भिंगा रियासत एवं राजर्षि जीवन -: परिचय :-
भिंगा उत्तरप्रदेश के बहराइच जिले में विसेन राजपूतों की एक रियासत थी ।भिंगा का बिसेन परिवार गोंडा बिसेनों के एक छोटे भाईयों की ही साखा है। ये गोंडा के राजा रामसिंह के छोटे पुत्र भवानी सिंह के वंशज है ।भिंगा पर जनवार राजपूत शासक का शासन था उसकी मृत्यु के बाद उसके सम्बन्धियों को अधिकार नहीं दिया गया और भिंगा बिसेन शासित रियासत बन गयी।
जिसके शासक भवानी सिंह जी हुये जिनकी 6 वीं पीढ़ी में राजर्षि उदय प्रताप सिंह जी हुये ।इनके पिता राजा किशनदत्त सिंह थे राजर्षि का जन्म 3 सितम्बर 1850ई0 में हुआ था तथा ये 1869ई0 में भिंगा रियासत के राजा बने ।इनका विवाह मिर्जापुर जिले की अघोरीबरहर रियासत के चंदेल राजा रघुनाथ शाह देवा की छोटी पुत्री के साथ हुआ था ।इनके 18 दिसंम्बर 1878ई0 को एक पुत्र पैदा हुआ जिनका नाम कुंवर महेंद्र विक्रम सिंह था ।
राजर्षि एक विद्वान लेखक के रूप में
राजा उदयप्रताप सिंह ने लखनऊ के वार्डस इंस्टिट्यूशन से शिक्षा प्राप्त की थी ।वे एक सामाजिक एवं राजनैतिक विचारक थे और वे विविध सामाजिक ,अकादमिक और राजनैतिक विषयों पर अपने विचार तत्कालीन ब्रिटिश अखबार “Nineteenth Century” में व्यक्त करते रहते थे और उस में उनके अनेक लेख भी छपते रहते थे ।उन्होंने बहुत सी पुस्तकें और लेख भी लिखेथे।अंग्रेजी भाषा पर उनका अधिकार था ।
राजर्षि के लेखन
राजर्षि ने बहुत से लेख और बहुमूल्य पुस्तकें लिखी थी जिनमें से कुछ निम्न है।
तत्कालीन सरकार में सम्मानित पदों पर आसीन
राजर्षि ने तत्कालीन सरकार में बहुत सारे सम्माननीय पदों को भी सुशोभित किया । वे शिक्षा आयोग के सलाहकार रहे ।उनको 1886 में यूनियन पब्लिक सर्विस कमीशन का सदस्य बनाया गया ।उन्हें उनके कार्यों के परिणामस्वरूप इलाहबाद और कलकत्ता विश्व विद्यालय द्वारा मानद उपाधि से अलंकृत किया गया।
वे वायसरा लेजिटेटिवे कौंसिल के भी सदस्य थे ।लखनऊ म्युनिसिपल बोर्ड के सभापति थे ।भारत सरकार ने उन्हें 1887 में तोप प्रदान की थी ।राजर्षि को आर्म एक्ट से मुक्त करते हुऐ न्यायालयों में व्यक्तिगत उपस्थिति देने से भी छूट प्रदान की गयी थी ।राजर्षि अवध सूबे के सबसे बड़े रियासत के राजा थे तथा काफी प्रतिष्ठित एवं प्रभावशाली व्यक्ति थे।
क्षत्रिय उपकारिणी महासभा के निर्माता–
अँग्रेजी हुकूमत के समय देश गुलामी की जंजीर में जकड़ा हुआ था ।राजपूतों की भी आर्थिक , सामाजिक एवं शैक्षणिक स्थिति बहुत खराव थी । राजा साहिब उदयप्रताप सिंह जी ने क्षेत्र के राजपूतों के उत्थान के लिए “क्षत्रिय उपकारिणी महासभा का निर्माण किया और उसके खर्चे के लिए भिंगा राज 35000 रूपये प्रदान किये ।राजर्षि ने क्षत्रिय युवाओं की शिक्षा के लिए भिंगा राज क्षत्रिय स्कालरशिप एंव एडवार्डस्कॉलरशिप का भी निर्माण किया।
उन्होंने क्षत्रिय छात्रों को ऑक्सफ़ोर्ड और कैम्ब्रिज विश्व विद्यालय से ग्रेजुएट करने के लिए 11000 रूपये की सहायता प्रदान की जिससे समाज के छात्रों को विदेश से अच्छी शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिल सके । क्षत्रिय सभा द्वारा राजा उदयप्रताप सिंह जी जूदेव को “राजर्षि”टाइटल से नावजा गया जो 1895ई0 में तत्कालीन भारत सरकार द्वारा भी उनके संबोधन हेतु मान्यता प्रदान की गई ।
क्षत्रिय महासभा वनाम अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा के सहसंस्थापक
तत्कालीन अंग्रेज सरकार उस समय गरीब भारतीयों को धन के लालच से ईसाई बना रही थी । इसी समय कुछ क्षत्रिय, राजा- महाराजाओं और नवाबों के अत्याचारों से भी पीड़ित थे और वे परोक्ष रूप से अंग्रेजों से मिले भी रहे थे ,जिससे उनको सामाजिक उपेक्षा का शिकार तो होना ही पड़ा ,पर इससे कुछ बुद्धिजीवी क्षत्रिय जागीरदारों में क्षत्रियो को लामबन्द करके इस बलि बेदी पर एक सूत्र में बाँधने की आवश्यकता का अनुभव हुआ।
कालाकांकर प्रतापगढ़ के राजा हनुमंत सिंह के नेतृत्व में गंगा -जमुना क्रांति के प्रवाह में “राम दल “नाम के संघ ने गोपनीय तरीके से क्लब के रूपमें क्षत्रिय महासभा के सूत्रपात्र को जन्म दिया और क्षत्रियों ने “राम दल ” को विघटित कर उसके स्थान पर 1860 ई0 में “क्षत्रिय हितकारणी सभा का गठन किया पर यह राजाओं ,राजदरवारियों और उनके सहयोगियों का संगठन आम बन कर रह गया जिसका कार्य क्षेत्र उत्तरप्रदेश (प्रतापगढ़ ,गोरखपुर ,आजमगढ़ ,बलिया ,
रायबरेली ,उन्नाव ,आगरा ,मथुरा ,हरदोई ,मैनपुरी ,गोंडा ),मध्यप्रदेश ,राजस्थान ,गुजरात ,बंगाल ,जम्बू कश्मीर ,पंजाब (वर्तमान हरियाणा )तक ही सीमित था जिसके सरपरस्त अंग्रेजों के शुभचिंतक थे इस कारण इससे क्रांति कारियों के परिवारों ने प्रायः दूरी बना कर रखी गई ।कालाकांकर जन्मी क्षत्रिय हितकारणी सभा ने कालान्तर में आगरा और अवध के नाम को परिवर्तित कर संयुक्त प्रान्त आगरा और अवध के नाम से पंजीकृत किया ।
अवागढ़ ,एटा के राजा बलवंत सिंह के नेतृत्व में तत्काल समिति के प्रतिनिधि ठाकुर उमराव सिंह कोटला , राजर्षि राजा उदयप्रताप सिंह बिसेन ,भिंगा ,राजा खडग बहादुर सिंह ,मझोली ,बिहार ,श्री रामदीन सिंह ,तथा राजा मल्ल एवं अन्य क्षत्रियों ने “क्षत्रिय हितकारणी सभा “को बदल कर इसका पुनः नामकरण “क्षत्रिय महासभा “रखा गया ।
इसी समय में संयुक्त प्रान्त आगरा और अवध के प्रदेश 19 अक्टूबर 1897 ई0 में भारतीय सोसाइटी अधिनियम के तहत राजधानी लखनऊ (लक्ष्मणपुर )अवध में सभा का पंजीकरण हुआ ।राजा बलवंत सिंह ,अवागढ़ ,एटा को संयुक्त प्रान्त आगरा एवं अवध को जनक (Founder )के रूप में अध्यक्ष निर्वाचित कर इसका पंजीकरण पंजीकृत कार्यालय 224 महात्मा गांधी मार्ग ,लखनऊ कैंट ,उत्तरप्रदेश तथा प्रधान कार्यालय मथुरा ,संयुक्त प्रान्त आगरा एवं अवध में रखा गया ।
बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह के मिलन से राजर्षि में उत्पन्न हुई थी क्षत्रियों के उत्थान की बृहद चेतना
राजर्षि को क्षत्रियों के सामाजिक एवं शैक्षणिक उत्थान के लिए प्रोत्साहित करने में वनारस के बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह के योगदान को भी नजरन्दाज नही किया जा सकता है। उन्ही के निरंतर आग्रह और प्रयास से भिंगा नरेश मार्च 1913 के क्षत्रिय महासभा के 7 वें अधिवेशन में अजमेर पधारे ।ये अधिवेशन बीकानेर नरेश महाराजा बहादुर सर गंगा सिंह जी के सभापतित्व में अजमेर में हुआ था ।
राजर्षि अजमेर में महासभा के शिक्षा सम्बन्धी उद्देश्यों तथा बाबू साहिब के शिक्षा सम्बन्धी योजनाओं से अत्यधिक प्रभावित हुये तथा उन्होंने हर सम्भव सहयोग का आस्वासन दिया ।तभी राजर्षि ने अपने व्यय से काशी में महासभा का अधिवेशन कराने का निश्चय भी किया।दिसम्बर 1905 में क्षत्रिय महासभा का 9वां अधिवेशन काशी में कौशल किशोर मल्ल ,मझौली नरेश के सभापतित्व तथा बाबू प्रसिद्ध नारायण के कुशल प्रबंधन से बड़ी शान से सम्पन्न हुआ।
इसी अधिवेसन से राजर्षि और बाबू साहब की निकटता घनिष्ठता में बदली और भिंगा नरेश राजर्षि उनको समाज सेवा के क्षेत्र में अपना सलाहकार मानने लगे । पंडित मदन मोहन मालवीय जी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए सभी राजपरिवारों से सहयोग राशि की याचना कर रहे थे तो उनकी निगाह भिंगा नरेश राजर्षि के संसाधनों पर भी थी।इसी निमित्त मालवीय जी ने एक बैठक कमच्छा में आयोजित की जिसमें काशी के गणमान्य नागरिक ,बुद्धिजीवी और शिक्षाविदों आमंत्रित किया ।इस बैठक में राजर्षि उदयप्रताप जी को भी विशिष्ट अथिति के रूप में आमंत्रित किया गया था।
जब बाबू प्रसिद्ध नारायण जी को इस योजना की जानकारी हुई तो उन्होंने योजनावद्ध तरीके से राजर्षि को बैठक में जाने से रोका और उनका प्रतिनिधित्व स्वयं किया ।बैठक के दौरान मालवीय जी ने प्रसिद्धनारायण जी को संम्बोधित करते हुए कहा “बाबू साहब आप राजा साहब *राजर्षि”को समझाओ कि जब वनारस में काशी विश्वविद्यालय खुल ही रहा हैतो अलग से राजपूत कॉलेज खोलने का कोई औचित्य नहीं है।
वे उसी में अपना महान योगदान दें।जवाव में मालवीय जी से राजर्षि पर दबाव न डालने का आग्रह करते हुए बाबू साहब ने कहा ,”पंडित जी आप का उद्देश्य गंगा को स्वच्छ करना है ,मैं नाले को स्वच्छ करना चाहता हूँ ।यदि मैं अपने उद्देश्य में असफल रहा तो आप की गंगा भी स्वच्छ नहीं हो पाएगी और बैठक से विदा हो लिए ।दूसरे दिन ठा0 काली प्रसाद सिंह जी ने इस घटना से राजर्षि को अवगत कराया ।राजर्षि ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा कि “प्रसिद्धि बाबू ने अच्छा किया वरना मालवीय अन्त तक घेरते “।
राजर्षि को पुत्र के देहान्त से हुई थी घोर निराशा
राजर्षि के पुत्र महेंद्र विक्रम सिंह जी का चेचक से निधन होगया ।पहले से ही वैराग्य मय जीवन व्यतीत कर रहे राजर्षि महा निराशा में डूब गये ।जब यह सूचना और राजर्षि की स्थिति की जानकारी बाबू प्रसिद्धिनारायन सिंह को हुई तो उन्होंने बाबू चन्द्रिका प्रसाद सिंह जी (शिवपुर दीयर ,बलिया )और ठा0 काली प्रसाद सिंह के साथ शोक संवेदना व्यक्त करने पहुचे ।
बाबु साहिब ने ही पहल करते हुऐ कहा –“महाराज पुत्र -वियोग जैसा दुःख इस धरा पर दूसरा कोई नहीं ।कितना ही बड़ा सार्थक प्रयास क्यों न हो उस स्थान की पूर्ति सम्भव नहीं ।फिर भी ज्यादा शोकाकुल होना आप जैसे महापुरुष की गरिमा के अनुकूल नहीं ।आप तो वह कार्य करने में सक्षम हैं जिससे एक क्या हजारों पुत्र पैदा हो सकते है ,जो देश और जाति की सेवा कर सदियों तक आपके नाम को अमर कर सकते है ।
“राजर्षि में जैसे चेतना लौट आयी ,उनमें सोया हुआ महापुरुष जाग उठा ,उन्होंने महारानी साहिबा को बुला कर बाबू प्रसिद्ध नारायण के शब्दों को अक्षरशः दोहराया,”अब में बही कार्य करूँगा जिससे मेरे एक नहीं हजारों पुत्र पैदा हों ,जो देश और क्षत्रिय जाति की सेवा करें ।”
हैवत क्षत्रिय हाई स्कूल की स्थापना
सन 1908 में राजर्षि ने साढे दस लाख रूपये का अमर दान देकर काशी में एक विद्यालय खोलने का संकल्प लिया ।स्थान के चयन और विद्यालय के स्थापना की जिम्मेदारी बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह ने सम्हाली ।राजर्षि की इच्छा थी कि विद्यालय शहर से दूर हो ।
तदनुसार वरूणा पार काशी के पश्चिमोत्तर सीमा पर कुर्ग स्टेट (कर्नाटक)की 50 एकड़ के भू -खण्ड का चुनाव कियागया ।इसके लिए राजर्षि ने संयुक्तप्रान्त के गवर्नर सर जान हिवेट को पत्र लिखा ।बाबू साहिब ने भी जान हिवेट से अपनी मित्रता का उपयोग कियाऔर उस भू -खण्ड को सांकेतिक मूल्य पर “क्षत्रिया खैरात सोसाइटी “के पक्ष में अधिग्रहीत कराया।
बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह की देख -रेख में 25 नवम्बर 1909 को तत्कालीन गवर्नर सर जान हिवेट ने विद्यालय का शिलान्यास किया ।बाबू साहिब ने नींव पूजन का संकल्प लिया ।सात नदियों के जल से भूमि का शोधन किया गया ।गर्वरनर के नाम पर विद्यालय का नाम “हिवेट क्षत्रिय हाई स्कूल “पड़ा ।बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह जी को प्रबंध सिमित का अध्यक्ष बनाया गया ।
अन्य सामाजिक संस्थाओं की स्थापना एवं वित्तीय सहयोग
राजर्षि ने हिवेट हाई स्कूल की स्थापना के अलावा कुछ अन्य संस्थाओं की भी स्थापना उन्होंने की और उन्हें वित्तीय सहायता भी प्रदान की ।उन्होंने एक अनाथाश्रम ,भिंगाराज अनाथालय कामाक्षा वनारस में स्थापित कियाऔर 1लाख 23 हजार रूपये प्रदान कर स्थायी कोष बनाया जिससे उसमें होने वाले लगातार खर्चों को किया जा सके ।राजर्षि ने लाखों रूपये विभिन्न सामाजिक संगठनों को प्रदान किये जिनमें के0 जी 0 मेडिकल कॉलेज लखनऊ ,
मुलधानकुटीविहार सारनाथ ,कैल्विन ताल्लुकेदार कॉलेज लखनऊ ,हिंदी प्रचारिणी सभा आदि ।उन्होंने व्याज के रूप में होने वाली आय से विद्यार्थियों को स्थाई स्कॉलरशिप प्रदान करने की भी व्यवस्था की ।राजर्षि के विचारों का साम्य सर सैयद अहमद खान और महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी से रहा इस लिए उनका मुख्य बिंदु शैक्षणिक व्यवस्था पर रहा जिसके विकसित होने से ही देश व् समाज का विकास संभव है ।
राजर्षि का निधन एवं उदय प्रताप कॉलेज का नामकरण
महान सामाजिक उत्थान एवं शैक्षणिक विकास के ये अमर पुरोधा 15 जुलाई 1913 ई0 को दुनिया को अलविदा करके चल वसे ।राजर्षि के दिवंगत होने के बाद जब 1921 में इंटरमीडिएट और हाई स्कूल एक्ट बना और इस हिवेट विद्यालय में भी इण्टर की कक्षाएँ खुली तब बाबू प्रसिद्ध नारायण सिंह जी के ही प्रस्ताव और सद्प्रयास से हिवेट क्षत्रिया हाई स्कूल के साथ राजर्षि का नाम जोड़ा गया।
इस प्रकार वर्तमान उदय प्रताप स्वायत्तशासी महाविद्यालय राजर्षि राजा उदय प्रताप सिंह जूदेव के तन मन धन से फल फूल रहा है और आज देश की प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थाओं में विख्यात है । उन्नीस वीं सदी के अंतिम दशकों में क्षत्रियों के शैक्षणिक विकास एवं सामाजिक उत्थान के इस अमर पुरोधा की प्रेरणादायी स्मृति को स्मरण करते हुऐ अपने इस लेख को उनकी स्मृति में श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुऐ समर्पित करता हूँ ।जय हिन्द ।जय राजपुताना।
लेखक – प्रोफेसर डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव-लढोता ,सासनी
जिला-हाथरस ,उत्तरप्रदेश
प्राचार्य राजकीय कन्या महाविद्यालय सवाईमाधोपुर , राजस्थान