शिवप्रसाद की भाषा- नीति के विरोध में उन्होंने 'हिन्दी की विशुद्धता' का नारा दिया और हिन्दी को अरबी-फारसी के प्रभाव से मुक्त कराने का बीड़ा उठाया। उन्होंने अपने कृतित्व द्वारा प्रमाण के साथ यह सिद्ध भी किया कि 'बिना उर्दू के दलदल में फँसे भी हिन्दी बहुत सुन्दर गद्य लिखा जा सकता है।'
तत्कालीन हिन्दी गद्य के उन्नायकों मे राजा लक्ष्मण सिंह का नाम सर्वोच्च है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी स्वीकार किया कि 'राजा लक्ष्मण सिंह के समय में ही हिन्दी गद्य की भाषा ने अपने भावी रूप आभास दे दिया था।' बात स्पष्ट है, आगे चलकर हिन्दी गद्य को राजा लक्ष्मण से ही राह मिली।
- पारवारिक पृष्ठभूमि
आधुनिक हिंदी के अनूठे गद्य शिल्पी राजा लक्ष्मण सिंह का जन्म 9 अक्टूबर,1826 ई0 को आगरा में वजीरपुरा के प्रसिद्ध जादौन राजपूत जमींदार परिवार में ठाकुर रूपराम सिंह के यहां हुआ था। इनके पूर्वज बयाना के राजा बिजयपाल के वंशज रितपाल थे जो रिठाड़ गाँव में रहे। जिनके वंशज दुगनावत जादौन कहलाये जो आजकल आगरा के वजीरपुरा और धनी की नगलिया में रहते है।
जब मचेरी (अलवर) के राजा का भरतपुर के राजा के साथ युद्ध हुआ था तब मचेरी की सेना ने इनका पैतृक निवास स्थान करेमना को जला दिया गया। इनके पूर्वज कल्याण सिंह ने भरतपुर में आश्रय प्राप्त किया। इनके बड़े पुत्र को राजा भरतपुर के द्वारा रूपवास परगने का फोतेहदर नियुक्त किया गया।
लेकिन उनकी शीघ्र मृत्यु हो गई। कल्याण सिंह के छोटे पुत्र जो राजा लक्ष्मण सिंह के दादा जी थे ने सिंधिया की फ़ौज में नौकरी प्राप्त कर ली। अंग्रेजों के द्वारा अलीगढ के किले पर जब अधिकार कर लिया था उससे कुछ समय पूर्व उनकी मृत्यु अलीगढ में हो चुकी थी और उनके पुत्र आगरा में आ गये।
- राजा लक्ष्मण सिंह की शिक्षा
राजा लक्ष्मण सिंह के पिताजी ने इनकी शिक्षा पर उसी समय से ध्यान देना आरम्भ कर दिया था जब इन्होंने बोलना शुरू किया था परंतु पांच वर्ष की अवस्था होने पर इन्हें विधिवत विद्यारंभ कराया गया। जब इन्हें नागरी अक्षरी के लिखने का पूरा अभ्यास हो गया तो संस्कृत और फारसी की शिक्षा दी जाने लगी। वे तीव्र बुद्धि तो थे ही, 12 वर्ष की अवस्था तक इन्होंने फारसी और संस्कृत दोनो भाषाओं में अच्छी योग्यता प्राप्त करली थी।
इस प्रकार राजा साहिब की प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही सम्पन्न हुई थी। 12 वर्ष की अवस्था में यज्ञोपवीत हो जाने पर लक्ष्मण सिंह जी को सन 1838 में आगरा कालेज, आगरा में अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए प्रवेश दिलाया तत्कालीन समय में आजकल की तरह बी. ए. और एम. ए.आदि की परीक्षाएं नहीं होती थीं, केवल जूनियर, सीनियर परीक्षाएं होती थीं। परन्तु राजा साहिब ने आगरा कालेज से सीनियर परीक्षा पास की।
- विभिन्न भाषाओं के ज्ञाता
आगरा कालेज में अंग्रेजी के साथ इनकी दूसरी भाषा संस्कृत थी और घर पर आप हिन्दी, अरबी, और फारसी का अभ्यास किया करते थे। कालेज छोड़ने पर आपने बंगला भी सीख ली थी। इस प्रकार 24 वर्ष की अवस्था में आपने कई एक भाषाओं में अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली थी।
इस प्रकार राजा साहिब को संस्कृत, अँग्रेजी, प्राकृत, ब्रजभाषा, फ़ारसी, अरबी, उर्दू, गुजराती व बंगला आदि भाषाओँ का उन्हें अच्छा ज्ञान था। आगरा कालेज से अग्रेजी व संस्कृत की पढ़ाई पूरी करने के बाद राजा साहिब ने 1847 ई0 में सरकारी सेवा में प्रवेश किया।
- राजा साहब सर्वप्रथम 1850ई0 में पश्चिमोत्तर प्रदेश के लेफ्टिनेंट गवर्नर के दफ्तर में 100 रूपये मासिक वेतन पर अनुवादक के पद पर नियुक्त हुये । तीन वर्ष के बाद इनका वेतन 150रुपए हुआ और सदरबोर्ड के दफतर में नियत हुए।
- कुंवर लक्ष्मण सिंह योग्य तो थे ही,कर्मठ व् कार्य कुशल भी थे ।अतः थोड़े दिनों बाद सन् 1855 ई0 में राजा लक्ष्मण सिंह को इटावा का तहसीलदार बना दिया गया । इन दिनों इटावा के कल्टर ह्यूम साहिब थे ।अपनी प्रतिभा के बल पर वे निरंतर आगे बढते गये और ए. ओ. ह्युम साहिब लक्ष्मण सिंह के गुणों एवं प्रतिभा से प्रसन्न रहते थे । लक्ष्मण सिंह जी ने हयूम साहिब की सहायता से इटावा में ह्यूम हाई स्कूल स्थापित किया जो की काफी समय तक रहा जिससे प्रति वर्ष अच्छे योग्य छात्र निकलते थे ।
- राजा साहिब की कार्यप्रणाली से प्रभावित होकर हयूम साहिब ने तत्कालीन अंग्रेज सरकार को राजा साहिब की बड़ी तारीफ लिखी और सन् 18 56-57 के लगभग राजा साहिब की बांदा के डिप्टी कलेक्टर के पद पर बदली करदी।
- राजा साहिब ने सन 1859 ई0 में "प्रजा हितैसी "का प्रकाशन इटावा से किया गया।
- 1 जनवरी सन् 1870 ई0 को राजा साहिब को दिल्ली दरवार में गवर्नर जनरल वायसराय ने "राजा "का खिताव प्रदान किया।
राजा साहिब बांदा से छुट्टी लेकर अपने घर आगरा को जा रहे थे कि उसी समय सिपाहियो का बलवा हो गया। जब आप इटावा के पास पहुँचे तो सुना कि यहाँ पर भी बडा उपद्रव मचा हुआ है। बस ये फौरन ह्यूम साहिब के पास पहुँचे और उनके कहने के अनुसार बहुत से। अंग्रेज बच्चों और मेमो को सकुशल आगरा के किले मे पहुंचा दिया। घर पर पहुँच कर इन्होने कुछ अपने लोगो को लेकर ताजा साहिब ह्यूम साहिब की रक्षा को इटावा को जाने बाले ही थे कि तब ह्यूम खुद ही घर पर आ गए।
इन्होने उनको अपनी ही रक्षा मे रक्खा ।इस राजभक्ति के लिये इन्हें सरकार ने रुरका का इलाका माफी देना । चाहा परन्तु ।राजा साहिब ने नम्रता पूर्वक यह कह कर अस्वीकार कर दिया कि हमने जो कुछ किया जातीय-धर्म के अनुसार किया। इसमें पुरस्कार की क्या आवश्यकता ? तब राजा साहब को प्रथम श्रेणी की डिप्टी कल्टरी दी गई 800 रु० मासिक वेतन पर बुलंदशहर को इनकी बदली हुई।
यद्यपी डिप्टी कल्टरी के कामो से इन्हे अवकाश बहुत कम मिलता था तो भी हिन्दी की ओर इनका ऐसा प्रेम था कि जो समय बचता उसे ये उसी की सेवा मे लगाते थे । राजा साहिब नें सरकर की बहुत पुस्तको का अंगरेजी और फारसी से हिन्दी में उल्घा किया। जिनम से एक ताजीरात हिन्द का अनुवाद "दडसग्रह" है। इन्होंने बुलंदशहर का एक इतिहास भी लिखा था जो कि हिदी, उर्दू, अँगरेजी तीनो भाषाओ मे छपा है।
हिदी-जगत् में आपका नाम अमर करने वाले शकुंतला ,मेघदूत और रघुवंश इन तीनो पुस्तकों के भापानुवाद हैं। इन पुस्तको के अनुवाद में इन्होने जो अपने पाडित्य का चमत्कार दिखलाया है वह किसी साहित्य-प्रेमी से छिपा नही है। भारतवर्ष तथा यूरोप के विद्वानो ने भी आपका नाम आदर के साथ लिया और हिंदी का अच्छा कवि माना है।
इनकी लेखनी मे यह खूबी है कि पद्म की कौन कहे गद्य में भो उर्दू फ़ारसी का एक शब्द नही आने पाया है, फिर भी एक एक पद सरस, सुपाठ्य और सरलता से भरा हुआ है। बाद में राजा लक्ष्मण सिंह को उनके कार्यशैली और कुशल प्रशासनिक क्षमताओं को देख कर बुलन्दशहर का कलक्टर बनाया दिया गया ।तत्कालीन पार्लियामेंट ने इसका विरोध किया ।वे 20 वर्ष तक बुलंदशहर के कलक्टर रहे ।उन्होंने बुलहंदशहर का गजेटियर भी लिखा।
- अंग्रेज़ी हुकूमत में थे पर अंग्रेजियत के खिलाफ
राजा साहिब एक सफल प्रशासनिक अधिकारी तो थे ही ,इसके साथ ही वे हिंदी -संस्कृत साहित्य के महान् साधक भी थे ।उन्होंने कई महत्वपूर्ण ग्रंथों का प्रकाशन भी किया ।यही नही उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में भी उस ज़माने में बहुत सराहनीय कार्य किये।
इटावा में रहते हुये उन्होने हिंदी ,उर्दू ,और अंग्रेजी एक पत्र निकला जिसकी 30 हजार प्रतियां प्रकाशित होती थी ।हिंदी में इस पत्र का नाम "प्रजाहित "था ।प्रजाहित का सम्पादन राजा साहिब स्वयं करते थे ।ये पत्र सन् 1860 से 1864 ई0 तक लगातार 4 वर्ष प्रकाशित हुआ। सन 1861ई0 में उन्होंने कालिदास के नाटक "अभिज्ञान शाकुन्तलम् "का शकुन्तला नाम से हिंदी में अनुवाद अपने इटावा प्रवास काल में किया था ।इसके बाद राजा साहिब को बुलन्दशहर स्थानांतरित कर दिया और ये पत्र बंद हो गये।
राजा लक्ष्मण सिंह बुलंदशहर में 20 वर्ष तक कलक्टर के पद पर कार्यरत रहे ।उन्होंने वहां की जनता कीअंग्रेजी हुकूमत में भी खुल कर मदद की ।हर तरह की आपदा में लोगों की मदद करते थे ।उनके अंदर राष्ट्रवादी विचारधारा कूट कूट कर भरी हुई थी ।सन् 1878 ई0 में उन्होंने कालिदास के रघुवंश और मेघदूत का भी हिंदी में अनुवाद किया ।वे उर्दू साहित्य के भी ज्ञाता थे ।उर्दू में उनकी सर्वाधिक कृतियाँ है ।इनमे कैफियत -ए -जिला बुलहंदशर ,किताबखाना -शुमार -ए -मुगरबी ,वास्ते डिप्टी मजिस्ट्रेट ,कीप विट्स ,मजिस्ट्रेट गाइड के अलाबा और भी किताबें लिखी ।
- राजा साहिब पर्याप्त सम्मान से नवाजे गए
वे सन् 1887ई0 में कलकत्ता विश्व विद्यालय के फैलो, एशियार्तिक सोसाइटी के सदस्य और सन 1888 में आगरा नगरपालिका के उपाध्यक्ष बने और आजीवन इस पद पर बने रहे।अंग्रेजी हुकूमत की नौकरी करने के बावजूद भी वे अंग्रेजियत के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करते रहे ।
- हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में भी राजा साहिब की गूंज
अंग्रेजी हुकूमत तक इंडियन सिविल सर्विसि में भारतीयों को शामिल नही करती थी ।इस पर लन्दन के हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में बहस हुई ।अंग्रेज अफसरों ने भारतीयों को लेजी और कामचोर कह कर संबोधित किया ।तब इटावा के कलक्टर और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक अध्यक्ष ऐ ओ ह्यूम ने इस पर कडा विरोध जताया।
उन्होंने राजा लक्ष्मण सिंह का उदाहरण देते हुये कहा कि उनके जिले में अनुवादक एक युवक हमारी सोच से कहीं ज्यादा ऊर्जावान है ।ह्यूम ने कहा कि कुंवर लक्ष्मण सिंह में फिजिकल और मेन्टल इनर्जी भरी पडी है जो घोड़े की पीठ पर बैठ कर उनसे पहले आगरा पहुँच जाते है।
- हिन्दी भाषा के लिए राजा लक्ष्मण सिंह ने किया था संघर्ष
राजा लक्ष्मण सिंह ने सरकारी सेवा में संलग्न रहते हुए भी अपने हिन्दी- प्रेम और साहित्यानुराग को जीवित रखा। हिन्दी के प्रति उनकी अनन्य निष्ठा का ही परिणाम था कि राजा शिवप्रसाद 'सितारे हिन्द' की उर्दू समर्थकों के प्रति तुष्टीकरण की नीति से विक्षुब्ध होकर उन्होंने उनकी अरबी-फारसीमय हिन्दी की तीखी आलोचना की।
विशुद्ध हिन्दी के प्रति अपनी प्रतिबद्धता बड़ी निर्भीकता के साथ अपनी भाषा-नीति में व्यक्त की- 'हिन्दी और उर्दू बोली न्यारी-न्यारी हैं। हिन्दी देश के हिन्दू और उर्दू यहाँ के मुसलमानों और फारसी पढ़े हुए हिन्दुओं की बोलचाल है। हिन्दी में संस्कृत के शब्द बहुत आते हैं और उर्दू में अरबी-फारसी के।
किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि अरबी-फारसी शब्दों के बिना उर्दू न बोली जाए, और न हम उस भाषा को हिन्दी कहते हैं जिसमें अरबी-फारसी के शब्द भरे हों।' इस तरह राजा लक्ष्मण सिंह ने हिन्दी और उर्दू को दो अलग-अलग भाषाओं के रूप में स्वीकार किया, उनकी इस भाषा-नीति ने एक सुनियोजित षड्यन्त्र के तहत फैलाई गयी इन धारणाओं को भी खण्डित किया कि 'हिन्दी-उर्दू एक हैं' या 'उर्दू तो हिन्दी की ही एक शैली है।'
- हिन्दी को अरबी-फारसीमय बनाये बिना, उर्दू शब्दों को परे ढकेलकर तत्सम
शब्दावलीयुक्त हिन्दी का प्रयोग करके किस तरह विशुद्ध हिन्दी का स्वरूप गढ़ा जा सकता है, इस आदर्श को मन में लिये उन्होंने सन् 1861 में 'प्रजा हितैषी' नाम से एक पत्र निकाला और इसके बाद उन्होंने 'अभिज्ञानशाकुन्तल', 'मेघदूत' तथा 'रघुवंश' का हिन्दी में अनुवाद किया।
उनकी 'शकुन्तला नाटक' पुस्तक बहुत प्रशंसित हुई। इसमें असली हिन्दी का नमूना देखकर भाषा के सम्बन्ध में मानो फिर से लोगों की आँखें खुल गईं । अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'गुटका' संकलन में राजा शिवप्रसाद 'सितारे हिन्द' ने इस नाटक का बहुत बड़ा अंश सम्मिलित किया।
विख्यात हिन्दी-प्रेमी फ्रेडरिक पिनकॉट ने इसे इंग्लैंड में प्रकाशित करवाया। इण्डियन सिविल सर्विस की परीक्षा में भी पाठ्य-पुस्तक के रूप में इसका चयन हुआ।
- सरकारी कामकाज में हिंदी राजा लक्ष्मण सिंह की देन
हिंदी को राष्ट्र भाषा का दर्जा दिलवाने को संविधान सभा और बाद नें संसद में लड़ी लड़ाई तो सर्व विदित है किन्तु यह तथ्य अभी हाल ही में अनावरित हुआ है कि सरकारी कामकाज में हिंदी उपयोग का मार्ग प्रशस्त करने की आधिकारिक शुरुआत सन् 1860 ई0 में ही हो गयी थी और इसके लिए आगरा के वजीरपुरा ठिकाने के इन प्रख्यात साहित्यकार हिंदी सेवी राजा लक्ष्मण सिंह की भूमिका अहम् थी।
बांदा में डिप्टी कलेक्टर की हैसियत से ही सन् 1860 ई0 में राजा साहिब ने पटवारियों को हिंदी में खसरा -खतौनी आदि भूमि संबंधी रिकार्ड रखने के निर्देश दिया था ।यह हिंदी के प्रति उनकी आस्था का प्रतीक था।
- हिन्दी एवं संस्कृत निष्ठता के पुजारी
राजा लक्ष्मण सिंह ने उर्दू से पृथक् हिन्दी के अनूठेपन को सिद्ध करने के लिए जहाँ पूर्वाग्रह के कारण सर्वग्राह्य विदेशी शब्दों का बहिष्कार कर प्रयासपूर्वक उसे संस्कृतनिष्ठ जामा पहनाया वहाँ कई बार भाषा का स्वाभाविक प्रवाह अवरुद्ध हुआ है। इसलिए उनकी भाषा पर कृत्रिमता का आरोप भी लगाया गया।
लोगों को ऐसा लगा कि 'सितारे हिन्द' की भाषा-शैली के विरुद्ध रास्ता बनाने की उनकी जिद ने हिन्दी में स्वाभाविक विकास का रास्ता रोक दिया। कहा गया कि आश्चर्य की बात नहीं है राजा शिवप्रसाद के गलत मार्ग की प्रतिक्रिया के रूप में लक्ष्मण सिंह ने अरबी-फारसी तथा अन्य किसी विदेशी भाषा के सर्वसाधारण में प्रचलित शब्दों का बहिष्कार करने की ठान ली हो।
इन आरोपों के बावजूद यह स्वीकार किया गया कि 'जितना पुष्ट और व्यवस्थित गद्य उनकी रचना में मिला उतना पूर्व के किसी भी लेखक की रचना में नहीं उपलब्ध हुआ था। गद्य के इतिहास में इतनी स्वाभाविक विशुद्धता का उपयोग उस समय तक किसी ने नहीं किया था।' इस दृष्टि से हिन्दी के उन्नायकों में राजा लक्ष्मण सिंह हमेशा याद किये जाएँगे।
- राजा लक्ष्मण सिंह का निधन
राजा साहिब का 70 वर्ष की आयु में 14 जुलाई 1896 ई0को अपनी अंतिम कर्मभूमि बुलन्दशहर में गंगा जी के किनारे राजघाट पर उनका देहावसान हो गया था ।अपने महाप्रयाण के एक माह पूर्व राजा साहब गंगा मैया की शरण में गंगा तीर चले गये थे ।
- राजा लक्ष्मण सिंह की स्मृति में बुलंदशहर में गंगा किनारे बना है लक्ष्मण घाट
राजा लक्षमण सिंह की स्मृति में बुलहंदशहर जिले में गंगा किनारे एक घाट भी बनाया गया था जिसका नाम "लक्ष्मण घाट "रखा गया था जिसका वर्णन बुलंदशहर के इतिहास में दिया गया है।
- आज भी राजा साहब का परिवार आगरा में प्रतिष्ठित परिवार माना जाता है
राजा साहिब के पिता जी ठाकुर रूपराम सिंह जी की "पीली कोठी " आज भी आगरा में अपनी पुरातन पहिचान बनाये हुये है । आज भी आगरा का बच्चा -बच्चा पीली कोठी के नाम को जनता है ।उस ज़माने में ठाकुर साहिब की पीली कोठी पर बहुत से लोग उर्दू में अपनी चिठीयां पढ़वाने अक्सर उनके पास आते थे और लोगों को राजा साहब के पूज्य पिताजी का मार्गदर्शन प्राप्त होता था।
इस परिवार के लोग बेसहारा ,सताये हुये और गरीब लोगों की खुले दिल से सहायता करते थे ।इस कारण इस परिवार का लोग काफी सम्मान करते थे और आज भी करते है।
अंत में, मैं हिन्दी गद्य के इस महान शलाका व्यक्तित्व की स्म्रति में श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए तहे दिल से सत् सत् नमन करता हूँ और उस महान आत्मा के सम्मान में अपना उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर अपना आधारित यह लेख समर्पित करता हूं। जय हिन्द।
लेखक:- डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव:- लढ़ोता, सासनी
जिला:- हाथरस, उत्तरप्रदेश
प्राचार्य:- राजकीय स्नातकोत्तर कन्या महाविद्यालय सवाईमाधोपुर, राजस्थान
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