Special Article: ऐतिहासिक नगर सवाईमाधोपुर  के दार्शनिक स्थलों  का शोधात्मक अध्ययन...

सवाईमाधोपुर शहर- ई. 1765 में जब माधोसिंह ने शेरपुर की प्राचीर बनवाई तब उसका नाम बदलकर सवाई माधोपुर रख दिया। इस नगर चारों ओर एक परकोटा बना हुआ था जिसका

Nov 1, 2025 - 20:07
Nov 2, 2025 - 11:36
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Special Article: ऐतिहासिक नगर सवाईमाधोपुर  के दार्शनिक स्थलों  का शोधात्मक अध्ययन...
ऐतिहासिक नगर सवाईमाधोपुर  के दार्शनिक स्थलों  का शोधात्मक अध्ययन

लेखक- डॉ0 धीरेन्द्र सिंह जादौन


ऐतिहासिक नगर सवाईमाधोपुर  के दार्शनिक स्थलों  का शोधात्मक अध्ययन... 

सवाईमाधोपुर शहर- ई. 1765 में जब माधोसिंह ने शेरपुर की प्राचीर बनवाई तब उसका नाम बदलकर सवाई माधोपुर रख दिया। इस नगर चारों ओर एक परकोटा बना हुआ था जिसका कुछ हिस्सा पहाड़ियों से निर्मित था।भैंरो दर्रा नामक द्वार नगर का प्रमुख प्रवेश द्वार था।इस नगर की योजना जयपुर जैसी ही रखी गयी थी। अतः सड़कें या तो एक दूसरे के समानान्तर हैं और या फिर समकोण पर काटती हैं ।नगर में कई मन्दिर हैं ।प्राचीन मन्दिरों में हनुमान जी , गलता जी , गोपाल जी , काला-गोरा भैंरु , नृसिंग जी , जगदीश जी , श्री जी , गोविंद जी , तथा रघुनाथ जी के मन्दिर अधिक प्रसिद्ध हैं ।

रणथम्भोर दुर्ग- रणथम्भौर का दुर्ग भारत के सर्वाधिक मजबूत दुर्गों में से एक है जिसने शाकम्भरी के चाहमान साम्राज्य को शक्ति प्रदान करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान की। यह कहा जाता है कि इस दुर्ग का निर्माण महाराजा जयंत ने पांचवी शती ई में किया था। बारहवीं शती ई. में पृथ्वीराज चौहान के आने तक यहाँ यादवों (आधुनिक जादों राजपूत ) ने शासन किया। हम्मीर देव (सन् 1232- 1301ई.), रणथम्भौर का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था, जिसने कला एवं साहित्य को प्रश्रय दिया एवं सन् 1301 ई. में अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण का वीरतापूर्वक सामना किया। इसके बाद दुर्ग पर दिल्ली के सुल्तानों का अधिकार हो गया। बाद में यह राणा सांगा (1509-1527 ई.) तथा तत्पश्चात मुगलों के नियंत्रण में रहा । यह दुर्ग रणथम्भौर बाघ अभ्यारण्य के ठीक मध्य में स्थित है। रक्षा प्राचीर से सुदृढ़ इस दुर्ग में सात दरवाजे- नवलखा पोल, हथिया पोल, गणेश पोल, अंधेरी पोल, सतपोल, सूरजपोल एवं दिल्ली पोल हैं। दुर्ग के अंदर स्थित महत्वपूर्ण स्मारकों में- हम्मीर महल, रानी महल, हम्मीर बड़ी कचहरी, छोटी कचहरी, बादल महल, बत्तीस खंभा उत्तरी, झंवरा - भंवरा (अन्न- भंडार), मस्जिद एवं हिन्दू मंदिरों के अतिरिक्त एक दिगम्बर जैन तथा एक दरगाह स्थित है। यहाँ स्थित गणेश मंदिर पर्यटकों के सर्वाधिक आकर्षणका केन्द्र है। 

गणेश मन्दिर- ऐतिहासिक विश्व धरोहर में शामिल रणथम्भोर दुर्ग के भीतर बना हुआ है ।सम्पूर्ण राजस्थान  में  गणेश जी के  मन्दिर की  मान्यता प्रसिद्ध है ।मन्दिर के निमार्ण के बारे में अनेक किवदन्तियां हैं। परन्तु यह निर्विवाद है कि सन् 944 ई. में दुर्ग निर्माण से पहले इस मन्दिर का निर्माण किया गया था। चौहान राजाओं के काल से यहां "गणेश चौथ" का मेला समारोहपूर्वक भरता चला आ रहा हैं। ऐतिहासिक ग्रन्थों से प्राप्त जानकारी के अनुसार यहां हिन्दू सूर्यवंशी चौहान हम्मीर की रानी  रंगादेवी एवं पुत्री देवलदे प्रतिदिन आरती का थाल सजाकर उपासना करती थी। उनके समय से ही यहाँ प्रतिवर्ष गणेश चतुर्थी को मेला लगाया जाता था। उस समय विशेष साज-सज्जा और उत्सव आयोजित किए जाते थे। वह परम्परा आज भी अक्षुण्ण है। रणथम्भौर के गणेश त्रिनेत्री हैं और केवल मुख भाग ही प्रकट है, शेष प्रतिमा शिलाखण्ड में अदृश्य है। रणथम्भौर पर मुस्लिमों के हमले हुए और मुग़लों, खिलज़ी शासकों के अधीन भी यह दुर्ग रहा किन्तु अपनी चमत्कारिक शक्ति से यह देवालय सदियों से सुरक्षित रहा है और आज भी अपने गौरवशाली अतीत को छोटे से गर्भगृह में समेटे जन-जन की विशाल आस्था का वंदनीय स्थल बना हुआ है।

गलता जी- सवाई माधोपुर की गलता का निर्माण जयपुर के नरेश सवाई माधोसिंह प्रथम के समय जयपुर की गलता के तत्कालीन आचार्य श्रियाचार्य जी ने किया। कहते हैं कि जब  सवाई माधोसिंह ने जब सवाई माधोपुर नामक शहर बसाया तो उनकी यह प्रबल इच्छा थी कि जयपुर की गलता की तरह एक और पवित्र 'गलता' इस नये शहर में भी बनाई जाए। इस स्थल की व्यवस्था श्रियाचार्य की देख रेख में ही रखी गई। पवित्र गलता निर्माण के लिये गलता जयपुर के आचार्य को सवाई माधोपुर में पर्याप्त भूमि दी गई। इसके लिये स्थल रणथम्भोर किले के पास वाला पहाड़ी क्षेत्र चुना गया। वहां मंदिर, बाग, कुंआ और जयपुर की गलता की तरह रघुनाथ गढ़ का भी निर्माण किया गया। यहां की प्रमुख मूर्तियों में ठकुरानी की प्रतिमा मुख्य है।

सवाई माधोपुर में बसाई गई गलता का धार्मिक महत्व तो है ही साथ ही स्थापत्य कला के क्षेत्र में भी यह स्थल अपने आप में अनूठा माना जाता है। सवाई माधोपुर की गलता के बारे में जयपुर रियासत के समय दो सरकारी हुक्मनामे जारी किये गये। इनमें एक सवाई माधोसिंह ने किया। दूसरा सवाई प्रतापसिंह के समय हुआ। इन दोनों पट्टों में उक्त स्थल के बारे में पर्याप्त जानकारी दी गई है। श्रीयाचार्य ने सवाई माधोपुर में रामकुंवरजी का वृहद मंदिर बनवाया तथा ठाकुर जी की प्रतिष्ठा करवाई। यह गलता जयपुर के आचार्य के प्रबंध व देखरेख में है। काला गोरा भैरव मंदिर

काला गौरा भैरव मन्दिर- काला गौरा भैरव, अरावली व विंध्याचल पर्वत शृंखलाओं की तलहटी में कलात्मक ढंग से बने विशाल नौ मंजिले मंदिर में स्थापित हैं। यह मंदिर राज्य में ही नहीं बल्कि देश में अपना विशेष महत्व रखता है। सवाई माधोपुर शहर के मुख्य प्रवेश द्वार पर स्थापित काला गोरा भैंरूंजी की मान्यता से यहां बड़ी संख्या में लोग दर्शनार्थ आते हैं। मंदिर का एक अन्य आकर्षण, जो इसे देश के गिने-चुने मंदिरों की गिनती में ले जाता है, वह यहां की तांत्रिक विद्या पर आधारित मूर्तिकला है। इस मंदिर में भैरव की दो प्रतिमाएं हैं जिनमें एक प्रतिमा काला भैरव की व दूसरी गोरा भैरव की है। इसी कारण इस मंदिर का नाम 'कालागोरा' भैरूजी हैं। दो द्वारों पर चार हाथियों को देखकर राह चलते व्यक्ति का ध्यान अनायास ही इस मंदिर की ओर आकर्षित हो जाता है। इस मंदिर की सीढ़ियों पर चढ़ते समय एक विशाल गणेश प्रतिमा है। यह गणेश प्रतिमा आमतौर पर दिखाई देने वाली सामान्य प्रतिमाओं से अलग बनी हुई है। इस मूर्ति को बहुत ही उग्र रूप में किसी राक्षस पर बैठे हुए दिखाया गया है। लम्बाई, चौड़ाई व मोटाई में अलग ही दिखाई देने वाली इस गणेश प्रतिमा को तांत्रिक नियमों के अनुसार बनाया गया है। मंदिर में एक तरफ पत्थरों पर कलात्मक ढंग से खुदाई करके यज्ञ मण्डप बनाए हुए हैं, दूसरी तरफ भगवान जगन्नाथ, बलभद्र व सुभद्रा को दिखाया गया है ।पत्थर के एक लम्बे पैनल पर सप्त मातृकाएं भी बनी हुई हैं। इन्हें की भाषा में सात बहिनें कहते हैं। शास्त्रों में इनके नाम श्री, लक्ष्मी, धृती, मेधा, प्रज्ञा, पुष्टि व सरस्व बताए गए हैं। यहां नवदुर्गाओं को भी दिखाया गया है जो अपने-अपने वाहनों पर सवार इसी प्रकार एक जलहरी में आठ व दूसरी में ग्यारह शिवलिंग बने हुए हैं, ये एकादश रुद्र के न से जाने जाते हैं। शास्त्रों में भैरव को क्षेत्रपाल के नाम से जाना जाता है। क्षेत्रपाल नामावली भैरव को 50 विभिन्न नामों से उल्लेखित किया गया है। प्रचलितनामों में भैरव को क्षेत्रपाल भैंरुजी तथा वटुक भैंरुजी कहा जाता है।

गोपाल जी का मंदिर-  नगर प्रवेश के बाद काला गौरा भैरों जी के थोड़ा सा आगे गोपाल जी का कलात्मक मंदिर है। मंदिर में भगवान के विग्रह के आगे चौक में एक बहुत बड़ा कुण्ड है, जो कभी पहाड़ी जल से लबालब भरा होता था पर अब सूखा है। मंदिर का भव्य निर्माण रियासत के समय का है।धार्मिक भाव के साथ ही पहाड़ी की तलहटी में एक बड़े नाले के किनारे विद्यमान यह मन्दिर एक सुन्दर पर्यटन स्थान भी है ।सड़क मार्ग से मन्दिर तक एक नाला पार करके जाना पड़ता है।वर्तमान समय में आस्था का  केन्द्र यह भव्य एवं कलात्मक मन्दिर कुछ उपेक्षित स्थित में है। आस्था के साथ -साथ यह एक प्राचीन धरोहर भी है इस लिए यहां विकास किया जाना आवश्यक है ।

रंगजी मन्दिर- सवाईमाधोपुर नगर के बीच स्थित मुख्य बाजार में दक्षिण शैली की श्री रंगजी की मूर्ति है जो देखने में बहुत आकर्षक है जो अपने भक्तों के मन को मोह लेती है।

अमरेश्वर- रणथम्भोर दुर्ग की ओर जाने वाले मार्ग पर लगभग 7 किमी. की दूरी पर दाहिनी ओर दो पर्वतों के बीच 40 फीट की ऊँचाई से गिरते झरने का जल नीचे तलाई में इकट्ठा होता है, फिर तलाई से सहस्त्र धाराओं में विभाजित हो कर इस प्रकार बहता है मानो शिवशंकर की जटा से बह कर निकलने को सुरसरि मचल उठी हो, पर्वतों की अपार श्रृंखलाऐं, हरित परिधान में सजी प्रकृति के इस रूप को देख कर मन ठगा सा रह जाता है। यहाँ एक बड़ी चट्टान के नीचे शिवलिंग स्थापित है, जिसका चट्टानों से रिसते जल से वर्ष पर्यन्त अभिषेक होता रहता है। पर्यटकों के लिए यह एक अच्छा व रमणीय स्थान है। पास ही आकर्षक राम-जानकी धाम है।

शोलेश्वर- प्राचीनकाल से ही यह स्थान अत्यन्त महिमा मण्डित रहा है। कहा जाता है कि हम्मीर की पुत्री पदमला नित्य प्रति इनकी पूजा-अर्चना करती थी। यह स्थान दुर्ग के दक्षिण में लगभग 5 कि.मी. की दूरी पर दुर्गम घाटियों में स्थित है। शहर से भी खण्डार रोड़ व जीरावजी की बावड़ी होकर पैदल मार्ग से भी जाया जा सकता है। जिसकी दूरी लगभग 10 कि.मी. है।

केलेश्वरसवाईमाधोपुर नगर के दक्षिण-पश्चिम में लगभग 4 किमी. की दूरी पर भूतल से 200 मीटर की ऊँचाई पर स्थित केलेश्वर महादेव की एक दम सीधी सीढ़ियाँ हैं। प्रकृति की नैसर्गिक छटा से परिपूर्ण यहाँ गौमुख से निरन्तर एक कुण्ड में पानी गिरता रहता है। वर्षा ऋतु पिकनिक के लिए उत्तम स्थान है। 

गोरेश्वर- दुर्ग के पहले मोड़ अथवा शहर स्थित रखवासजी के बाग से पहाड़ी चढ़ाई को पार करके इस  रमणीक स्थान तक पहुँचा जा सकता है। पर्वतीय गुफा में एक शिव मन्दिर स्थापित है जिनके दर्शन किये जा सकते हैं।प्राकृतिक दृश्य का एक अनुपम स्थान है। यहां पर  वर्षाकाल में मनमोहक गिरते हुए झरनों व बहते हुए पानी का भरपूर आनन्द उठाया जा सकता है।इसके पास ही एक पहाडी में बर्रे की खान थी ।यही से ढाई पगदे कि बाबड़ी जिसमें हमेशा पानी भरा रहता है होते हुए आलनपुर की शाही जमाने के मकबरों को भी देखा जा सकता है।
पहाड़ी परकोटे के बराबर 2 पुरानी छतरियाँ जिसमे छतरी में छतरी बनी हुई है देखने योग्य है।

भूतेश्वर- वर्तमान सर्किट हाउस के पीछे स्थित भूतेश्वर तन्त्र-विधि के शिवोपासकों का प्रमुख केन्द्र रहा है। इसके प्राचीन रूप को समाप्त कर, नया रूप दे दिया गया है। आवासीय कॉलोनी के पास होने के कारण यहाँ अधिक लोगों का आवागमन होता है।

कुँवलेश्वर (कपिलेश्वर)- कँवलेश्वर सवाईमाधोपुर की सीमा पर स्थित मध्यकालीन तीर्थ है। नागरशैली के ऊँचे शिखर वाले मंदिर का निर्माण इतिहास प्रसिद्ध हम्मीर के पिता जैत्रसिंह ने अपने राज्यकाल में चाखन नदी के तट पर करवाया था। समीप के जलाशय में लगे शिलालेख से पुष्टि होती है वि. स. 1345 में चक्रातटिनी {चाखन) में ऐसे अनेक मन्दिरों की स्थापना की गई थी। जिसके अवशेष चारों ओर फैले पड़े हैं। शिखर के ऊपरी भाग में नटराज के अतिरिक्त अनेक देवी-देवताओं की नृत्यरत प्रतिमायें दर्शनीय हैं, जबकि गर्भगृह में शिवलिंग स्थित है। मंदिर के पीछे वाले भाग में सिद्ध आचार्यों की योग साधना में लीन प्रतिमायें हैं, जो तेरहवीं शताब्दी की योगिक क्रियाओं को दर्शाती हैं। शिल्प विधान का इससे उत्कृष्ट उदाहरण दूसरा नहीं है।इन्दरगढ़ से इसकी दूरी 7 किमी. है। जबकी फलौदी मार्ग से बस द्वारा यहाँ पहुँचा जा सकता है। यहाँ कुण्डों में स्नान करने से कुष्ठ एवं चर्म रोगों से मुक्ति मिलती है। 

झोझेश्वर- सवाईमाधोपुर से 20 किमी. दूर फलौदी मार्ग पर खनन क्षेत्र को पार कर इस स्थान तक पहुँचा जा सकता है। वर्षा ऋतु में लगभग 70 फीट की ऊँचाई से अनेकों झरनों के गिरने का दृश्य अत्यंत मनोरम होता है। जिसका पानी एक बड़े ताल में इकट्ठा होता है। वर्ष भर लोगों के आने-जाने का तांता लगा रहता है। 

घुश्मेश्वर- शिवपुराण एवं कोटि रूंद्र संहिता  में वर्णित द्वादश घुमेश्वर ज्योर्तिलिंग सवाईमाधोपुर जयपुर मुख्य रेल्वे लाइन पर ईसरदा स्टेशन पश्चिम में किमी. की दूरी पर शिवाड़ नामक ग्राम में स्थित  है ।यह ज्योर्तिलिंग जल-हरी डूबा रहता है। ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर वि.सं. 1081 में महमूद गजनवी जब सोमनाथ पर आक्रमण था, तब इसे भी नष्ट करने प्रयास किया था।द्वादश ज्योतिर्लिंग रूप में प्रतिष्ठित हो जाने के कारण भव्य मन्दिर का निर्माण करवाया जा चुका है, जहाँ  शिवरात्रि के अवसर एक बड़ा मेला लगता है। इस ग्राम के देवगिरी पर्वतमाला पर स्थित शिवाड़ के राजावत ठिकाने का गढ़ है जिसमे उनका परिवार निवास करता था।

खण्डार का तारागढ़ दुर्ग- सवाईमाधोपुर से लगभग 40 किलोमीटर पूर्व दिशा में स्थित खण्डार दुर्ग का रियर के द्वारा ईसा की आठवीं  अथवा नौ वीं शताब्दी में करवाया अनुमानित है। यह एपबंधीर दुर्ग का सहा दुर्गा रणथंभौर का दुर्ग यहाँ से Is किलोमीटर दूर स्थित है। जब जन्म मयंभीर दुर्ग का हस्तांतरण हुआ, खण्डारदुर्ग भी उसके साथ हो रहा।

खडारदुर्ग भरावली की पहाड़ियों एवं समन जंगलों के बीच एक बड़ी चट्टान पर बना हुआ है। समुद्रतल से इसकी ऊंचाई लगभग 500 मीटर तथा निकटवर्ती भूतल से लगभग 260 मीटर है। इसके पूर्व में बनास एवं पश्चिम में गालण्डी नदी बहती है। त्रिभुजाकार आकृति में बने इस दुर्ग के चारों ओर मजबूत परकोटा बना हुआ जिसकी बनावट भामरे की तरह रखी गई है ताकि शत्रु इस पर आसानी से नहीं चढ़ सके। इस तरह के परकोटों को कमरकोट कहा जाता है। दुर्ग का निचला भाग ढलान लिये हुए है। एक पहाड़ी एवं मुमानदार मार्ग दुर्ग के मुख्य द्वार तक जाता है। दुर्ग के अंदर पहुंचने के लिये तीन द्वार पार करने पड़ते हैं। इन पर विशाल एवं सुदृढ़ दरवाजे लगे हुए हैं। मुख्य प्रवेश द्वार में प्रवेश करने के बाद मार्ग दाहिनी ओर मुड़ता है जहाँ सैन्य चौकियां दिखाई देती है। यहीं पर सैनिकों के आवास भी बने हुए हैं। आगे चलने पर एक जैन मंदिर दिखाई देता है जिसमें भगवान पारनाथ की मनुष्याकार खड़ी पुतिमा एवं अन्य तीर्थंकरों की प्रतिमाएं बनी हुई हैं। दीवार पर वि. सं. 1741 का एक लेख उत्कीण है।
यहाँ से आगे चलने पर एक हिन्दू मंदिर दिखाई देता है जिसकी विशाल प्रतिमा लगी हुई है। हनुमानजी के पैरों में एक असुर पड़ा हुआ है।अष्ट धातु से निर्मित बताई जाती है जिसकी मारक क्षमता काफी दूर तक थी । किले की एक बुर्ज को बंदीगृह के रूप में प्रयुक्त किया जाता था।

ई. 1301 में जिस समय अल्लाउद्दीन खिलजी ने रणथंभौर दुर्ग पर आक्रमण किया था, उस समय यह दुर्ग रणथंभौर के चौहान शासक हमीर के अधीन था । हम्मीरायण में, हम्मीर के अधीन स्थानों की सूची दी गई है। उसे खण्डाआ (खण्डार) सहित समस्त जादौनवाटी प्रदेश का अधिपति बताया गया है। रणथंभौर पर खिलजियों का अधिकार होने के साथ ही खण्डार दुर्ग भी खिलजियों के अधीन चला गया। खिलजियों के बाद इस दुर्ग पर तुगलकों का अधिकार रहा। सोलहवीं शताब्दी में जब मेवाड़ में महाराणा सांगा का उदय हुआ तब यह दुर्ग मेवाड़ के गुहिलों के अधीन हो गया। उन्होंने इस दुर्ग में अनेक निर्माण कार्य करवाये । राणा सांगा ने रणथंभौर दुर्ग के साथ ही खण्डार दुर्ग भी अपनी हाड़ी रानी कर्मवती के पुत्र विक्रमसिंह तथा उदयसिंह को दिया था।
सांगा की मृत्यु के बाद ई. 1533 में गुजरात के शासक बहादुरशाह ने खण्डार दुर्ग पर अधिकार कर लिया। ई.1542 में जब शेरशाह सूरी ने मालवा अभियान किया तब उसने खण्डार दुर्ग पर भी विजय प्राप्त की। ई.1569 में जब अकबर ने रणथंभौर पर अभियान किया तब सुरजन हाड़ा ने रणथंभौर दर्ग के साथ-साथ खण्डार दुर्ग भी अकबर को समर्पित कर दिया। जब मुगलिया सल्तनत पतन को प्राप्त होने लगी, तब खण्डार का दुर्ग जयपुर के कच्छवाहा राजाओं के अधीन आ गया। महाराजा सवाईमाधोसिंह (प्रथम) ने पचेवर के सामंत अनूपसिंह खंगारोत को खण्डार दुर्ग का किलेदार नियुक्त किया था। कुछ समय बाद मराठों ने रणथंभौर दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इस अनूपसिंह खंगारोत ने जनकोजी सिंधिया पर आक्रमण करके रणथंभौर दुर्ग छीन लिया तथा रणथंभौर दुर्ग को जयपुर नरेश के सुपुर्द कर दिया। इस पर महाराजा सामग्रीमंत ने अनूपसिंह को ही रणथंभौर दुर्ग का भी दुर्गपति बना दिया। जयपुर राज्य के राजस्थान में विलय होने तक खण्डार दुर्ग तथा रणथंभौर दुर्ग उनके अधिकार में रहे।

रामेश्वरम् घाट- खण्डार तहसील में चम्बल, बनास एवं सीप नदी के संगम पर श्री रामेश्वरम् का प्रसिद्ध मन्दिर है। यहां प्रतिवर्ष मेला भरता है और पंचायत समिति द्वारा इसका आयोजन किया जाता है। इस मेले की विशेषता यह है कि इसमें मध्यप्रदेश के यात्री बहुत बड़ी संख्या में आते हैं। मेला मध्यप्रदेश की सीमा में भरता है तो दर्शन राजस्थान की सीमा में होते हैं। मेले की व्यवस्था अपने-अपने क्षेत्र में दोनों ही प्रदेश की पंचायतें करती हैं। 
रामेश्वर घाट सवाई माधोपुर से 50 किलोमीटर दूर चम्बल बनास व सीप नदी के संगम पर स्थित है। यह अपनी प्राकृतिक सुन्दरता तथा वन्य जीवन के कारण पर्यटकों की एक बड़ी संख्या को आकर्षित करता है। यह खण्डार विधान सभा क्षेत्र में स्थित है यहाँ त्रिवेणी संगम के साथ भगवान चतुर्भुज नाथ का अत्यन्त प्राचीन व विशाल मन्दिर स्थित है। इसमें भगवान विष्णु के साथ जगदीश जी तथा माता लक्ष्मी की वृहद आकर्षक प्रतिमाएँ विराजमान हैं। इस मन्दिर में कई वर्षों से देशी घी की अखण्ड ज्योति प्रज्जवलित है तथा पिछले तीस वर्षों से निरन्तर अखण्ड कीर्तन दिन-रात चल रहा है जिसमें आस पास के 48 गाँव वालों ने स्वयं कीर्तन की अपनी क्रमवार ड्यूटी लगा रखी है। इस मन्दिर में मूर्ति की स्थापना तिथी नन्दानी संवत् 016 सुदी है। यह लगभग 3000 वर्ष पुरानी है। रामेश्वर घाट पर चम्बल नदी में मगरमच्छ व घड़ियालों की तादाद बहुत अधिक है। मगरमच्छ यहाँ धूप सेकते नजर आ जाते हैं। यह चम्बल घड़ियाल परियोजना के अर्न्तगत आता है।

सीतामाता का मन्दिर- सवाईमाधोपुर  से लगभग 8 किलोमीटर दूर वर्तमान सामान्य चिकित्सालय के पीछे पक्के मार्ग से पहुँचा जाता है। ऊंची पहाड़ी पर सीढ़ियाँ चढ़कर बांई ओर एक गहरा प्राकृतिक कुण्ड है, जिसमें ऊपर पहाड़ियों से तेज झरना गिरता है। तैराक व सैलानीलोग इसमें स्नान का आनन्द लेते हैं, किन्तु यदाकदा कुंड की चट्टानों से टकराकर चोटग्रस्त भी हो जाते हैं। दांई ओर एक पक्का कुंड है, जिसमें ऊपर पहाड़ियों से पानी आता है। इसमें भी लोग तैरने व स्नान का आनन्द लेते हैं। ऊपर सीढ़ियाँ चढ़कर सीताराम जी का मन्दिर है। भूतल झरना व दांई ओर रसोई बनाने का स्थान व एक बड़ा सभागार है। वर्षा ऋतु में प्राय: यहाँ श्रृद्धालु जन एवं सैलानी समूहों में सपरिवार दाल-बाटी-चूरमा की गोठ करने आते हैं। यहाँ बंदरों का बड़ा आतंक है। सीताराम मंदिर यहाँ होने से रामकथा में वर्णित रूद्रजटा शिखिर से श्रीराम के लंका पर आक्रमण के पूर्व अभ्यास किये जाने वाले शिखिर का रणथम्भौर की तलहटी में होने का संकेत मिलता है।

आम खोर्रा- रणथम्भौर बाघ परियोजना से सटे नीमली गांव के मार्ग पर वायीं ओर जंगल में यह प्राकृतिक सुन्दर रमणीक स्थान है। यहां पर वर्षा ऋतु में पहाडों से सुन्दर प्राकृतिक झरना एक कुण्ड में गिरता है। यहां एक शिवलिंग भी है। यहां तक पहुंचने के लिए जंगल में से होकर जाना पड़ता है। बारिश के दिनों में यह स्थान बहुत की आकर्षक हो जाता है। और बड़ी संख्या में सैलानी पिकनिक मनाने के लिए यहां पहुंचते हैं। 

गोपाल जी का मंदिर- नगर प्रवेश के बाद काला गौरा भैरों जी के थोड़ा सा आगे गोपाल जी का कलात्मक मंदिर है। मंदिर में भगवान के विग्रह के आगे चौक में एक बहुत बड़ा कुण्ड है, जो कभी पहाड़ी जल से लबालब भरा होता था पर अब सूखा है। मंदिर का भव्य निर्माण रियासत के समय का है।धार्मिक भाव के साथ ही पहाड़ी की तलहटी में एक बड़े नाले के किनारे विद्यमान यह मन्दिर एक सुन्दर पर्यटन स्थान भी है ।सड़क मार्ग से मन्दिर तक एक नाला पार करके जाना पड़ता है।वर्तमान समय में आस्था का  केन्द्र यह भव्य एवं कलात्मक मन्दिर कुछ उपेक्षित स्थित में है। आस्था के साथ -साथ यह एक प्राचीन धरोहर भी है इस लिए यहां विकास किया जाना आवश्यक है ।

चमत्कारजी मन्दिर- सवाई माधोपुर में आलनपुर ग्राम के प्रवेश पर ही चमत्कारजी का मन्दिर बना हुआ है। यहां स्फटिक पाषाण की बनी भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा है और प्रतिवर्ष शरद की पूर्णिमा को सड़क के किनारे ही मेला भरता है। इसे चबूतरे का मेला कहते हैं और प्रतिमा को चबूतरे पर मन्दिर के बाहर लाकर एक दिन के लिये प्रतिष्ठित किया जाता है। वैसे मन्दिर का वार्षिक मेला भगवान ऋषभदेव के जन्म दिवस के उपलक्ष में चैत्र बुदी 9 को भरता है। चमत्कारिक भगवान ऋषभदेव की यह मूर्ति एक नाथ जाति के व्यक्ति को अपने खेत में प्राप्त हुई थी और तब से ही इस स्थान को चमत्कारजी के नाम से प्रसिद्धि मिल गई

चौथ माता का मन्दिर- संवत् 1451 में माता ने चौहान राजा भीम सिंह को स्वप्न में दर्शन दिए और चमत्कार दिखाया। तब भीम सिंह ने डूंगर पर आदिशक्ति चौथ माता का मंदिर बनवाया। सवाई माधोपुर से लगभग 15 किलोमीटर दूर चौथ का बरवाड़ा ग्राम में पहाड़ी पर स्थित चौथ माता का मन्दिर काफी प्रसिद्धि लिये हुये हैं और दूर-दूर से हजारों भक्त गण अपनी मनोतियाँ मनाने के लिये आते रहते हैं। चौथ माता के प्रति सब जातियों की आस्था है। वे नारेडा और बरवाल गोत्र के मीणा समाज की भी अधिष्ठात्री देवी है। माघ मास की कृष्णा चतुर्थी पर चौथ माता का मेला भरता है।

बौंली दुर्ग- निवाई से 20 किलोमीटर पूर्व में स्थित बॉली दुर्ग मूलत: रणथंभौर के चौहानों ने 12वीं शताब्दी ईस्वी में बनवाया था। यह दुर्ग बौली कस्बे के पश्चिम की तरफ स्थित एक पहाड़ी पर बना हुआ है। दुर्ग काफी बड़ा है। दुर्ग के निर्माण का समय, दुर्ग की एक दीवार पर अंकित शिलालेख से पता चलता है। दुर्ग के चारों और का पहाड़ी भाग जंगलों से घिरा हुआ है। किले का पहला द्वार पूर्व दिशा में बना हुआ है, तथा मध्यम आकार का है। इस द्वार में प्रवेश करके आगे बढ़ने पर दो कचहरियां एवं रानियों के महल आते हैं। अब ये निर्माण काफी जर्जर अवस्था में हैं। इनके निकट एक बड़ी तोप रखी हुई है। जब बौंली दुर्ग पर जयपुर राज्य का अधिकार हुआ तब उत्तर दिशा में एक नया द्वार बनवाया गया तथा दुर्ग के आकार में पर्याप्त वृद्धि गई। 

हाथी भाटा-  टोंक से लगभग 20-30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित सवाई माधोपुर राजमार्ग पर हाथी भाटा स्थित है। एक ही पत्थर से निर्मित यह शानदार जीवन आकार का पत्थर का हाथी है। इस स्मारक में एक शिलालेख है जो राजा नल और दमयंती की कहानी को बताता है। इसे भी पर्यटन व पिकनिक स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता है।

सवाई सिंह स्मारक- सवाईमाधोपुर से 30 किमी0 दूर मामडोली गांव में एक स्मारक स्थित है। इसे सवाईसिंह का स्मारक कहते हैं। इतिहासकारों का कहना है कि मुगल काल में युद्ध में शहीद हुए एक सैनिक सवाई सिंह की याद  में इसे बनवाया गया था। पूर्व में यहां एक फकीर रहता था। 

बरवाडादुर्ग- संभवतः बरवाडा दुर्ग का निर्माण 14 वीं शताब्दी में चौहान शासकों के द्वारा ही करवाया गया होगा ।अलाउद्दीन खिलजी के रणथम्भोर दुर्ग पर आक्रमण करने से पहले इस  सम्पूर्ण क्षेत्र पर रणथम्भोर के चौहान हम्मीरदेव का ही आधिपत्य था। संभवतः हमीर का ही कोई सामन्त यहां निवास करता होगा।क्षेत्रीय किवदंतियों के अनुसार सबसे पहले किले में चौहान वंश के शासन काल के दौरान खरबूजा महल का निर्माण कार्य करवाया गया था। इसके बाद चौहान वंश के ही हाड़ा शासक के शासन काल में जनाना महल के निर्माण कार्य करवाया गया। जनाना महल में रानी के अलावा कोई नहीं रहता था। वही महल में रानी के अलावा किसी को जाने की इजाजत थी। इसके बाद के लिए में राठौड़ वंश के शासन में मर्दाना महल का निर्माण कार्य करवाया गया था। उल्लेखनीय है कि अभी तक जनाना महल का कार्य अधूरा है। 

सूरवाल झील- इस झील में वर्षभर पानी भरा रहता है।यहां पर विदेशी पक्षियों का आवागमन रहता है जो पर्यटकों को आकर्षित करते हैं ।रणथम्भौर दुर्ग एवं  जिला मुख्यालय से करीब 12 किमी दूरी पर स्थित सूरवाल गांव के पास सूरवाल झील व डेम भी पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र है। सर्दी के मौसम में यहां विदेशी पक्षी आते है। यहां पर सर्दी के दौरान गल, ओस्प्रे, फिलेंमिंगो पेनीकन, रेपटर आदि कई प्रकार विदेशी पक्षीयों का आवगमन रहता है।

श्री अरनेश्वर महादेव मन्दिर भगवतगढ़ सवाईमाधोपुर 
  • शिव कुंड का इतिहास एवं मान्यता

श्री अरणेश्वर महादेव मंदिर शिव कुंड धाम भगवतगढ़ ग्राम से करीब एक किलोमीटर की दूरी पर दक्षिण पश्चिम दिशा में अरावली एवं विंध्याचल पर्वत श्रृंखलाओं के मिलन स्थल पर पहाड़ियों की तलहटी में स्थित एक सुरम्य स्थल है। पंडित श्री पति शर्मा के अनुसार श्रीमद् भागवत गीता के छठवें स्कंध के चौथे अध्याय में इस स्थान के महत्व एवं मान्यताओं के बारे में वर्णन किया गया है। इसके बारे में बताया जाता है कि जब रणथंबोर पर राजा हम्मीर का राज्य था। उस दौरान रणथंबोर के पश्चिम दिशा में करीब 20-25 किलोमीटर की दूरी पर घना जंगल था। जिसे अरण्य वन के नाम से जाना जाता था। एक दिन राजा हम्मीर जंगल में आखेट के लिए घूम रहे थे। उसी दौरान इस घने जंगल में राजा को इस प्राकृतिक शिवलिंग के दर्शन हुए। राजा ने शिवलिंग के समीप ही बैठकर शिव की आराधना की। आराधना के बाद भगवान भोलेनाथ के आशीर्वाद से राजा के मन में खुले में स्थित शिवलिंग के ऊपर मंदिर निर्माण की प्रेरणा जागृत हुई। राजा हम्मीर ने शिवलिंग के ऊपर एक छोटे से मंदिर का निर्माण कराया। कहा जाता है कि शिवलिंग विक्रम संवत 1300 से भी पूर्व का है। शिवलिंग के अरण्य वन में स्थित होने के कारण ही इसका नाम अरणेश्वर महादेव पड़ा। वर्तमान में यहां सात कुंड है, जिनमें अनवरत मां गंगा की धार बहती रहती है। महिला एवं पुरुषों के स्नान के लिए अलग-अलग कुंड बने हुए है। शिवकुंड धाम के आसपास करीब एक किलोमीटर की परिधि में हजारों कदंब के वृक्ष है। इसलिए इस धाम को लघु वृंदावन के नाम से भी जाना जाता है।

  • प्राकृतिक जलहरी में विराजित है शिवलिंग 

मंदिर के गर्भगृह में भोलेनाथ एक प्राकृतिक जलहरी में शिव पिंड के रूप में विराजित है। जलहरी में विराजित शिवलिंग की विशेषता यह है कि सूर्योदय के बाद जैसे-जैसे सूर्य का ताप बढ़ता जाता है, जलहरी का पानी भी अपने आप बढ़ता जाता है। इसी प्रकार जैसे-जैसे सूर्यास्त होता है, जलहरी का पानी अपने आप घटता चला जाता है। जलहरी में स्थित शिवलिंग के मध्य भाग में एक छोटा सा अर्द्ध चंद्राकार निशान है। यह निशान सूर्य की उत्तरायण एवं दक्षिणायन गति के अनुसार अपने स्थान से स्वतः  ही करीब एक। सेंटीमीटर घूम।जाता है ।जो भगवान भोलेनाथ का अनोखा चमत्कार है ।यहां जलहरी में विराजित शिवलिंग स्वयंभू है।

  • संत समाधियां करती है आकर्षित:- 

शिव कुंड धाम पर कालांतर में अनोखा चमत्कार है। यहां जलहरी में विराजित शिवलिंग स्वयंभू है। अनेक संतो ने कठिन तपस्या की थी। कठिन तपस्या के दौरान ही यहां अनेक संत जीवित समाधियां लेकर ब्रह्मलीन हो गए। जिनकी समाधियां आज भी शिव कुंड पर बनी हुई है। दूरदराज के क्षेत्रों एवं आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों से आने वाले श्रद्धालुओं के लिए ये समाधियां विशेष आकर्षण का केंद्र है। संतो की कठिन एवं असाधारण तपस्या के प्रभाव से शिव कुंड धाम पवित्रता एवं श्रद्धा के रूप में अपनी एक अलग पहचान है।

  • चतुर्दशी एवं अमावस्या स्नान का विशेष महत्व : 

यहां प्रति माह चतुर्दशी एवं अमावस्या पर दूरदराज एवं आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों से हजारों की संख्या में श्रद्धालु शिव कुंड में स्नान करने एवं भोलेनाथ के दर्शनार्थ आते हैं। कहा जाता है कि जो भी श्रद्धालु शुद्ध मनोभाव से भोलेनाथ के सामने अपनी मनोकामना रखता है, वह अवश्य पूर्ण होती है। यहां स्थित शिव कुंड में लगातार 21 चतुर्दशी अथवा अमावस्या स्नान करने पर हर प्रकार के चर्म रोगों से मुक्ति मिलती है। प्रत्येक चतुर्दशी एवं अमावस्या पर मेले जैसा माहौल रहता है। चतुर्दशी पर ट्रस्ट की ओर से श्रद्धालुओं के लिए निःशुल्क भंडारा लगाया जाता है।

उनके समय से ही यहाँ प्रतिवर्ष गणेश चतुर्थी को मेला लगाया जाता था। उस समय विशेष साज-सज्जा और उत्सव आयोजित किए जाते थे। वह परम्परा आज भी अक्षुण्ण है। रणथम्भौर के गणेश त्रिनेत्री हैं और केवल मुख भाग ही प्रकट है, शेष प्रतिमा शिलाखण्ड में अदृश्य है। रणथम्भौर पर मुस्लिमों के हमले हुए और मुग़लों, खिलज़ी शासकों के अधीन भी यह दुर्ग रहा किन्तु अपनी चमत्कारिक शक्ति से यह देवालय सदियों से सुरक्षित रहा है और आज भी अपने गौरवशाली अतीत को छोटे से गर्भगृह में समेटे जन-जन की विशाल आस्था का वंदनीय स्थल बना हुआ है।

  मध्यकालीन रणथम्भोर दुर्ग के  चौहान राजवंश  के शासक   

  • गोविंदराज तथा उसके उतराधिकारी - 

यद्धपि अजमेर  चौहानों  के  हाथ से निकल गया था  किन्तु चौहान राजस्थान में शक्तिशाली क्षत्रिय जाति बने रहे। हरीराज की मृत्यु के पश्चात  उसके अनुयायियों ने  अजमेर छोड़ दिया और पृथ्वीराज के निर्वासित पुत्र गोविन्दराज के पास चले गए जिसने रणथम्भोर में अपनी राजधानी बना ली थी।उसके बाद  दुर्लभ  उत्तराधिकारी हुए जिनके शासनकाल में कोई महत्वपूर्ण घटना नहीं हुई। गोविन्दराज के पुत्र बल्हण ने कुछ समय तक इल्तुतमिश के सामन्त की भांति शासन किया।उसके भाई प्रहलाद ने शासन की परवाह नहीं की और शिकार में व्यस्त रहा।उसकी मृत्यु के बाद वीरनारायण (प्रहलाद का पुत्र ) तथा वाग्भट्ट (प्रहलाद का भाई ) के बीच स्वाभाविक ईर्ष्या और संघर्ष ने राज्य में अव्यवस्था फैला दी।जब इल्तुतमिश को इसकी सूचना मिली तो उसने वीरनारायण की धोखे से उसकी हत्या करवा दी। उसकी हत्या के तुरंत पश्चात सुल्तान ने वाग्भट्ट के विरुद्ध अपना एक सेनानी भेजा । सैनानी ने  दुर्ग पर आक्रमण किया और उस पर अधिकार कर वाग्भट्ट को  1236 में मार डाला । गद्यपि बागभट्ट के उत्तराधिकारी जैत्रसिंह ने रणथम्भोर पर अधिकार कर लिया किन्तु  निकटवर्ती प्रदेश उसके अधीन न हो सका। शेष राज्य की तुर्कों  के अतिक्रमण से रक्षा में असफल होकर उसने अंत में अपने होनहार पुत्र हमीर के पक्ष  में 1283 में सिहासन छोड़ दिया और जंगल में संन्यास ग्रहण कर लिया।

  • हठीले हमीरदेव चौहान (1283-1301)-

जैत्रसिंह का पुत्र हमीरदेव रणथम्भोर का महानतम शासक था। 1283 और 1289 के बीच उसका राज्यारोहण हुआ। अपने पूर्वज पृथ्वीराज की भांति उसने अनेक अभियानों द्वारा अपनी प्रमुखता स्थापित की। उसके शासनकाल के आरंभ में सरसपुरा के राजा अर्जुन को उसका सामना करना पड़ा। अर्जुन पराजित हुआ और उसे अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। कहते हैं कि हमीर ने गढ़मंडला , धार के राजा भोज, मेवाड़ के राणा तथा आबू पर्वत के शासक पर भी विजय प्राप्त की। किंतु उसकी सफलता के दावे के समर्थन में हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है। स्थानीय अभिलेखों से हम इतना ही जान सकते हैं कि हमीर ने पड़ोसी सरदारों से प्रचुर खराज तथा भेंट प्राप्त की और मालवा तथा मेवाड़ के शासकों ने उसे एक वीर योद्धा के रूप में मान्यता दी।

उसके शासनकाल में दिल्ली में भी संघर्ष आरंभ हुआ।  जलालुद्दीन फीरोज खल्जी (1290-96) ने रणथंभोर के अवरोध की योजना बनाई किंतु जनहानि के भय से यह विचार त्याग दिया।

इस विजय से हमीर की स्थाति बढ़ गई और कुछ नव मुस्लिम अर्थात मंगोल अधिकारी, जिन्होंने गुजरात अभियान से लौटते समय 1299 में दिल्ली सेना के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था, हमीर के पास शरण लेने भाग कर आए। सुल्तान के भाई उलूग खां ने एक अच्छे पड़ोसी होने के नाते मांग की  कि वह भगोड़ों को समर्पित कर दे। यद्यपि हमीर के परामर्शदाताओं ने उसे सलाह दी कि वह विदेशी भगोड़ों के कारण अपना साम्राज्य खतरे में न डाले क्योंकि उनका उस पर कोई नैतिक अधिकार नहीं था, उसने शरणार्थियों के समर्पण से इन्कार कर दिया और सुल्तान ने उलुग खां तथा नुसरत खा को रणथंभोर के विरुद्ध कूच का आदेश दे दिया।

हमीर के राज्य से भागे हुए भोज तथा पीतम नामक दो राजपूतों ने भी सुल्तान को हमीर के विरुद्ध भड़काया। रणथंभोर के अवरोध और पतन का कारण बने।  किंतु यह ध्यान में रखना चाहिए कि सुल्तान को स्वयं रणथम्भोर दुर्ग की ओर जाना पड़ा और अवरोध का व्यक्तिगत निर्देशन करना पड़ा और यह भी कि जब वह दिल्ली में नहीं था तो तीन विद्रोह हुए और दुर्ग पर विजय 1301 के भयंकर गर्मी के मौसम में "पाशेव " बनाकर ही संभव हुआ। राजपूत महिलाओं द्वारा सती होने की रस्म 'जौहर' संपन्न होने के पश्चात हमीर तथा उसके सैनिक जिनकी खाद्य वस्तुएं तथा अन्य सामग्री भी समाप्त हो चुकी  थी 'पाशेव 'के सिरे पर लड़ते हुए मारे गए। हमीर के साधनों का अनुमान लगाना कठिन है किंतु रणथंभोर की विजय के लिए दिल्ली साम्राज्य के चुने हुए योद्धा तथा समस्त साधन उसके अत्यंत योग्य शासक के नेतृत्व में प्रयुक्त हुए। रणथम्भोर के सामने जलालुद्दीन खल्जी की असफलता देखते हुए अलाउद्दीन के पास हठ पूर्वक घेरा डालने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं था। फिर भी  हमीर के परामर्शदाता सही थे। अपने राजवंश तथा प्रजा के हितों की परवाह न करते हुए उसे दिल्ली को चुनौती देने का कोई अधिकार नहीं था ।

हमीर की मृत्यु से चौहानों की रणथंभोर शाखा का गौरव भी समाप्त हो गया। राजस्थान के इतिहास में हमीर का स्मरण युद्ध में अपनी वीरता के लिए ही नहीं बल्कि अन्य संप्रदायों के प्रति सहिष्णुता के लिए भी किया जाता है। जब वह उज्जैन गया तो उसने महाकाल की उपासना की और पुश्कर में निवास के समय उसने आदिवर्ष की पूजा की। आबू में उसने ऋषभदेव तथा अचलेश्वर दोनों की पूजा की उसने कोटियज्ञ नामक बलिप्रदान का अनुष्ठान किया जिसमें समस्त देश के ब्राह्मण आमंत्रित किए गए। समारोह एक मास तक 'मुनिव्रत' अर्थात एक मास तक संन्यासी का जीवन व्यतीत करने के पश्चात समाप्त हुआ । 

संदर्भ-

  1. तारीख ए किला रणथम्भोर ,लेखक हीरानन्द कायस्थ ।
  2. हमीर महाकाव्य , लेखक
  3. राजस्थान का इतिहास , लेखक गोपीनाथ शर्मा।
  4. दि अर्ली चौहान डायनेस्टीज ,लेखक डा0 दशरथ शर्मा
  5. ऐतिहासिक स्थानवाली ।
  6. दिल्ली सल्तनत ,लेखक डा0 ए0 एल0 श्रीवास्तव ।
  7. श्रीगणेश यात्रा रणथम्भोर दुर्ग , लेखक गोवर्धन लाल वर्मा ।
  8. खलजी कालीन भारत , अनुवादक सैयद अतहर अब्बास रिजवी ।
  9. तारीखे फ़िरोजशाही (इलियट -डाउसन )।
  10. हमीर प्रबन्ध ,लेखक अमृत कैलाश।
  11. राजस्थान का इतिहास,लेखक वी0एस0 भार्गव ।
  12. सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध ,लेखक अशोककुमार सिंह ।
  13. हमीरायण ,लेखक डॉ0 दसरथ शर्मा ।
  14. रावर्ती-तवकाते नासिरी , जिल्द 1 ।
  15. वीरविनोद ,प्रथम खण्ड ,लेखक स्यामलदास ।
  16. शारदा-हमीर ऑफ रणथम्भोर ।
  17. राजस्थान के प्राचीन दुर्ग, लेखक डा0 मोहनलाल गुप्ता ।
  18. विश्व विरासत स्थल रणथम्भोर ,लेखक डा0 सूरज जैदी ।
  19. दुर्ग रणथम्भोर एवं उसका सुरभ्य अंचल ,लेखक गोकुलचन्द गोयल।
  20. ए हिस्ट्री ऑफ रणथम्भोर ,लेखक जावेद अनवर ।
  21. ऐतिहासिक किला रणथम्भोर , लेखक डा0 अर्चना तिवारी ।
  22. भारत के दुर्ग ,लेखक पंडित छोटे लाल शर्मा ।
  23. राजस्थान के प्रमुख दुर्ग , लेखक डा0 राघवेन्द्र सिंह मनोहर।
  24. रणथम्भोर -इतिहास के पृष्ठों पर ,लेखक आर0 एस0 राणावत ।

लेखक- डॉ0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव- लढोता ,सासनी 
जिला- हाथरस ,उत्तर प्रदेश
प्राचार्य- राजकीय कन्या महाविद्यालय सवाईमाधोपुर ,राजस्थान, 322001

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