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Reading: जानिए: राजा बलवन्त सिंह जीवनी – Raja Balwant Singh Biography in Hindi
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Home – वायरल न्यूज़ – जानिए: राजा बलवन्त सिंह जीवनी – Raja Balwant Singh Biography in Hindi

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जानिए: राजा बलवन्त सिंह जीवनी – Raja Balwant Singh Biography in Hindi

INA NEWS
Last updated: 2023/09/27 at 12:16 AM
INA NEWS
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29 Min Read
Balwant Singh Biography in Hindi
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Balwant Singh Biography Hindi के इस आर्टिकल में जानेगे राजा बलवन्त सिंह जीवनी में शिक्षा के प्रकाश पुंज बन कर आये अवागढ़ के राजा बलवंत सिंह के जीवन से जुडी महत्वपूर्ण जानकारियाँ।

ब्रज क्षेत्र ने जहाँ सूरदास ,अमीर खुसरो , राजा लक्ष्मण सिंह जैसे अनेक कवि , विद्वानों को जन्म दिया है, वहीं शिक्षा के लिए दान देने वाले महामानव राजा बलवन्त सिंह को जन्म देने का गौरव भी इसी ब्रजभूमि को प्राप्त है।

शिक्षा के क्षेत्र में राजा साहब बलवन्त सिंह के क्रान्तिकारी विचार से ही आगरा के राजा बलवन्त सिंह महाविद्यालय की स्थापना हुई।

निरक्षरता से निकली शिक्षा की एक अलौकिक अमर ज्योति

उर्दू के एक शायर ने बिलकुल ठीक ही कहा है…..

“हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है, बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा“

स्वर्गीय राजा बलवन्त सिंह यथार्थ में एक दैव पुरुष थे जिनके व्यकित्व में दैनिक गुणों का पूर्ण रूप से प्रतिनिधित्व था। उन जैसे व्यक्ति यदा कदा ही अवतरित होते है ।

श्रेष्ठ पुरुषों में जितने भी शुभ गुण दृषिटगत हो सकते है वे सब राजा साहब में प्रतिष्ठित थे। समाज एवं शिक्षा के क्षेत्र में आप की सेवाएं सर्व विदित है।

राजा बलवन्त का जन्म

राजा बलवन्त का जन्म 21 सितम्बर सन् 1853 को एटा जनपद के अवागढ़ क्षेत्र के बरई गांव के जमींदार ठाकुर उमराव सिंह के यहां हुआ था। ठाकुर उमराव सिंह के तीन पुत्र बलदेव सिंह, बलवन्त सिंह तथा भोजराज सिंह थे।बलवन्त सिंह इनमें मझले पुत्र थे।

विवाह

बलवन्त सिंह का प्रथम विवाह एटा जनपद के गांव दलशाहपुर के जमींदार ठाकुर दुर्गपाल सिंह की बहिन के साथ हुआ था जिनका शीघ्र निधन हो गया था। `

द्वितीय विवाह अलीगढ़ जनपद के चौहान राजपूत ठिकाना छलेशर की कलावती देवी के साथ हुआ जिनसे सूरजपाल सिंह एवं राव कृष्णपाल सिंह दो पुत्र पैदा हुए।बलवन्त सिंह अपने बड़े भाई राजा बलदेव सिंह के साथ रियासत के सभी काम-काजों को देखते थे।

awagarh riyasat
अवागढ़

राजा के पद पर विराजमान हुए।

तत्कालीन अवागढ़ राजा बलदेव सिंह के 8 मार्च 1892 को निधन हो जाने के बाद उनके अनुज बलवन्त सिंह 16 नवम्बर सन् 1892 ई. में अवागढ़ रियासत के राजा के पद पर विराजमान हुए। उस समय उनकी उम्र 39 वर्ष की थी। वे शारीरिक रूप से बहुत ही बलवान और तेज बुद्धि वाले तथा पुरुषार्थी अधिक थे।

अवागढ़ रियासत का शासन सम्भालने के तुरन्त बाद राजा बलवन्त सिंह ने रियासत की आय बढ़ाने की ओर ध्यान दिया और अपनी लगन, राज्य-व्यवस्था और परिश्रम से रियासत की आय सात लाख से बढ़ाकर तेरह लाख तक पहुँचा दी। उस समय ब्रिटिश शासन होने के बावजूद आपने अपने मान- सम्मान को बनाए रखा।

दंगल का आयोजन ।

राजा साहब को बचपन से ही व्यायाम तथा शारीरिक परिश्रम की ओर अधिक रुचि रही। राज्य व्यवस्था के साथ-साथ इस ओर भी वे ध्यान देते थे। अवागढ़ में अखाड़े बनवाकर उन्होंने दंगल करवाना प्रारम्भ किया।

जिसमें स्थानीय तथा बाहर के पहलवान भाग लेते थे। कई अच्छे पहलवानों को उनके यहाँ संरक्षण प्राप्त था। यही कारण था कि वे स्वयं भी बलशाली थे।

मुट्ठी भर गेहूँ ।

एक बार मथुरा में आयोजित स्व० राजा साहब की जन्म जयन्ती के अवसर पर उनके छोटे पुत्र राव कृष्णपाल सिंह ने उनके बलशाली होने के सम्बन्ध में दो संस्मरण सुनाते हुए बताया कि एक बार पंजाब का एक व्यापारी रियासत में गेहूँ खरीदने आया।

राजा साहब को कृषि में भी बहुत रुचि थी और अपनी देखरेख में अपने कृषि फार्म पर गेहूँ की फसल करवाते थे। राजा साहब ने व्यापारी को बुलाकर उसे स्वयं गेहूँ दिखाये ।

व्यापारी ने एक मुट्ठी भर गेहूँ हाथ में लेकर मसल दिए और उन्हें आटे की तरह पीस दिया। वह मुस्कराते हुए बोला, “राजा साहब, मैं तो आपके गेहुँओं की तारीफ सुनकर पंजाब छोड़कर यहाँ गेहूँ खरीदने आया था, पर मुझे तो ये घुने हुए गेहूँ देखकर निराशा हुई।

राजा साहब इस अपमान को सहन न कर सके और उस व्यापारी से बोले, बरखुरदार, वह रुपये तो दिखाओ जिन्हें लेकर तुम गेहूँ खरीदने आए हो।

उस समय चाँदी के रुपये चलते थे। व्यापारी ने अपनी कमर में से वासनी खोलकर एक रुपया खोलकर राजा साहब के हाथ पर रख दिया।

राजा साहब ने रुपये को इधर-उधर पलट कर देखा और अंगुलियों और अंगूठे के बीच में रखकर इतनी जोर से दबाया कि रुपया बीच में से मुड़कर ऐसा हो गया जैसी मामूली सी पतानी टीन के टुकड़े को मोड़ दिया हो। राजा साहब ने वह मुड़ा हुआ रुपया व्यापारी की ओर फेंक कर कहा,

“जैसे रुपये वैसे गेहूँ ।”

इसी प्रकार की एक घटना और सुनाते हुए राव साहब ने बताया कि राजा साहब को घोड़े पालने का भी बहुत शौक था। उनके अस्तबल में एक से एक बढ़िया नस्ल के घोड़े थे।

एक बार एक व्यापारी अरबी नस्ल के घोड़े लेकर राजा साहब के पास आया। राजा साहब ने घोडा पसन्द करते हुए उसकी कीमत पूछी। व्यापारी बोला,

“महाराज यह घोड़ा बहुत बदमास है,

आप इसे मत लीजिये। यह अच्छे-अच्छे सवारों को हाथ नहीं रखने देता है ।” राजा साहब ने घोड़े की लगाम पकड़ी, घोड़ा पीछे की दोनों टांगों पर खड़ा हो गया।

राजा साहब ने उसकी लगाम खींची और उछल कर उसकी पीठ पर सवार हो एक दचका लगाया, घोड़े की कमर टूट गई। इस प्रकार राजा साहब के बलशाली व्यक्तित्व को देखकर दोनों ही व्यापारी आश्चर्यचकित रह गये। इससे राजा साहब के बलशाली होने का पता चलता है।

शिक्षा-प्रेमी

भारत में अंग्रेजी शासन के स्थापित होने के पूर्व शिक्षा के क्षेत्र में भारत विश्व के देशों में अग्रणी था। उस समय यूरोप के किसी भी देश में शिक्षा का प्रचार इतना अधिक नहीं था, जितना भारतवर्ष में।

प्राचीन भारत के ग्रामवासियों की शिक्षा के सम्बन्ध में सन् 1823 की ईस्ट इंडिया कम्पनी की एक सरकारी रिपोर्ट में लिखा है, शिक्षा की दृष्टि से संसार के किसी भी अन्य देश में किसानों की अवस्था इतनी ऊंची नहीं है जितनी भारत के अनेक भागों में।

उस समय देश के छोटे से छोटे ग्राम में ग्राम के समस्त बालकों की शिक्षा के लिए कम से कम एक पाठशाला होती थी। जिस समय तक कि ईस्ट इंडिया कम्पनी ने आकर भारत की सहस्रों वर्ष पुरानी ग्राम पंचायतों को नष्ट कर डाला।

उस समय तक ग्राम के समस्त बच्चों की शिक्षा का प्रबन्ध करना ग्राम पंचायत अपना आवश्यक कर्तव्य समझती थी और सदैव उसका पालन करती थी। परन्तु अंग्रेजी सरकार ने यहाँ आते ही ग्राम पंचायतें समाप्त कर दी। इस प्रकार उनके द्वारा शिक्षा के लिए किये जाने वाले सभी कार्य बन्द हो गये।

प्रसिद्ध इतिहास लेखक लडलो ने अपने “ब्रिटिश भारत के इतिहास” में लिखा है कि प्रत्येक ऐसे हिंदू गाँव में, जिसका कि पुराना संगठन अभी तक कायम है, मुझे विश्वास है कि आम तौर पर सब बच्चे लिखना-पढ़ना और हिसाब करना जानते हैं, किन्तु जहाँ कहीं हमने ग्राम पंचायत का नाश कर दिया है, वहाँ ग्राम पंचायत के साथ-साथ गाँव की पाठशाला भी लोप हो गई है।

यही कारण था कि शिक्षा का उचित प्रबन्ध न होने के कारण राजा बलवन्त सिंह अशिक्षित ही रहे। अक्षर ज्ञान न होने के कारण राजा साहब को बड़ी असुविधा होती थी।

सरकारी पत्रों के उत्तर देने यहाँ तक कि देश-विदेश की गतिविधियों के विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिए उन्हें अन्य शिक्षित व्यक्तियों का सहारा लेना पड़ता था।

बड़ी मुश्किल से उन्होंने हिन्दी में केवल हस्ताक्षर करना ही सीख पाया।स्वावलम्बी एवं प्रत्येक कार्य को स्वयं करने की इच्छा शक्ति के कारण उनके मन में शिक्षा का अभाव खटकता हमेशा रहता था।

अतः राजा साहब ने ग्रामीण अंचल के राजपूत बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा व्यवस्था करने का संकल्प किया जिसके लिए एक शिक्षा संस्था का प्रारूप तैयार करने का चिन्तन करना शुरू कर दिया।

उन्ही दिनों सन 1885 में कोटला (आगरा) के ठाकुर नौनिहाल सिंह और उनके बड़े भाई ठा0 उमराव सिंह के आगरा नगर के बाग फरजाना में स्थित निजी कोठी के बाहरी भाग में एक छात्रावास की स्थापना कर डाली।

इस छात्रावास में प्रारम्भ में 20 राजपूत छात्रों की आवास , भोजन एवं शिक्षा की व्यवस्था की गई। देखरेख तथा शिक्षा प्रदान करने के लिए एक प्रबन्धक एवं एक शिक्षक की नियुक्ति भी कर दी गई।

इस संस्था को सुचारू रूप से चलाने हेतु कुछ स्वजातीय जमींदार जिनमें प्रमुख रूप से राजा बलदेव सिंह अवागढ़ , राजा लक्ष्मण सिंह बजीरपुरा (आगरा ), ठाकुर लेखराज सिंह गभाना (अलीगढ़ ) तथा ठाकुर कल्याण सिंह जलालपुर (अलीगढ़ )सहयोगी के रूप में आ खडे हुये और तन ,मन तथा धन से इस संस्था को आगे बढ़ाने में जुट गए।

राजा बलदेव सिंह अवागढ़ उस समय इस छात्रावास के लिए 100 रुपये मासिक दिया करते थे।

अपने बड़े भाई राजा बलदेव सिंह के समय में ही उन्होंने राजा बलदेव सिंह की अनुमति पर सन 1885 में ग्रामीण अंचल के राजपूत बच्चों की शिक्षा के लिए आगरा में राजपूत बोर्डिग हाउस छात्रावास प्रारम्भ किया।

Raja Balwant Singh College

जिसके लिए 13 हजार रुपये में एक इमारत खरीदी गई जो आजकल राजा बलवन्त सिंह महाविद्यालय की पुरानी बिल्डिंग है।

इसके बाद संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध के लेफ्टीनेंट गवर्नर सर ऑकलैंड कॉल्विन के द्वारा राजपूत छात्रावास का विधिवत शुभारम्भ किया गया ।जिसका सन 1887 में रानी विक्टोरिया की रजत जयंती होने की वहज से उसका ” जुबिली राजपूत बोर्डिंग हाउस “नाम दिया गया।

सन 1897 के भीषण अकाल में क्षेत्रीय जनता की अभूतपूर्व मदद।

सन 1898 में देश में भीषण अकाल पड़ा था जिससे लोगों के जीवन को तहस -नहस कर दिया।आम जनता भूख से मरने लगी थी तथा मवेशियों का तो हाल ही सोचनीय था। अंग्रेजी हुकूमत का कहर भी जनता को सहना पड़ रहा था ।

इस बुरे दौर में राजा बलवन्त सिंह ने अपने खजाने तथा अनाज भंडारों को खोल कर क्षेत्रीय जनता की भरपूर मदद की थी। जिसकी अंग्रेज सरकार ने भी प्रशंसा की और राजा साहिब को सी 0आई0 ई0 की उपाधि से सम्मानित किया गया।

राजा बलवंत सिंह अधिक पढे लिखे नही थे ।इस पीड़ा से उनके ह्रदय में राजपूतों के शैक्षणिक विकासकी भावना का दर्द जाग्रत हुआ और इसके लिए उन्होंने साक्षरता के प्रसार की ओर दूरगामी दृष्टि डाली ।

कुछ समय बाद राजा बलवन्त सिंह ,श्रद्धेय पंडित मदन मोहन मालवीय , कालाकांकर (प्रतापगढ़ ) के राजा रामपाल सिंह और कोटला के ठाकुर उमराव सिंह के प्रयत्नों से यह जुबली राजपूत बोर्डिंग हाउस छात्रावास ने एक वास्तविक विद्यालय का रूप तो सन 1898 में धारण कर लिया था ,लेकिन इसकी औपचारिक शुरुआत 28 अगस्त सन 1899 में राजपूत हाई स्कूल के रूप में आगरा डिवीजन के कमिश्नर इम्पे द्वारा की गई।

इस स्कूल का खर्च अवागढ़ कोटला , कालाकांकर , गभाना ,जलालपुर ,खरवा (राजस्थान ) बजीरपुरा रियासती तथा कुछ स्वजातीय हितैसी महानुभावों के मासिक एवं अनियमित चन्दों से चलता था।

विद्यालय को इलाहाबाद विश्व विद्यालय द्वारा मान्यता प्राप्त हो गयी तथा पहले हेडमास्टर चौ0 धनराज सिंह की नियुक्ति भी इसी वर्ष हुई।सन 1901 में प्रथम बैच के रूप में मैट्रिक परीक्षा राजपूत छात्रों ने इलाहाबाद विश्व विद्यालय से सम्बंधित इस स्कूल से पास की।

1906 में राजा बलवन्त सिंह ने अपनी रियासत से 1 लाख रुपये स्कूल की इमारत बनवाने हेतु दान दिए जो 1913 के मध्य तक बनकर तैयार हुई। सन 1908 में यह राजपूत स्कूल राजा बलवंत सिंह के अधीन रहा।

अपने निधन से पूर्व राजा साहिब ने सन 1909 में एक वसीयत की जिसके अनुसार 9 लाख 30 हजार रुपये तथा खंदारी गांव के निकट 49 एकड़ का एक फार्म इस संस्था के लिये प्रदान किये।

अभी यह संस्था केवल 15 वर्ष की अवधि ही प्राप्त कर सकी थी कि 21 जून 1909 में राजा बलवन्त सिंह इस संस्था को शैशव काल में छोड़ कर स्वर्गवासी हो गए । इस प्रकार इसके शैशवकाल में ही इसका “राजा बलवन्त सिंह युग ” समाप्त हो गया।

राजा बलवंत सिंह के इस दान ने शिक्षा के क्षेत्र में एक क्रान्ति उत्पन्न कर दी। शिक्षा के लिये दिया जाने वाला दान सबसे बडा धर्म माना गया है। कौटिल्य ने तो दान को ही धर्म बताया है।

हालांकि उस समय के राजा महाराजाओं के लिये इतना दान देना कोई बड़ी बात नहीं थी, परन्तु समय और आवश्यकता के अवसर पर जो दान दिया जाय उसका अधिक महत्व होता है ।

एक विद्वान ने लिखा है कि बहुत अधिक देने से उदारता सिद्ध नहीं होती, आवश्यकता के समय सहायता देना ही उदारता है ।

राजा बलवन्त सिंह के इस परोपकारी कार्य को आगे बढाने में कोटला परिवार के राजा कुशलपाल सिंह ,ठाकुर ध्यानपाल सिंह ने तन , मन ,धन से सन 1923 तक निष्ठा से पूर्ण किया।

एमर्सन ने लिखा

अमेरिका के प्रसिद्ध विद्वान एमर्सन ने लिखा है कि- कोई भी महान संस्था केवल एक व्यक्ति की विस्तारित छाया मात्र होती है।

“An Institution is the lengthened shadow of one man.”

राजा बलवन्त सिंह ऐसी सेवाभावी विभूतियों में से थे जिन पर सम्पूर्ण देश को गर्व है। आपकी परिष्कृत रुचि, सांस्कृतिनिष्ठा, देश भक्ति और शासन नीति निपुणता एवं विद्या प्रेम सचमुच अनुकरणीय है। राजा बलवंत सिंह राजपूत कालेज के रूप में माँ भारती के समान आपकी जो मंगलमयी भावना मूर्तिमय खड़ी है।

वह हमारे सारे देश में विभिन्न विषयों के अध्ययन के द्वारा यहाँ सबके लिये एक रीढ़ के रूप में परिणत हो गया है। उनके द्वारा लगाया गया यह पौधा अब एक विशाल कल्प वृक्ष होकर मनोवांछित फल दे रहा है।

विस्टन चर्चिल ने लार्ड कर्जन का चरित्र-चित्रण करते हुये एक बार कहा था कि…

“Every thing interested him, and the adorned nearly all he touched.“

अर्थात् उन्हें हर चीज में दिलायी थी और जिस चीज को उन्होंने छूआ उसे अलंकृत कर दिया। “यह कथन राजा साहब के सम्बन्ध में भी पूर्णत: चरितार्थ होता है।

राजा साहब इस शिक्षण संस्थान के प्रतिष्ठाता ही नहीं, उसकी आत्मा है और उन्होंने मन-प्राण से इसका पोषण एवं संवर्धन किया है। अब यह शिक्षण संस्थान अपने 100 वर्ष पूर्ण करते हुए तीव्र गति से आगे बढ़ रही है। राजा साहब का इस शिक्षण संस्थान से कितना घनिष्ठ सम्बन्ध था यह किसी से छिपा नहीं है।

शिक्षा के क्षेत्र में एवं अशिक्षित होते हुये भी जो सेवा उन्होंने की है भारतीय शिक्षा के इतिहास में उसका अंकन प्रमुख रूप से जरूर होगा , इसमें सन्देह नहीं है।

राजा साहब के स्वर्गवास हो जाने के बाद इस नवजात संस्था के पोषण और विकास का जो कार्य उन्होंने अपने हाथ में लिया था वह अधूरा ही छूट गया।

आप के दोनों पुत्र सूरजपाल सिंह और राव कृष्णपाल सिंह अभी अल्पवयस्क थे।

इसी कारण इस संस्था के संचालन का कार्य कोटला परिवार के हाथ में चला गया और इस प्रकार इसके दूसरे अर्थात ” कोटला युग “का आरम्भ हुआ।

इस काल की पहली समस्या सितम्बर सन् 1914 में आई जब कि विद्यार्थियों और भावुक हैडमास्टर फौरसाइथ में आपस में कुछ गलत फहमी पैदा हो गई और हैडमास्टर ने आत्महत्या कर ली।

तत्कालीन Director of Public Instruction डेला फौज ने स्कूल की मान्यता वापिस लेकर संस्था को बन्द कर दिया।प्रबन्धकर्ताओं ने पुनः प्रयत्न करके संस्था का कार्य आरम्भ किया और सन 1915 में स्कूल ट्रस्ट बनाया गया।

संस्था की यह किशोरावस्था एक प्रकार को रुग्णावस्था ही थी क्योंकि सन् 1914 से जुलाई 1923 के नौ वर्ष के अल्प काल में 6 हैडमास्टर बदले। सन् 1923 में एक विचित्र घटना घटी।

प्रबन्धकारिणी ने जुलाई 1923 में तत्कालीन हैडमास्टर राय साहब संगमलाल को सेवा मुक्त कर दिया। किन्तु इसके बाद तुरंत ही तत्कालीन ऑनरेरी सेक्रेटरी कोटला के ठाकुर ध्यानपाल सिंह का दिल का दौरा पड़ने से स्वर्गवास हो गया।

स्कूल बिना हैडमास्टर और बिना सेक्रेटरी के रह गया। प्रेसीडेन्ट ने प्रवास चन्द्र गोस्वामी को कार्यवाहक हैडमास्टर तथा कार्यवाहक सेक्रेटरी नियुक्त कर दिया।

इस प्रकार इस संस्था का चौदह वर्ष का “कोटला-युग” समाप्त हो गया।

श्री गोस्वामी ने जुलाई 1923 से अक्टूबर 1923 तक कार्यवाहक हैडमास्टर के रूप में काम संभाला और इसके पश्चात् राजा साहब सूर्यपाल सिंह जो आनरेरी सेक्रेटरी चुन लिये गये और डा० सुशील चन्द्र सरकार को हैडमास्टर बनाया गया।

यहीं से इस संस्था ने प्रौढ़ावस्था में प्रवेश किया और इसके “राजा तथा राव (अवागढ़ ) युग ” का पुनः सूत्रपात्र हुआ । राजा साहब आनरेरी सेक्रेटरी हो गये थे किन्तु वह प्रबन्धकारणी में अल्पमत का ही प्रतिनिधित्व करते थे।

इस स्थिति में सुधार तब हुआ जब सन् 1924 में ठाकुर मानिक सिंह तथा सन् 1925 में राव कृष्णपाल सिंह जो भी प्रबन्धकारिणी के सदस्य चुन लिये गये।

डा० सरकार बडे ही कुशल तथा प्रतिभाशाली नवयुवक थे। उन्होंने छात्र-जीवन को पब्लिक स्कूलों के जीवन के नमूने पर ढाल दिया। राजा साहब से उन्हें पूर्ण सहयोग मिला और स्कूल में एक नये जीवन का संचार हो गया।

स्कूल की प्रगति इतनी सन्तोषजनक थी कि जुलाई 1928 में उत्तर प्रदेश बोर्ड आफ हाई स्कूल एण्ड इण्टरमीडिएट एजुकेशन के अन्तर्गत इस संस्था को इण्टरमीडिएट कालेज बना दिया गया और डा० सरकार इसके पहले प्रिन्सिपल बने।

हाई स्कूल को इण्टरमीडिएट कालेज बनाने के अवसर पर राजा साहब ने अवागढ़ राज्य से 1,53,000 रुपये कालेज की उन्नति के निमित प्रदान किया।

नये कालेज की प्रगति लगातार जारी रही । सन् 1932 में राजा सूरजपाल सिंह ने आनरेरी सेक्रेटरी का पद यह कहकर छोड़ दिया कि भैय्या साहब(राव कृष्णपाल सिंह ) इस काम को संभालेंगे।

इस प्रकार श्रीमान राव साहब जो 1925 से प्रबन्धकारिणी के सदस्य थे , सन् 1932 में आनरेरी सेक्रेटरी चुन लिये गये जिस पद का भार उन्होंने बीच-बीच में एक दो छोटे- छोटे अरसों को छोड़ कर जब कुंवर प्रवल प्रताप सिंह बजीरपुरा तथा ठा0 बलभद्र सिंह ने राव साहब के सेना में कार्य करने के कारण कार्यभार संभाल सन् 1972 तक पूरे चालीस वर्ष संभाला।

राव साहब के आनरेरी सेक्रेटरी का पद संभालने के दो वर्ष बाद एक और बड़ा परिवर्तन हुआ । इस काल में भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन बहुत जोर पकड़े हुये थे. क्रान्तिकारी दल भो उत्तर भारत के बहुत से भागों में सक्रिय थे।

उस समय पलाउडन प्रबन्धकारिणी के प्रेसीडेन्ट थे। वह क्रान्ति विरोधी भावनाओं से ओतप्रोत थे। कॉलेज के एक क्रान्तिकारी विद्यार्थी के प्रति डा० सरकार की सहानुभूति होने के कारण पलाउडन , डा. सरकार के बड़े विरोधी बन गये

और फरवरी सन् 1934 में उन्हें कालेज छोड़ देना पड़ा। फरवरी सन् 1934 से जून 1934 तक ठा० सबल सिंह ने कार्यवाहक प्रिन्सिपल के रूप में काम चलाया ।

सन् 1934 में रामकरण सिंह की नियुक्ति प्रिसिपल के पद पर हो गई और सन् 1964 तक तीस वर्ष तक उन्हाने पद संभाला । नये प्रिन्सिपल संयुक्त राज्य अमेरिका से उच्च शिक्षा प्राप्त करके लौटे हुये नवयुवक थे जिनके मन में संस्था के विकास की असीम महत्वाकांक्षाओं, आशावादी रचनात्मक योजनाओं के सुखद स्वप्न तथा असम्भव को सम्भव बनाने वाले अदम्य उत्साह की तरंगे लगातार उठ रही थी।

सोभाग्य वश आनरेरी सेक्रेटरी राव साहब तथा प्रिन्सिपल रामकरण सिंह की एक ऐसी सुदृढ़ जोड़ी बन गयी जिस ने आगामी तीस वर्ष की सह-भागिता मे उत्तरोत्तर आश्चर्यजनक ऊँचे लक्ष्य प्राप्त करके संस्था के लिये भारत के शैक्षणिक इतिहास में एक बहुत ही गौरव-पूर्ण स्थान प्राप्त करके दिखा दिया।

सैक्रेटरी तथा प्रिन्सिपल की विचारधारा में बड़ा ही उच्चस्तरीय साम्य था और प्रिसिपल को संस्था विकास की योजनाओं को सफल बनाने में सदा ही सेक्रेटरी का अनुमोदन और प्रोत्साहन प्राप्त होता रहता था।

ऐसी बात नहीं है कि प्रगति के मार्ग के रोड़े और कठिनाईया लुप्त हो गई थी। वह लगातार विद्यमान रही किन्तु राव साहब के महान और तेजस्वी व्यक्तित्व की प्रखर आंच में विघल कर या जल कर वे सदा ही अदृश्य हो जाती रही।

आरम्भ से कोटला परिवार के कुंवर जोगेन्द्र पाल सिंह तथा कुंवर भवर पाल सिंह का कुछ निर्बल सा विरोध चलता रहा। किन्तु जब तक वे लोग प्रबन्धकारिणी के सदस्य रहे सदा अल्पमत में ही रहे।

कभी कभी ठाकुर मानिक सिंह, कुवंर हगपाल सिंह तथा कुवंर जयपाल सिंह , जज साहब सोबरन सिंह जैसे प्रभावशाली सदस्यों से भी मतभेद उठ आता था। किन्तु इन अवसरों पर राव साहब ताजमहल जैसा बड़ी इमारतों का काम करते थे और यह मतमेद उनके महान व्यक्तित्व में ही विलीन होकर रह जाता था, और संस्था की प्रगति के मार्ग में कभी कोई बड़ी बाधा खड़ी न हो पायी।

तीस वर्ष के इस महान् सहकारी प्रयास का जो अद्वितीय फल प्राप्त हुआ। यह बलवन्त एजुकेशन सोसायटी की अनेक प्रगतिशील संस्थाओं के रूप में जनता के सामने साकार रूप धारण किये सहा है। जहां आज भारत के कोने-कोने से आये हुये हजारों विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं।

एक हाई स्कूल एवं साधारण कला के विषयों को पढ़ाने वाले इन्टरमीडिएट कालेज को एक विश्वविद्यालय के समक्ष उठा ले जाने का प्रयत्न एक साधारण पहाड़ पर चढ़ने वाली टोली के एवरेस्ट पर चढ़ने के प्रयास के समान था।

यह कार्य डा० रामकरण सिंह के कार्यकाल मे आरम्भ होकर इण्टरमीडिएट स्तर तक उन्हों के कार्यकाल में कई चरणों में पूरा हो सका।

सन् 1940 में ये डिग्री कॉलेज बन गया जिसके विकास में अवागढ़ राज परिवार का महत्वपूर्ण योगदान रहा जो आज दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा कॉलेज है जिसके पास लगभग 1100 एकड़ जमींन है।

क्षत्रिय महासभा की स्थापना।

1897 में देश के इतिहास में पहली बार अवागढ़ के राजा बलवंत सिंह के प्रतिनिधत्व में कोटिला के ठाकुर उमराव सिंह और भिंगा, उत्तरप्रेदश के राजा उदय प्रताप सिंह के सहयोग से क्षत्रियों के सामाजिक उत्थान के लिए एक संगठन क्षत्रिय महासभा वनाम ‘अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा‘ का 19 अक्टूबर सन् 1897 में लखनऊ में रजिस्टर्ड कराई जिसके संस्थापक राजा बलवंत सिंह एवं सह -संस्थापक राजर्षि राजा उदयप्रताप भिंगा रियासत व ठाकुर उमराव सिंह कोटला रियासत को सर्वसम्मति से बनाया गया।

क्षत्रिय महासभा की प्रथम सभा आगरा में उनके राजपूत बोर्डिंग हाउस में हुई थी। राजा बलवंत सिंह जी ने बनारस के बाबू सांवलसिंह की अध्यक्षता में प्रस्ताव पारित करके 20 जनवरी सन् 1898 को राजपूत समाज में एकता और जागृती लाने के उद्देश्य से

एक News Latter जिसको Rajput Monthly का नाम दिया गया प्रकाशित कर वाया जिसके माध्यम से देश के विभिन्न भागों में फैले हुऐ क्षत्रिय समाज में जागृति व एकता लाने के लिए जनसम्पर्क व सभाएं शुरू हुई।

अंग्रेजी हुकूमत के समय में अगाध मातृभाषा ‘हिंदी‘ प्रेमी एवं प्रबल समर्थक के रूप में महत्वपूर्ण योगदान

राजा बलवन्त सिंह स्वर्गीय पंडित मदन मोहन मालवीय के निकटतम मित्र और सहयोगी भी थे। 1898 में पंडित मदन मोहन मालवीय की अगुवाई में प्रतिनिधि मंडल के सदस्य थे।

जिसमें उनके साथ अयोध्या के महाराजा प्रताप नारायण सिंह , मांडू के राजा राम प्रसाद सिंह , श्रीकृष्ण जोशी तथा डॉ. सुंदर लाल थे जो हिंदी / देवनागरी लिपि को सरकारी दस्तावेजों और न्यायालय में काम करने के लिए भाषा के रूप में सम्मलित कराने का आग्रह किया

और उनके मालवीय के साथ भावी प्रयासों के परिणामस्वरूप उनके सभी विचारों को पारित किया तथा 18 अप्रैल 1900 को मैक डोनाल्ड ने सरकारी गैजेट पारित किया जिसमें हिंदी भाषा में सरकारी दस्तावेजों और न्यायालयों में काम करने की मान्यता मिली।

राजा सूरजपाल सिंह ने देश की काफी शिक्षण संस्थाओं जैसे शांतिनिकेतन ,किशोरी रमन महाविद्यालय मथुरा ,धर्म समाज महाविद्यालय अलीगढ़ , स्वतंत्रता सेनानियों की प्रत्यक्ष रूप से आर्थिक मदद की थी ।

राजा साहिब के छोटे बेटे राव कृष्णपाल सिंह हिंदूवादी विचारके पक्के समर्थक थे ।सन 1951में जब भारतीय जनसंघ स्वर्गीय श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में बनी थी।

तब उत्तरप्रदेश के भारतीय जनसंघ के प्रथम अध्यक्ष राव कृष्णपाल सिंह अवागढ़ तथा जनरल सेक्रेटरी स्वर्गीय पंडित दीनदयाल उपाध्याय बनाये गए थे ।

राव कृष्णपाल हिन्दू महासभा के भी अध्यक्ष रहे तथा क्षत्रिय महासभा के उपाध्यक्ष भी रहे तथा 1962 के तृतीय लोकसभा में वे जलेसर ,एटा के सांसद भी रहे जिनकी गिनती सादगी से परिपूर्ण ईमानदार जन प्रतिनिधियों में की जाती थी ।राजा बलवंत सिंह महाविद्यालय के विकास में उनका अभूतपूर्व योगदान रहा ।

लेखक -डॉ0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव -लढोता, सासनी
जिला -हाथरस, उत्तर प्रदेश

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1 Comment 1 Comment
  • Bhumendrapal Singh says:
    September 25, 2023 at 12:50 pm

    Going through it I find that in it, it is mentioned that the father of Raja BS was Thakur Umrao Singh.It is wrong.The father of RBS was Thakur Hira Singh who first got the title of Raja from the then Maharana of Mewar which was later recognised by the British Raj.
    He has also not mentioned about both Raja saheb/ Rao Saheb were sent to Mayo College,Ajmer which showed his (RBS’s) quest for modern education.

    However, the writer has done good research but he could have mentioned a brief history of the Awa Raj.He could have perhaps, added a few more anecdotes.

    ………
    Shared the above message from R.Anirudh Singh ji Dungarpur. My Bade Data. Do look into it. And make changes if possible. I am available for knowledge and resource sharing on
    8859999459

    Reply

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