यदुवंशी क्षत्रियों का ऐतिहासिक मध्यकालीन दुर्ग तिमनगढ़ (ताहनगढ़)

Jun 18, 2024 - 17:28
Jun 19, 2024 - 16:00
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यदुवंशी क्षत्रियों का ऐतिहासिक मध्यकालीन दुर्ग तिमनगढ़ (ताहनगढ़)

बहुमूल्य सांस्कृतिक एवं कलात्मक धरोहर का प्रतीक ताहनगढ़ दुर्ग

"अपनी बहुमूल्य सांस्कृतिक एवं कलात्मक धरोहर तथा यदुवंशियों के मुगलों से वीरतापूर्ण गौरवशाली  संघर्ष के इतिहास का प्रतीक है तिमनगढ़ /ताहनगढ़ दुर्ग "

इसे तत्कालीन इतिहासकारों एवं लेखकों ने विभिन्न नामों तमनगढ़ , त्रिभुवनगढ़ ,थंनगढ़ से वर्णित किया है तथा इस दुर्ग को प्राचीन कलाओं एवं संस्कृति का अदभुत खजाना एवं राजस्थान का खजुराहो भी कहा जाता है।इस किले के अन्दर बसे नगर को उस समय त्रिपुरारि /त्रिभुवनगिर नगरी आदि नामों से भी सम्बोधित किया गया है।

बयाना से लगभग 23 कि0 मी0 दक्षिण में तथा  करौली जिला मुख्यालय से 45 किलोमीटर दूर उत्तर -पूर्वी क्षेत्र में मासलपुर के पास एक उन्नत पर्वत शिखर माला (अरावली पर्वत माला) पर मध्यकाल का प्रसिद्ध ऐतिहासिक दुर्ग तिमननगढ़ /ताहनगढ़/त्रिभुवनगढ़ स्थित है। 

दुर्गम पर्वतमालाओं से आवृत ,वन संपदा से परिपूर्ण तथा नैसर्गिक सौंदर्य से सुशोभित इस  दुर्भेद्य दुर्ग की अपनी  निराली ही शान और पहिचान है।वीरता और पराक्रम की अनेक घटनाओं के साक्षी इस दुर्ग में प्राचीन काल की भव्य और सजीव प्रतिमाओं के रूप में कला की एक बहुमूल्य धरोहर बिखरी पड़ी है जिसके कारण इसे राजस्थान का खजुराहो कहा जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी ।

पान की खेती के लिए प्रसिद्ध मांसलपुर से उत्तर दिशा में स्थित यह प्रसिद्ध पर्यटक स्थल सागर के निकट की पहाड़ी पर बना तिमनगढ़ 8 किलोमीटर की लंम्बाई -चौड़ाई में समुद्रतल से 1308 फ़ीट ऊंचाई पर स्थित है।किसी समय इस दुर्ग में एक छोटा किन्तु समृद्ध नगर स्थित था और मूर्तियों के खजाने के रूप विख्यात था।

तिमनगढ़ दुर्ग की स्थापना -

इस दुर्ग का निर्माण विजयमन्दिरगढ़ (बयाना) के जादों (पुराणिक यादव ) राजवंशी महाराजा विजयपाल के ज्येष्ठ पुत्र तिमनपाल ने 11वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध (विक्रम संवत 1105 या ईस्वी 1048 ) करवाया था।अपने निर्माता के नाम पर यह दुर्ग तवनगढ़ तथा किले वाली पहाड़ी त्रिभुवनगिरि कहलाती है। समकालीन मुस्लिम इतिहासकारों ने इस दुर्ग को थंगीर या थंनगढ़ तथा दुर्ग केअंदर स्थित नगर को त्रिपुरारनगरी या त्रिभुवनगिर के नाम से भी सम्बोधित किया है।

तिमनगढ़ दुर्ग की स्थापना के संदर्भ में कई लोक किवदन्तियां है उन लोक किवदन्तियों के अनुसार बयाना पर  अबूबक्र कंधारी के आक्रमण किया और यदुवंशियों और यवनों में भीषण युद्ध हुआ और इस भयंकर खून -खराबे के बाद महाराजा विजयपाल की मृत्यु हो गई तो उनके उत्तराधिकारियों को विजयमन्दिर दुर्ग छोड़ कर भागना पड़ा और वहां से लगभग23 किलोमीटर दूर स्थित पहाड़ी पर शरण ली।

तिमनपाल  जो विजयपाल का सबसे बड़ा पुत्र था पिता की मृत्यु के बाद लगभग दो वर्षों तक भेष बदल कर आस -पास के जंगलों में घूमता रहा और अपने लिए जन और धन जुटाता रहा।ऐसा कहा जाता है कि एक दिन जंगल में तिमनपाल  शिकार के लिए एक सुअर का पीछा करते हुए एक पहाड़ी के नीचे स्थित  गुफा में पहुंच गया।

कुछ समय इंतजार में वहीं घोड़े पर खड़ा रहा तभी कुछ घड़ी बाद एक बृद्ध साधू उसी गुफा से निकला और तिमनपाल को देख कर बोला ,तुम हमारे जानवर के पीछे क्यों पड़े हो ?देखते नहीं ये तो गाय है ।तिमनपाल ने अपनी गलती पर खेद व्यक्त किया ।साधू से क्षमा की विनती की ।तिमनपाल समझ गये ये कोई साधारण सन्यासी नहीं है ये कोई करामाती दैवीय शक्ति है।

इस साधू का नाम मेढकीदास कहा जाता है।तिमनपाल ने अपने ऊपर  आये हुए घोर संकट को बताते हुए अपनी बर्बादी की सम्पूर्ण दासता मेढकीदास साधू को सुनाई और उनसे शुभ आशीर्वाद सहित मदद की इच्छा व्यक्त की तो साधू ने भगवान श्रीकृष्ण वंशी समझते हुए प्रसन्न हो कर शुभ आशीर्वाद के साथ पारस पत्थर इन्हें दे दिया तथा अपना भाला सम्भलाते हुये आज्ञा दी सीधे चले जाओ ।पाछे मुड़ कर मत देखना जहां तुम्हारा घोड़ा रुक जाये वहीं इस भाले को गाढ़ देना ।जहां से अथाह जल बहेगा और इस पारस पत्थर की सहायता से उसी जल के  किनारेअपने नवीन राज्य की नींव रखना जो तुम्हारी भावी पीढ़ी को तुम्हारे  महान कृतित्व का परिचय देता रहेगा ।तिमनपाल ने साधू के कहे अनुसार वैसा ही अनुसरण किया।

एक वीरान बीहड घोर जंगल में एक पहाड़ी की तलहटी में जाकर घोड़ा रुक गया तथा वहीं तिमनपाल ने भाला गाड़ दिया ।भाला गाड़ते ही बृहद जल स्रोत फूट निकला जो कालान्तर में "सागर तलाब"नाम से जाना गया।इसी सागर के ठीक ऊपर स्थित ऊँची पहाड़ी पर तिमनपाल ने अपने राज्य की नींव बयाना पतन के ठीक 12 वर्ष बाद पुष्प नक्षत्र में संवत 1105 यानि  ई0 1048 में रखी।10 वर्ष निर्माण कार्य के बाद यह दुर्ग तैयार हो गया और तिमनपाल 1058 ई0 में तिमनगढ़ की गद्दी पर बैठे और तिमनगढ़ को अपनी राजधानी घोषित किया।उस समय इसे तहनगढ़ /त्रिपुरारनगरी के नाम से भी सम्बोधित किया गया।

तिमनपाल एक साहसी एवं दृढ़ संकल्पी ,कुशल प्रशासक -

तिमनपाल ने अपने जीवन में संघर्ष पूर्ण जीवन गुजरा परन्तु कभी हिम्मत नहीं हारी ।उसकी विजयों एवं अन्य उपलब्धियों की जानकारी शिलालेखों एवं साहित्यक ग्रन्थों से प्राप्त है। इससे विदित होता है कि तिमनपाल ने कभी हार का मुंह नहीं देखा ।बयाना के भीषण नरसंहार के बाद भी वह अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु संघर्षरत रहा।

विशाल क्षेत्र का शक्तिशाली अधिपति होने की बजह से महाराजा तिमनपाल को "परम् भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर "की उपाधि मिली हुई थी।उसने सर्वप्रथम तिमनगढ़ व चम्बल नदी के आस -पास का समस्त पहाड़ी ,पठारी व बीहड डाँग क्षेत्र पर अधिकार किया और अपने राज्य की सीमाओं को बढ़ाया।

बयाना के आस -पास के अपने पैतृक राज्य क्षेत्र को भी मुसलमानों से पुनः प्राप्त कर लिया ।इतिहासवेत्ताओं के अनुसार वर्तमान अलवर का आधा भाग , भरतपुर ,बयाना ,कामा , मथुरा का क्षेत्र , महावन ,गुड़गांव ,करौली , धौलपुर , आगरा और ग्वालियर के आस -पास का क्षेत्र भी तिमनपाल ने  कब्जे में कर अपने  राज्य का विस्तार कर किया।

तिमनपाल की जनहित कल्याण का विवरण जनश्रुतियों से भी ज्ञात होता है।जनश्रुतियों के अनुसार एक बार इन्होंने प्रसन्न हो कर अपने एक राजपुरोहित को एक कपड़े में "पारस पत्थर "लपेट कर दान दे दिया ।पुरोहित ने खुशी से उसे किले के नीचे आकर उसे खोलकर देखा तो उस अमूल्य धरोहर को पत्थर समझ कर सागर नामक तालाब में फेंक दिया।

जब राजा को इस बात का पता चला तो हाथियों के लोहे की सांकल बांध कर सागर में से उस अमूल्य निधि को निकालने का प्रयास किया ,किन्तु यह अमूल्य निधि प्राप्त नहीं हो सकी तथा वह हमेशा के लिए सागर के गर्भ में समाहित हो गई ।

तिमनपाल लोक कल्याण कार्यों में हमेशा लग्नशील रहता था।वह धार्मिक सहिष्णु शासक था तथा सभी धर्मों का सम्मान करता था।उसने वैष्णव धर्म को अपनाने के साथ ही शैव सम्प्रदाय व जैन धर्म को पूर्ण सम्मान व संरक्षण दिया जिससे यहां विभिन्न धर्मों की अनेकता में एकता देखने को मिलती थी।

उसके शासनकाल में विभिन्न भागों से जैनधर्मावलम्बी आकर निवास करने लगे तथा तिमनगढ़ एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र बन गया ।इनके राज्य में जैनधर्म का अच्छा विकास हुआ।इस स्थान का अवलोकन करने पर आज भी खण्डित दुर्ग के बाजार की दुकानों पर जहां गणेश जी व हनुमान जी की मूर्तियां देखने को मिलती है वहीं जैन धर्म की कई प्रतिमा भी देखने को मिलती है।

तिमनपाल ने एक लम्बे समय तक यहां शासन किया और 35 लड़ाइयां लड़ी ।उन्होंने दुर्ग के भीतर बाजार ,मन्दिर ,तालाब ,कुँआ (ननद -भौजाई) ,नटनी की छतरी ,टेलकुण्ड ,एवं सड़कें आदि का निर्माण करवाया।लगभग 8 किलोमीटर की परिधि में फैला तवनगढ़ शास्त्रोक्त गिरि दुर्ग का उत्तम उदाहरण है।उन्नत और विशाल प्रवेशद्वार तथा ऊँचा परकोटा इसके स्थापत्य की प्रमुख विशेषताएं है।

जगह पौर और सूर्य पौर इसके दो प्रमुख प्रवेश द्वार हैं।बीते जमाने में यह किला अपने आप में एक संम्पूर्ण इकाई था।समूचा नगर किले के भीतर बसा हुआ था।दुर्ग में 60 दुकानों से युक्त एक विशाल बाजार था। ऐसा कहा जाता है कि इस दुर्ग में  तिमनपाल द्वारा स्थापित एक तिमनबिहारी मन्दिर भी है।वह वैष्णव धर्म का उपासक था ,उसने संवत 1142 में भगवान विष्णु के मंदिर का निर्माण कराया था।

इसके अतिरिक्त खास महल,बड़ा चौक ,ननद भौजाई का कुँआ ,राजगिरि, दुर्गाध्यक्ष के महल , सैनिकों के आवासगृह ,जीर्ण -शीर्ण छतरियां ,तहखाने आदि भवन प्रमुख और उल्लेखनीय है।यहां उपलब्ध प्राचीन प्रतिमाओं के कारण यह दुर्ग केवल ऐतिहासिक दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं है अपितु अपनी बहुमूल्य सांस्कृतिक एवं कलात्मक धरोहर के कारण भी विशिष्ट महत्व रखता है। 

कुछ इतिहासकारों का मत है कि ये दुर्ग महाराजा तिमनपाल से पूर्व का है उन्होंने तो इस का जीर्णोंद्धार कराया था परन्तु जो भी हो इस दुर्ग के वैभव को पराकाष्ठा तक पहुंचाने में इसकी साधना एवं पारस पत्थर की करामात को नकारा नहीं जा सकता ।तिमनपाल के 12 पुत्र बताए जाते है जिनका सही विवरण उपलब्ध नहीं है।

यदुवंशियों का तुर्कों से संघर्ष-

महाराजा तिमनपाल पुत्रों में धर्मपाल व हरपाल प्रमुख रहे।तिमनपाल का उत्तराधिकारी धर्मपाल बना परन्तु उसके समय मे शासन की समस्त बागडोर उसके पासवानिया भाई हरपाल के हाथ में थी जो एक  योग्य वीर और पराक्रमी योद्धा था।

कहा जाता है कि वह अपने दादा विजयपाल का बदला गजनी के शाह से चुका कर लाया था।तिमनपाल ने इसके साहस और शौर्य पर प्रसन्न होकर राज्य का भार उसी पर छोड़ दिया था।तिमनपाल की मृत्यु (ई0 1090) हो जाने पर गृहकलह के कारण महाराजा धर्मपाल ने तिमनगढ़ छोड़ कर एक नया किला धौलदेहरा (धौलपुर) बना कर रहने लगा।

तिमनगढ़ एवं बयाना पर कुँवरपाल का अधिकार-

धर्मपाल के पुत्र कुंवरपाल ने गोलारी में एक किला बनवाया जिसका नाम कुंवरगढ़ रखा गया।कुछ वर्षों के बाद कुंवरपाल ने मौका पाकर अपने चाचा हरपाल को मार कर तिमनगढ़ पर अपने पिता का अधिकार स्थापित किया ।कुंवरपाल महाराजा धर्मपाल का ज्येष्ठ पुत्र था ,महाराजा ने अपने इस पुत्र को उत्तराधिकारी घोषित कर शासन की बागडोर कुंवरपाल के हाथों सौंप दी।

तिमनगढ़ के सिंहासन पर बैठने के कुछ समय बाद उसने बयाना पर आक्रमण कर अपना आधिपत्य कर लिया ।बयाना और तिमनगढ़ दोनों दुर्ग उसके अधीन रहे।सम्भवतः कुंवरपाल 1157ई0 में बयाना और तिमनगढ़ (त्रिपुरार नगरी) का शासक बना ।कुंवरपाल भी जैनधर्म का अनुयायी था ।उसके समय में भी त्रिपुरारनगरी में जैनधर्म का प्रभाव था।कुंवरपाल ने बयाना और तिमनगढ़ पर 1195ई0 तक राज्य किया। 

ई0 1195-1196  में मुहम्मद गौरी ने अपने सिपहसालार कुतुबुद्दीन ऐबक के साथ यदुवंशी राज्य बयाना पर जबरदस्त आक्रमण किया ।कुंवरपाल ने भी अप्रियतम साहस और पराक्रम का परिचय देते हुए आक्रांता का सामना किया परन्तु विजयश्री से वंचित रहा ।बयाना और तिमनगढ़ दोनों दुर्गों पर मुहम्मद गौरी का अधिकार हो गया।कुंवरपाल बहुत समय तक डाँग की पहाड़ियों में मारा -मारा फिरता रहा।वहां के निवासियों पर कर निश्चित कर दिया गया।

बयाना एवं तिमनगढ़ पर मुस्लिम आधिपत्य-

बयाना प्रदेश एक मुस्लिम अधिकारी बहाउद्दीन तुगरिल को प्रदान कर दिया गया। बहाउद्दीन तुगरिल को तिमनगढ़ का गवर्नर नियुक्त किया गया।समकालीन मुस्लिम इतिहासकारों ने अपनी तवारीखों में इस घटना का उल्लेख किया है।हसन निजामी द्वारा लिखित "ताज -उल -मासिर तथा मिनहाज सिराज लिखित "तबकाते नासिरी "में तवनगढ़ के मुहम्मद गौरी के अधिकार में आने तथा उसे बहाउद्दीन तुगरिल के अधीन रखने एवं उसके शासनकाल में वहां की व्यापारिक प्रगति का उल्लेख हुआ है।

तुरगिल ने तिमनगढ़ व त्रिपुरारनगरी की स्थिति को सुधारने हेतु हिन्दुस्तान के विभिन्न भागों से तथा खुरासान से व्यापारियों और सम्पन्न शक्तियों को वहां विकास हेतु बुलाया।इन्हें घर व समान दिए तथा भूमि देकर भूस्वामी बना दिये गये ताकि वे स्थाई रूप से बस सकें।इसके बाद  बहाउद्दीन तुरगिल को  यदुवंशी राजा के किले थंनगर (ताहनगढ़) को स्थायी रूप से अपने और  अपनी सेना के निवास स्थान के अनुकूल न पाकर बहाउद्दीन तुगरिल ने उसी राज्य में सुल्तानकोट नामक एक शहर बसा कर उसे अपना निवास स्थान बनाया।

बयाना और त्रिभुवननगरी पर मुस्लिम -आधिपत्य हो जाने के पश्चात कुंवरपाल सहित अनेक यदुवंशी चंबल नदी पार करके सबलगढ़ के जंगलों में चले गये और फिर वहां जादोंवाटी नाम से अपना क्षेत्र बना लिया। मुस्लिम शासनकाल में इस क्षेत्र में भारी अशांति ,हिंसा और अत्याचार का वातावरण रहा । उस समय यहां जबरन हिन्दुओं को इस्लाम धर्म कबूल करने के लिए बाध्य किया जाता था.

इस बजह से बहुत से यदुवंशी परिवार तुर्कों के अत्याचार और धर्मपरिवर्तन की नीति से व्यथित होकर अन्य सुरक्षित स्थानों पर पलायन कर गये और कुछ  ने धर्म परिवर्तन कर लिया  मुहम्मद गौरी द्वारा तवनगढ़ पर अधिकार कर लिए जाने के साथ ही यदुवंशियों की राजधानी तवनगढ़ या त्रिभुवनगिरि के गौरवशाली स्वर्णिम युग का पटाक्षेप हो गया।लेकिन कुंवरपाल के बाद भी समय समय पर शत्रु पक्ष की कमजोरियों का फायदा उठा कर पुनः इस क्षेत्र के यदुवंशी सरदार इस क्षेत्र पर काबिज और पलायन होते रहे.

इससे प्रतीत होता है कि मुसलमानों के अधीन बयाना क्षेत्र अधिक समय तक कायम नहीं रह सका और सम्भवतः बहाउद्दीन तुगरिल की मृत्यु के बाद यदुवंशियों ने 1204और 1211 ई0 के मध्य में किसी समय पुनः अपने पैतृक भू-भाग पर अधिकार जमा लिया जिसके कारण इल्तुतमिश(1226 -27)  को पुनः एक बार बयाना और थनगढ़ (तिमनगढ़) जीतने की आवश्यकता पड़ी ।शायद इस समय महाराज नागार्जुन पाल के बेटे पृथ्वीपाल का शासन इस क्षेत्र पर था। इल्तुतमिश ने नसरुद्दीन तापसी को यहां का हाकिम नियुक्त किया।

राजा त्रिलोकपाल का तिमनगढ़ पर अधिकार-

लगभग पचास वर्ष बाद सन 1264-1286 में एक बार पुनः यदुवंशीयों का झण्डा तिमनगढ़ पर लहराता रहा उस समय त्रिलोक पाल और उनके उत्तराधिकारियों ( वापलदेव ,सासलदेव ,आसलदेव ,घुघलदेव या गोकुलदेव)का शासन था जिसकी पुष्टि न्यायचन्द्र सूरी -रचित हमीर महाकाव्य से भी होती है कि जिस समय रणथम्भोर का पराक्रमी शासक हम्मीरदेव देव चौहान(विक्रम संवत 1339) अपनी दिग्विजय -अभियान के प्रसंग में त्रिभुवनगिरि के शासक द्वारा उसे भेंट दिए जाने का उल्लेख हुआ है ।उस समय यहां का शासक सम्भवतः महाराजा पृथ्वीपाल का पुत्र त्रिलोकपाल था ।

राजा अर्जुनपाल का तिमनगढ़ पर पुनः अधिकार-

चौदह वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध (1327-48 ई0) में गोकुलदेव के पुत्र अर्जुनपाल1325 ई0 में मध्यभारत के किसी राजघराने के आश्रय में रहते थे । मंडरायल के पास एवं सबलगढ़ के क्षेत्र में यवनों का शासन था ,परन्तु यहां पर डॉड़ व परमार राजपूतों का जोर था। मुहम्मद बिनतुग़लक उस समय दिल्ली का सुल्तान था ।अर्जुनपाल  ने 1327ई0 में मण्डरायल के मुस्लिम गवर्नर मियां मक्खन को परास्त कर अपने राज्य(बयाना क्षेत्र) को फिर से प्राप्त करना प्रारंभ किया।

मिया मक्खन के अत्याचारों से परेशान क्षेत्रीय जनता ने भी अर्जुन पाल जी का साथ दिया ।अर्जुन पाल जी ने मण्डरायल के आस -पास रहने वाले  पंवार राजपूतों को परास्त कर अपने राज्य का विस्तार किया और अपने पैतृक राज्य तवनगढ़ पर फिर से अधिकार कर लिया और सरमथुरा के पास 24 गाँव बसाये।

अर्जुनपाल ने वैशाख शुक्ल 9,सं 0 1403/1346ई0 में  कल्याणजी का मंदिर बनवाया और उसी स्थान पर एक शहर का निर्माण करवाया जो कल्याणजी के नाम पर ही कल्याणपुरी नाम से जाना गया जो आज करौली कहलाती है ।यह नगर भद्रावती नदी के किनारे स्थित था इस कारण भद्रावती नाम से भी जाना जाता था।कुछ इतिहासकारों ने इस करौली नगर को ककराल या करालगिरि भी कहा है।अपनी स्वतंत्र सत्ता खोने के बाद भी तवनगढ़ का महत्व बना रहा ।

अर्जुनपाल की मृत्यु (1361ई0) के बाद विक्रमादित्य ,अभयचन्द्र ,पृथ्वीपाल, उदयचंद,आदि यहां के शासक रहे। 1516ई0 में सिकन्दर ने इस क्षेत्र व दुर्ग पर अधिकार कर लिया इस समय में तिमनगढ़ के साथ क्षेत्र के बहुत से मन्दिरों को मस्जिदों में परिवर्तित कराया गया। लोदी वंश के शासन काल में तहनगढ़ दुर्ग प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण स्थान था।लोदी शासकों से यह दुर्ग शेरशाह सूरी ने छीन लिया ।इसके बाद यह क्षेत्र मुगल सम्राट बाबर के अधिकार में आ गया।

मुगल सम्राट बाबर के शासन काल में आलम खान तिमनगढ़ का दुर्गाध्यक्ष था ।मुगल आधिपत्य के बाद इस त्रिपुरारनगरी का नाम इस्लामाबाद हो गया ।इसके बाद पृथ्वीपाल के उत्तराधिकारी  रुद्रप्रताप अपना राज शासन तिमनगढ़ से उंटगिर ले गये ।उस समय मुहम्मदशाह बादशाह दिल्ली का शासक था।जागीर में बयाना और तिमनगढ़ सिद्धपाल यदुवंशी को दे दिया।प्रतापसेन के पास केवल उंटगिर ही रहा। 

निरंतर आन्तरिक झगड़ों में उलझे रहने के कारण ,करौली के यदुवंशी शासक उत्तर भारत की राजनीति में कोई महत्वपूर्ण भाग नहीं ले सके. यद्धपि तुगलक एवं सैयद राजवंश के अवसान तक उनकी स्वतंत्रत सत्ता विद्यमान रही ,किन्तु शीघ्र ही यदुवंशी शासक चन्द्रसेन के राज्य काल में 1454ई0 में मालवा के सुल्तान महमूद खलजी ने यदुवंशी राज्य पर चढ़ाई कर उस पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया।

वहां के अनेक हिंदुओं को उसने मारा।महमूद ने अपने पुत्र फिदवी खान को करौली का शासक नियुक्त किया।अपने राज्य से च्युत होकर चन्द्रसेन उंटगिर में एक सन्यासी का जीवन व्यतीत करने लगे।
कालान्तर में  राजा चंद्रसेन के पौत्र गोपालदास ने अकबर के शासनकाल में उसे अपनी सेना से प्रसन्न कर अपने पैतृक राज्य के कुछ भागों को पुनः पाने में सफल हो गये।

महाराजा धर्मपाल दुतीय के शासनकाल में तिमनगढ़ उनके अधिकार में आ गया ,परन्तु करौली के विकास को प्राथमिकता देने के कारण ,न तो महाराजा धर्मपाल ने उक्त दुर्ग के विकास के विषय में कुछ सोचा और नहीं उनके वंशजों ने इस तिमनगढ़ के उचित संरक्षण पर कभी ध्यान दिया।

लिहाज शनै:शनै:यह प्राचीन ऐतिहासिक दुर्ग निर्जन ,बीहड़ और खंडहर होता चला गया।वहीं कालान्तर में दस्युओं का विहार स्थल भी बनता गया । मुगलकाल से ही इस दुर्ग की उपेक्षा होती गई ।बुरे समय के थपेड़ों का खाता हुआ ये गौरवशाली इतिहास का प्रतीक दुर्ग आज भी सीना ताने अपने संरक्ष्ण के लिए अच्छे दिनों की प्रतीक्षा कर रहा है 

संदर्भ-

  1. गज़ेटियर ऑफ करौली स्टेट -पेरी -पौलेट ,1874ई0
  2. करौली का इतिहास -लेखक महावीर प्रसाद शर्मा
  3. करौली पोथी जगा स्वर्गीय कुलभान सिंह जी अकोलपुरा
  4. राजपूताने का इतिहास -लेखक जगदीश सिंह गहलोत
  5. राजपुताना का यदुवंशी राज्य करौली -लेखक ठाकुर तेजभान सिंह यदुवंशी
  6. करौली राज्य का इतिहास -लेखक दामोदर लाल गर्ग
  7. यदुवंश का इतिहास -लेखक महावीर सिंह यदुवंशी
  8. अध्यात्मक ,पुरातत्व एवं प्रकृति की रंगोली करौली  
  9. करौली जिले का सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन-लेखक डा0 मोहनलाल गुप्ता
  10. वीर-विनोद -लेखक स्यामलदास
  11. गज़ेटियर ऑफ ईस्टर्न राजपुताना (भरतपुर ,धौलपुर एवं करौली )स्टेट्स  -ड्रेक ब्रोचमन एच0 ई0 ,190
  12. सल्तनत काल में हिन्दू-प्रतिरोध -लेखक अशोक कुमार सिंह
  13. तिमनगढ़ दुर्ग -कला एवं सांस्कृतिक अध्ययन -लेखक रामजी लाल कोली
  14. राजस्थान के प्रमुख दुर्ग-लेखक-राघवेंद्र सिंह मनोहर
  15. रिपोर्ट ऑफ ए टूर इन ईस्टर्न राजपुताना ,1882-83 -कनिंघम
  16. एनशियस्ट सिटीज एन्ड टाउन्स ऑफ राजस्थान-लेखक डा0 के0 सी0 जैन
  17. मध्यकालीन राजस्थान का इतिहास -लेखक वी0 एस0 भार्गव
  18. राजस्थान के प्राचीन दुर्ग -लेखक डा0 मोहनलाल गुप्ता
  19. यदु-वंश -लेखक गंगा सिंह
  20. ग्वालियर के तंवर -लेखक हरिहरप्रसाद द्विवेदी ।
  21. जाटों का नवीन इतिहास -लेखक उपेन्द्रनाथ शर्मा ।
  22. जाटों का नया इतिहास -लेखक धर्मेंचन्द्र विद्यासंकर ।

   लेखक:- डा. धीरेन्द्र सिंह जादौन 
गांव:- लढ़ौता , सासनी
 जिला:- हाथरस
प्राचार्य:- राजकीय स्नातकोत्तर कन्या महाविद्यालय सवाईमाधोपुर राजस्थान

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