विशेष लेख (संस्मरण) महाकुम्भ: मेरी यादों में कुंभ- गंगे तव दर्शनात मुक्ति।
कुंभ मेला सुनते ही एक रोमांच आज भी होता है मुझे। मेरी स्मृतियों में जो कुंभ है, वह हमारे लिए कुछ अलग था। आज से लगभग पैंतीस वर्ष पूर्व विश्वविद्यालय...

कुमकुम शर्मा की कलम से...... |
(पूर्व सूचना निदेशक) सूचना एवं जन संपर्क विभाग उ. प्र. |
कुंभ मेला सुनते ही एक रोमांच आज भी होता है मुझे। मेरी स्मृतियों में जो कुंभ है, वह हमारे लिए कुछ अलग था। आज से लगभग पैंतीस वर्ष पूर्व विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दिन थे और नवम्बर दिसम्बर के आस पास मां को कहते सुना कि इस साल घर में बहुत मेहमान आने वाले हैं, इसलिए अभी से पढ़ाई पूरी कर लो, सबके आने पर समय नहीं मिलेगा क्योंकि इस वर्ष कुंभ है और फिर दारागंज में घर होने के कारण रिश्तेदार हमारे यहां ही ठहरेंगे क्योंकि यहां से गंगा पास है। दिसम्बर मध्य तक हमारे यहां लोगों का आना -जाना शुरू हो गया था। बाबा तो थे ही हमारी बड़ी बुआ जी सहारनपुर के पास गंगोह से सिर्फ कुंभ स्नान और हम सबके साथ कुछ दिन रहने के लिए आ गई थीं। मां की दूर-दराज की एक बहन भी आ गई थीं और घर का माहौल पूरी तरह से उत्सव में तब्दील हो चुका था।
जैसे-जैसे मेला पास आता-जाता हम लोगों की व्यस्तता बढ़ती जाती। इन दिनों हम बहनों को सड़क पर अकेले जाने की इजाजत नहीं थी, क्योंकि दिन-रात एक दूसरे का हाथ थामे या ग्रुप में गांठ जोड़े यात्रियों का रेला चलता ही रहता था। सर पर पाप और पुण्य की गठरी और कंधे पर झोले में कुछ खाने-पीने का सामान लिए ये कौन लोग हैं, कहां से आ रहे हैं, कहां ठहरेंगे कुछ पता नहीं, बस संस्कृति के बोझ से झुके विनम्र आस्था और उत्साह से ऊर्जस्वित, मगन अपनी धुन में चले जा रहे हैं। इनको देखते रहना तब भी अच्छा लगता था और आज भी। मां ने बताया था ये तीर्थ यात्री बड़ी दूर-दूर से यहां कुंभ स्नान के लिए आते हैं और अपनी साल भर की कमाई यहीं निवास करने, पूजा पाठ, खाने -पीने में लुटाकर खुशी-खुशी घर लौट जाते हैं। समझ में नहीं आया था तब कुछ भी कि फिर घर लौटकर कैसे दिन व्यतीत करते होंगे। क्यों आते हैं यहां, अपना सब कुछ खोकर खाली हाथ लौट जाने के लिए।
लगभग रोज ही शाम को हम सभी घूमने के लिए मेला क्षेत्र में जाते थे बख्शी बांध से आ रही जो सड़क बस अड्डे पर स्थापित महाकवि निराला की मूर्ति से होते हुए संगम तट तक जाती है उस पर पैदल चलते हुए हम मेला क्षेत्र की तरफ जाने वाले ढाल पर आ जाते हैं। उस समय वहीं से कुंभ मेला शुरू हो जाता था। सड़क के दोनों तरफ चादर बिछाकर चूड़ी, बिंदी, माला,सिंदूर रुद्राक्ष और भी न जाने क्या क्या बेचते हुए लोग। ढाल से नीचे उतरते समय एक गोलाकार आर्च सा बनाता हुआ बोर्ड लगा हुआ दिखाई देता है, जिस पर लिखा होता था,गंगे तव दर्शनात मुक्ति। इसे पढ़कर गंगा की तरफ दौड़ जाने को मन अधीर हो उठता था, बड़ों के लाख मना करने के बावजूद भी हम ढाल पर दौड़ लगाते हुए संगम तट की भीगी काली रेत में धंसते चले जाते थे। पानी के छिड़काव और ओस से ठंडी हो गई रेत पर चलना सुखद होता था। सर्द ढलती हुई शाम में गंगा नदी में समाते सूरज को देखकर ऐसा लगता जैसे पवित्र जल से आचमन कर रहा हो। घाट पर बिछे पंडों के तख्त पर हम सब थोड़ी देर के लिए बैठते हैं, वहां से बहती हुई शांत गंगा को देखते रहना मुझे बहुत अच्छा लगता था। बुआ जी, मां और मौसी अपने सुख-दुःख साझा करते हुए खुश हैं। मन हल्का करके हम सब फिर लौटते हैं घर की तरफ।
सड़क के दोनों तरफ बने दूर-दूर से आए विद्वान संतों महात्माओं के पंडाल से आती कीर्तन भजन की मधुर ध्वनियां उधर से गुजरने वाले हर व्यक्ति को आकर्षित करती हैं एक विदेशी जोड़ा ठहरकर वहीं खड़ा हो जाता है। मंच से आ रही प्रवचन की बातों में बंधकर मां वहीं बैठ जाती हैं, जैसे संत की वाणी से बरसते अमृत की एक-एक बूंद को ग्रहण करके ही अब आगे बढ़ेंगी। हम बच्चे बगल के पंडाल में चले जाते हैं, जहां लोकधुन पर थिरकते पांव कुछ कहना चाहते हैं, ध्यान से सुनने पर गीत के मधुर शब्द जैसे संगम के जल में मिलकर एकाकार हो रहे हैं, “एहर बहे गंगा, ओहर बहे यमुना बिचवा में सुरसरी आय। माघ महिनवा त्रिरवेनी के तट परि जैहों मैं करके सिंगार। गंगा तोरी लहर सबईके मन भाए, सबईके मन भाए, सबईके मन भाए सबईकेे मन भाए।
भारत एक ऐसा देश है जहां मनुष्य के कर्मों से ही उसका जीवन परिभाषित होता है, पाप और पुण्य को समेटे इस पावन भूमि पर आने वाला एक -एक व्यक्ति मात्र मोक्ष रूपी अमृत की आशा, आस्था और विश्वास के साथ यहां आता है, और त्रिवेणी धारा में डुबकी लगाते ही छूट जाते हैं उसके सभी राग, द्वेष, मान-अपमान, सुख-दुःख, ज्ञान-अज्ञान आदि भाव। खाली होकर लौटता है वह। एक अनिर्वचनीय आत्मिक शांति उसके मन मस्तिष्क में व्याप्त हो जाती है, कहने, बोलने के लिए कुछ भी नहीं रहता अब उसके पास।
महान पर्व का दिन, जिसके लिए हमारी बड़ी बुआ जी गंगोह से यहां आईं थीं ठीक उसके एक दिन पूर्व पानी बरसना शुरू होता है तो बंद ही नहीं होता, बारिश इतनी तेज है कि सर्दियों मे ठिठुरन और बढ़ जाती है। बैठक में सो रहे बाबा सभी को सचेत करते हुए कहते हैं, कल कोई भी संगम स्नान के लिए नहीं जाएगा। गंगा में पानी बढ़ा हुआ है और प्रयाग में कोई पक्का घाट तो है नहीं। इसलिए बारिश के चलते दलदल भी हो जाएगा। घर में ही डुबकी लगाओ, “मन चंगा तो कठौती में गंगा”। लेकिन कहां सुनने वाली थीं बुआ, मां और मौसी, बारह वर्षों बाद पड़ने वाले इस महाकुंभ से छलकते अमृत को कैसे छोड़ दें। सुबह भोर में एक धीमी सी आवाज में मां कहती हैं, हम और बुआ जा रहे हैं, दरवाजा बंद कर लो, पिता जी को नहीं बताना। मैं आदेश का पालन करती हूं और दरवाजा बंद कर चुपचाप सो जाती हूं।
दिन निकलने के साथ ही बारिश और तेज हो गई थी जैसे भगवान भी परीक्षा ले हों, भक्तों की। उस दिन सूरज नहीं दिखाई दिया था, आसमान में छिटकी हुई हल्की लालिमा से ही दिन निकलने का आभास हो रहा था दिन में ही घनघोर अंधेरा व्याप्त था और बारिश थी कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। मैं उठ गई थी और मुझे भी अब मां और बुआ की चिंता होने लगी थी। बाबा अभी सो ही रहे थे गनीमत थी, उठते ही पूछेंगे। बाहर निकल कर देखा तो यात्रियों की कतार अब भी चलती जा रही थी। ऐसा लग रहा था कि इस यात्रा का न कहीं आदि है न अंत। पता नहीं यह कौन सा उत्साह था या इस भीगी अंधेरी सुबह में ये लोग कौन सी रौशनी की तलाश में हैं, कब तक और कहां तक है इनकी यात्रा? समझ नहीं आता है।
उठते ही बाबा ने बुआ और मां को पूछना शुरू कर दिया था, हम सब चुप थे, जैसे सांप सूंघ गया हो। शाम के पांच बजे होंगे जब घंटी बजी दरवाजा खोला तो देखा कि मां और बुआ जी दोनों बुरी तरह भीगे हुए भयानक सर्दी से कांप रहे थे पैरों में चप्पलें भी नहीं थीं पूछा तो बताया कि वहीं घाट पर दलदल में धंस गई थीं तो कौन निकलता, हम लोग नंगे पांव पैदल ही चलकर आए हैं, स्नान हो गए बस इतनी दूर से आना सफल हो गया। बुआ जी बोली। एक अजीब सी संतुष्टि से भरी-भरी दोनों, इस समय किसी भी सवाल का जवाब देने के मूड में नहीं थीं वे। कोई अफसोस कोई पछतावा नहीं, कहा, पिताजी पूछें तो बता देना सो रहे थे।
उनके चेहरे पर थकान का कोई नामोनिशान नहीं, जैसे देह का कष्ट कोई कष्ट ही नहीं मानो देह ही आत्मा है और आत्मा ही देह है। परम आनन्द की स्थिति हो जैसे। कबीर ने कहा है, जब मैं था, तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाही। सब अंधियारा मिट गया, जब दीपक देखा माही। ये मेले ये आयोजन हमारी भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग हैं। सम्भवतः इस तरह के आयोजन वर्षों से पल रही हमारे मन की गांठों को खोलते तो हैं ही साथ ही पुनः ऊर्जा से भरकर जीवन जीने के लिए हमें तैयार भी करते हैं, एक स्वप्न एक प्रकाश पुंज की तरह जीवन और मृत्यु के रहस्य को खोलते हुए। जीवन का सकारात्मक सहज प्रवाह ही हमारी संस्कृति के उत्कर्ष का कारण है।
कुंभ का आयोजन प्रकृति की एक खास अवस्था का पर्व है। वेदों में प्रकृति को ही देवता कहा गया है, प्रकृति प्रदत्त उपहारों का सेवन करते हुए हम स्वयं को भी प्रकृति का ही अंग स्वीकारें यही सभी के लिए श्रेयस्कर है। प्रकृति से विलग होते ही हम तन और मन दोनों से अस्वस्थ हो जाते हैं। मनुष्य मात्र के लिए आवश्यक है कि उसकी दिनचर्या सुव्यवस्थित और सुनिश्चित हो। सुव्यवस्थित और विवेकशील होने के कारण ही मनुष्य समस्त प्राणी समूह में श्रेष्ठ है। ज्ञान विज्ञान, मानवता ही मनुष्यता की परिभाषा निर्मित करते हैं। हमारे देश में होने वाले इस तरह के पर्व मेले आयोजन यह सिखाते हैं कि साथ साथ मिलकर चलते रहना ही हमारी संस्कृति का मूल मंत्र भी है और संदेश भी। सह अस्तित्व का यह सिद्धांत प्रकृति से ही आया है, ऋग्वेद में कहां गया है-
संगच्छवं संवदध्वं सं परे मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे संज्जानानां उपासते।
जिसका अर्थ है, हम सब एक साथ चलें, एक साथ बोलें हमारे मन एक हों। प्राचीन समय में देवताओं का ऐसा आचरण रहा है इसीलिए वे वंदनीय हैं। ऋग्वेद के इस महत्वपूर्ण मंत्र का तात्पर्य यही है कि हमें प्राकृतिक नियमों का पालन करते हुए समाज के साथ रहना चाहिए। बड़े और महान काम सामूहिक प्रयास और सबके साथ मिलकर ही पूरे हो सकते हैं। एकता, समन्वय और सदभाव ही श्रेष्टता और सफलता आधार है। इस मंत्र का भी यही संदेश है कि हमें जीवन में समन्वय का भाव रखना चाहिए।
मेला क्षेत्र में दूर तक देखने पर एक नया शहर जैसा बस गया लगता है। छोटी छोटी कुटिया बनाकर कल्पवास के लिए रहते लोग। कुछ स्वयं आए हैं और कुछ लाकर छोड़ दिए गए हैं जिन्हें मेला समाप्त होने के बाद भी कोई लेने नहीं आएगा और उनकी यह यात्रा चलती रहेगी अनवरत। कहां जाएंगे मेला समाप्त होने के बाद कुछ पता नहीं सब कुछ भगवान भरोसे। वे कभी घर नहीं लौटेंगे। मोक्ष (मुक्ति) किसको मिला मेले में इन्हें छोड़कर जाने वालों को या इन्हें जो यहीं छूट गए? पता नहीं। ईश्वर क्या है, जिसे आत्मसात कर लेना चाहते हैं ये कल्पवासी, ये हजारों यात्री? निर्मल वर्मा ने एक जगह कहा था, हमारे बाहर एक प्रवाह है, मनुष्य जब भटकता हुआ इस प्रवाह से एकात्म हो जाता है तो ईश्वर की प्राप्ति होती है। मुझे लगता है।
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दरअसल, ईश्वर कुछ है तो बस यही एक प्रवाह है जो हमारे बाहर बह रहा है, जिसे हमें आत्मसात करना है। किले की विशाल दीवार से सटी हुई यमुना तीव्र गति से बहती हुई कितनी भयावह लगती है। उस तरफ जाते हुए हमें हमेशा किसी न किसी ने रोकते हुए कहा है उधर नहीं जाना, अथाह पानी है वहां इसकी अतल गहराइयों का कुछ पता नहीं, अतः आज भी उधर जाते हुए डर जाती हूं। श्यामल यमुना से थोड़ी दूर पर ही गंगा की मोतिया रंग की सफेद जलधारा यमुना के साथ एकात्म होते हुए विलीन हो जाती है, यहीं कहीं होगी सरस्वती भी जो हमें दिखाई नहीं देती। इसी त्रिवेणी धारा को ही संगम कहते हैं, जहां एक एक करके यात्री डुबकी लगाते जाते हैं और पाप पुण्य सब वहीं छोड़कर मुक्त होते हुए घर वापस चले जाते हैं।
कुंभ हमारी सांझी संस्कृति और सभ्यता का साक्षात प्रमाण है। सर्वसिद्धिप्रदः कुंभ 2025 में आयोजित होने वाले कुंभ का ध्येय वाक्य है, जिसका मतलब है यह कुंभ सभी प्रकार की सिद्धि प्रदान करने वाला है। महाकुंभ के इस विशाल आयोजन में देश-विदेश से हर धर्म, हर जाति के लोग एक सकारात्मक ऊर्जा के साथ एकत्रित होते हैं।यही इस विशाल आयोजन की खूबसूरती है।
यही वजह है कि वहां का वातावरण दिव्य हो उठता है। भूमंडलीकरण के चलते जो बदलाव पूरी दुनिया में आया है उसका प्रभाव हम पर भी पड़ा है पर तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद हमने अपनी सांझी विरासत को संजोकर रखा है। शताब्दियों से हमारा गौरवपूर्ण इतिहास रहा है कि अनेक विफलताओं और विषमताओं के चलते भी हमारी सह अस्तित्व की भावना कभी खंडित नहीं हुई है। सह अस्तित्व हमारा वह दर्शन है जिसने हमें प्रगति के रास्ते पर भी आगे बढ़ाया और सांस्कृतिक स्तर पर भी एक अलग पहचान दी। चिन्तन, दर्शन, साहित्य, कला और विभिन्न संस्कृतियों के समन्वय का जो वैभव हमें अपने पूर्वजों से मिला है, उसी ने हमें पूरी दुनिया में विशिष्ट बनाए रखा है। हमारी सांझी संस्कृति आज भी सबके लिए विस्मय का विषय बनी हुई है।
2025 का महाकुंभ विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों, रीति रिवाजों, आस्थाओं एवं विश्वासों का एक विशाल आयोजन है, जिसमें प्रेम और सौहार्द्र की एक नई इबारत लिखी जाएगी। शताब्दियों तक याद किया जाएगा यह दिव्य और भव्य कुंभ। यहां की सुव्यवस्था तो इसे शानदार बनाती ही है पर वस्तुतः इसे भव्य बनाता है, हमारा सहअस्तित्व का दर्शन। जिसे हमें बनाए रखने के लिए, हर सम्भव प्रयास निरंतर करते रहना होगा।
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