Special Article: महाराजा जयचन्द गहरवार को देशद्रोही कहना  न्यायोचित नहीं अन्यायपूर्ण है...

प्रचलित दंतकथाओं तथा पृथ्वीराज रासो के आधार पर कन्नोज पति महाराजा जयचन्द गहरवार के ऊपर जातिद्रोह ,धर्मद्रोह तथा देशद्रोह इत्यादि के लांच्छ्न लगाये

Nov 4, 2025 - 11:01
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Special Article: महाराजा जयचन्द गहरवार को देशद्रोही कहना  न्यायोचित नहीं अन्यायपूर्ण है...
महाराजा जयचन्द गहरवार को देशद्रोही कहना  न्यायोचित नहीं अन्यायपूर्ण है...

 ‎लेखक- डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन 

महाराजा जयचन्द गहरवार को देशद्रोही कहना  न्यायोचित नहीं अन्यायपूर्ण है

प्रचलित दंतकथाओं तथा पृथ्वीराज रासो के आधार पर कन्नोज पति महाराजा जयचन्द गहरवार के ऊपर जातिद्रोह ,धर्मद्रोह तथा देशद्रोह इत्यादि के लांच्छ्न लगाये जाते है ।किसी भी महान व्यक्ति पर केवल तुच्छ तथा क्षुद्र  किंवदंतियों के आधार पर आरोप लगाना बिना उन आरोपों को प्रमाणित सिद्ध किये --हम अन्याय या महापाप समझते है। इस लिए हमें  निष्पक्ष होकर महाराजा जयचन्द पर लगाये हुये अभियोग की विचारपूर्ण पड़ताल करनी चाहिए ।
  
हम सर्व प्रथम महाराजा जयचन्द पर अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के विरुद्ध मुसलमानों की सेना को निमन्त्रण देना और इस प्रकार निमंत्रित मुसलमानों द्वारा अंतिम हिन्दू साम्राज्य को नष्ट कराने के अभियोग पर विचार करते है। यह अभियोग पृथ्वीराज रासो के आधार पर किया गया है परन्तु वह निर्मूल प्रमाणित हुआ है ,जैसा कि नीचे के कुछ प्रमाणों से प्रकट होगा-

1- पृथ्वीराज रासो में लिखा हैकि दिल्ली के तंवर राजा अनंगपाल जी ने अपनी वृद्धावस्था में दिल्ली का राज्य अपने दौहित्र पृथ्वीराज चौहान (तीसरा) को देकर ,तप करने को बद्रिकाश्रम चले गये और इस प्रकार दिल्ली पर चौहानों का अधिकार हुआ(पृथ्वीराज रासो ,दिल्ली दान प्रस्ताव,18वां समय) ।परन्तु यह सब कल्पित है क्यों कि उस समय दिल्ली में तंवर अनंगपाल का राज्य नहीं था ।देहली का राज्य तो अन्तिम हिन्दू सम्राट महाराजा पृथ्वीराज चौहान (तीसरा)के पांचवे पूर्वाधिकारी महाराजा विग्रहराज (बीसलदेव)चतुर्थ ने ही अपने महाराज्य (अजमेर)के अधीन कर लिया था जैसा कि देहली में अशोक के धर्म स्तम्भ ,जिसको अब फिरोजशाह की लाट कहते हैं --पर धर्माज्ञाओं के नीचे खुदे ,उस (बीसलदेव)के विक्रम संवत 1220 वैशाख सूद15 (अप्रैल 20ई0 सन 1163 शनिवार)के शिलालेख में पाया जाता है(इंडियन एन्टीक्वेरी ,भाग 19 पेज 219) ।उस समय से ही दिल्ली चौहानों के महा राज्य का एक सूबा था (दिल्ली का गौरव तो मुसलमानी समय में ही बढ़ा है ) और उसकी राजधानी अजमेर में ही थी ।

2- रासो के कथानुसार सम्राट पृथ्वीराज चौहान की माता का नाम कमला (अनंगपाल की पुत्री) है परंतु पृथ्वीराज के समय में बने "पृथ्वीराज विजय महाकाव्य "में पृथ्वीराज की माता का नाम  कर्पूरीदेवी लिखा है और उसको त्रिपुरी(चेदि अर्थात जबलपुर के आस पास के प्रदेश की राजधानी)के हैहय (कलचुरि)वंशी राजा तेजल (अचलराज)की पुत्री बताया गया है ।विक्रम संवत 1460 के आस पास बने हमीर महाकाव्य (सर्ग 2) में भी उसका नाम कर्पूर देवी लिखा है।ऐसे ही विक्रम सं0 1635 के लगभग बूँदी राज्य में बने सुर्जन चरित -महाकाव्य (सर्ग9)में भी कर्पूरी देवी अंकित है।

3- रासो नुसार पृथ्वीराज का प्रथम विवाह 11 वर्ष की आयु में मंडोवर (मारवाड़)के पड़िहार राजा नाहरराव की कन्या से होना भी मनगढंत है ।क्यों कि मंडोवर का नाहरराव पड़िहार तो पृथ्वीराज चौहान से 500 वर्ष पहले विक्रमी संवत 700 के आस पास हुआ था ।विक्रम सं0 1200से पहले ही मंडोवर का राज्य पड़िहारों के हाथ से निकल कर चौहानों के अधिकार में चला गया था और पृथ्वीराज के समय के आस पास तो नाडोल (मारवाड़)के चौहान रायपाल के पुत्र सहजपाल मंडोवर पर राज्य करता था जैसा कि वहीं से मिले हुए लेख से प्रकट है।

4- आबू के परमार राजा सलख की पुत्री ओर तेजराज की बहिन इच्छनी से पृथ्वीराज का विवाह होना भी गलत है क्यों कि आबू पर सलख या जैतराज नाम का कोई पंवार राजा नहीं हुआ है ।पृथ्वीराज चौहान तृतीय ने विक्रम सं 0 1220 से 1276 तक आबू का राजा धारावर्ष था ,जिसके कई शिलालेख मिले है ।

5- रासोकार ने लिखा है कि पृथ्वीराज चौहान ने अपने पिता सोमेश्वर का गुजरात के सोलंकी राजा भीम द्वारा मारे जाने का बैर लेने के लिए उसने गुजरात पर चढ़ाई कर भीमदेव को मारा परन्तु भीमदेव तो विक्रम सं0 1235 में निरी बाल्यावस्था में गद्दी पर बैठा और 63 वर्ष तक जीवित रहा(प्रबन्ध चिंतामणि पेज 249) इतनी बाल्यावस्था में वह सोमेश्वर को नहीं मार सकता था और न पृथ्वीराज ने चढ़ाई कर उसे मारा ही ।संवत 1296 मगसर वदी 14 (दिसंबर 25 ई0 1239 रविवार)के भीमदेव के ताम्रपत्र से भी प्रकट है कि पृथ्वीराज की मृत्यु के 50 वर्ष बाद भी विद्ध्यमान था (इंडियन एन्टीक्वेरी भाग 6 पेज 207)।

6- पृथ्वीराज की बहिन प्रथा का विवाह मेवाड़ के समरसिंह गहलोत के साथ होना और इस नाते से समरसिंह का पृथ्वीराज के पक्ष में लड़ता हुआ शहाबुद्दीन गौरी के साथ की लड़ाई में मारा जाना भी कपोल कल्पना मात्र है।क्यों कि समरसिंह जी (समरसी) पृथ्वीराज के बहुत समय बाद हुए थेऔर उनका अन्तिम शिलालेख सं0 1358 की माघ सुदी 10 (जनवरी10 ई0 1302 वुद्धवार)का महामहोपाध्याय रायबहादुर गौरीशंकर हीराचन्द ओझा को विक्रम सं0 1977 में मिला है ।यह शिलालेख उदयपुर के अजायबघर में सुरक्षित है।इससे पृथ्वीराज की मृत्यु से 100 वर्ष पीछे तक तो समरसी अवश्य जीवित थे।

7- कन्नौज पति जयचन्द और पृथ्वीराज चौहान का पारस्परिक युद्ध ,राजसुययज्ञ और जयचन्द की पुत्री संयोगिता का स्वयंवर की कथा भी रासो के सिवाय प्राचीन ग्रंथों व शिलालेखों में देखने में नहीं आई है ।जयचन्द एक बड़े दानी राजा थे ।उनके14 दान-पात्र अब तक मिले है।इससे यह ज्ञात होता है कि वह समय समय पर भूमिदान किया करते थे ।यदि वे राजसूय यज्ञ करते तो ऐसे महत्वपूर्ण प्रसंग पर तो वे कई गांव दान करते परन्तु इस संम्बंध का न तो अब तक कोई दान पत्र मिला है और न किसी शिलालेख या प्राचीन पुस्तक में उसका उल्लेख है ।पृथ्वीराज चौहान के समय में बने "पृथ्वीराज विजय"में या विक्रम सं0 1440 के लगभग बने हमीर महाकाव्य में या रंभामज्जरी नाटिका में (जिसके नायक स्वयं जयचन्द जी है)इन घटनाओं का कहीं पता नहीं है ।इस लिए यही अनुमान होता है कि विक्रम सं0 1460 तक तो ये कथाएं गढ़ी भी नहीं गई थीं ।

8- पृथ्वीराज रासो में लिखा है कि "सुल्तान शहाबुद्दीन गौरी रणक्षेत्र में पृथ्वीराज को कैद कर गजनी ले गयाऔर वहां उसने उनकी दोनों आँखें फुड़वा डाली ।बाद में चन्द्रबरदाई योगी का भेष धारण कर गजनी (काबुल) पहुंचा और उसने सुल्तान को उत्तेजित किया।पृथ्वीराज ने चन्द के संकेत से वाण चला कर सुल्तान का खात्मा किया ।फिर चन्द ने अपने कमर से कतार निकाल कर अपना पेट चाक किया और फिर वही कटार राजा पृथ्वीराज को दे दी ।पृथ्वीराज ने उसे अपने कलेजे में भोंक लिया।इस प्रकार सम्वत 1158 की माघ 5 को गौरी पृथ्वीराज और महाकवि ब्राहाभट्ट चन्द बरदाई की मृत्यु हुई "।यह घटना भी सत्य नहीं है ।वास्तव में पृथ्वीराज सं0 1249 (ई0सन 1192 )में भारत में ही सुल्तान के साथ युद्ध में मारे गये थे और गौरी जब गक्खरों को हरा कर लाहौर से गजनी जाता हुआ मार्ग में धमेक के पास नदी के किनारे ,बाग में मगरिब की नमाज पढ़ रहा था तब वह गक्खरों के हाथ से हिजरी सन 602 ता0 2 शाबान (विक्रम सं0 1263 चैत सुदी 3 मार्च 15 ई0 सन 1206 मङ्गल )को मारा गया था(पृथ्वीराज चरित्र ,पेज 80 ई0 सन 1898) ।

9- रासो का कथन है कि "रैनसी ने अपने पिता पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु का समाचार पाकर बदला लेने को लाहौर के मुसलमानों पर चढ़ाई कर उन्हें वहां से भगा दिया ।इस प्रकार गौरी के उत्तराधिकारी कुतुबुद्दीन ऐबक ने चढ़ाई करके रैनसी को मार डाला और दिल्ली से आगे बढ़ कर कन्नौज के राजा जयचन्द पर धावा किया ।जयचन्द ने वीरता से मुकाबला किया पर वह रणक्षेत्र (चंदवार के मैदान )में काम आया और इस प्रकार मुगलों की विजय हुई।"यह बात भी झूठी है ।स्वयं गौरी ने चढ़ाई करके विक्रम सं0 1250 (ई0 सन 1194)में जयचन्द गहरवार को मारा था और पृथ्वीराज के पुत्र गोविन्दराज था जिसे गौरी ने अजमेर का राजा बनवाया था परन्तु सुल्तान का मातहत हो जाने से पृथ्वीराज के भाई हरिराज ने उससे अजमेर छीन लिया और इस पर गोविन्दराज रणथम्भोर में जा बसा ।

10- पृथ्वीराज रासो में कहीं पर इस बात का उल्लेख नहीं मिलता है कि जयचन्द ने शहाबुद्दीन गौरी को पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण करने का निमंत्रण दिया या षडयंत्र रचा और न उस समय की लिखी फारसी तवारीखों में इस षडयंत्र का उल्लेख है ।रासो में स्थान स्थान पर यह प्रकट होता है कि पृथ्वीराज के सेनापति ने सुल्तान से मिल कर उसका नाश किया ।
इन व्रतांतों को देखते पृथ्वीराज रासो का कोई ऐतिहासिक मूल्य नहीं रहता है परंतु रासो ग्रंथ पृथ्वीराज के समय में ही बना था क्यों कि रासो का कर्ता पृथ्वीराज के समय में था और उसीने इस ग्रंथ का निर्माण किया था ।वह ग्रंथ छोटा था।जितना इस समय मिलता है उतना बड़ा नहीं था।लगभग 3 या 4 हजार श्लोक का था जैसा कि महाकवि चन्द का वंशधर जोधपुर निवासी ब्रहाभट्ट नेनुराम कहा करता है ।पीछे से कवियों तथा इतिहासकारों ने समय समय पर अपने मनगढंत इसमें व्रतांतों को बढ़ा दिया।उन लोगों को इतिहास का इतना परिज्ञान नहीं था कि इन व्रतांतों को लिखने से पूर्वापर विरोध आवेगा और ऐसा हुआ भी करता है ।महाभारत के विषय में भी कहा जाता है कि मूल महाभारत 24 हजार श्लोक का था परन्तु आज उसमें एक लाख श्लोक मिलते है ।यह स्थित हमारे कई पौराणिक ग्रंथों की है जिनमें कथाएं भी बदल दी गईं है जो कि मूल ग्रंथों में थी ही नहीं।

12- चन्दवार के मैदान में हुआ था शहाबुद्दीन गौरी एवं महाराजा जयचन्द का युद्ध- आगरा जिले में चौहानों का एक राज्य था जिसे चंदवार कहते थे जो आज फ़िरोजवाद नगर से लगभग 5 किमी0 दक्षिण में यमुना तट पर विद्ध्यमान है। वर्तमान चन्द वार तो एक छोटा सा गांव मात्र है।गौरी ने सन 1194 ई0 में जयचन्द पर आक्रमण किया था ।जयचन्द द्वारा मुहम्मद गौरी के आक्रमण का प्रतिरोध चन्द वार में ही किया गया था ,जिससे ऐसा आभास मिलता है कि चन्दवार का राज्य भी सम्भवतः कन्नौज का सीमांत था।जयचन्द ने मुहम्मद गौरी के विरुद्ध पृथ्वीराज चौहान की सहायता नहीं की थी और पारस्परिक विग्रह से ग्रसित होकर राष्ट्रीय हित की उपेक्षा जरूर कर दी जो नहीं करनी चाहिए थी ।महाराजा  जयचन्द को अपनी इस महान भूल का प्राश्चितय चन्दवार के युद्ध क्षेत्र में करना भी पड़ा ।इसमें सन्देह नहीं कि  महाराजा जयचन्द  यवनों से बड़ी वीरता से लड़े किन्तु दुर्भाग्यवस महाराज जयचन्द जब गौरी की सेना के पैर उखाड़ने ही वाले थे ,कि शत्रुपक्ष के किसी सैनिक का एक तीर  महाराजा जयचन्द की आँख में लगा और वह मारे गये । महाराजा जयचन्द की मृत्यु के कारण कन्नौज की सेना हतोत्साहित हो गई और युद्ध क्षेत्र से भाग खड़ी हुई।मुहम्मद गौरी ने इस अवसर का लाभ उठाया और आगे बढ़ते हुए वनारस तक पहुंच गया जो जयचन्द का प्रिय निवास स्थान था।वहां गौरी को जयचन्द का विशाल राजकोष प्राप्त हुआ जिसे वह 1400 ऊंटों पर लाद कर लेगया।किन्तु 1198 तक गौरी कन्नौज पर अधिकार नहीं कर सका ।कुछ इतिहासकारों का मत है कि चन्द वार के युद्ध में यद्धपि गौरी की विजय हुई थी किन्तु उसकी सेना का भयानक विनाश भी हुआ था,जिसके परिणामस्वरूप कन्नौज के राजा के वंशजों ने पुनः कुछ स्थानों पर अधिकार कर लिया जिसे गौरी विजित कर चुका था ।भारत के भविष्य को अंधकारमय बना देने वाले इस युद्ध की रण भूमि चंदवार बना।इसमें एक तथ्य बड़ा आश्चर्यजनक लगता है कि चंदवार के वीर चौहान शासक जयचन्द के खिलाफ पृथ्वीराज चौहान के साथ नहीं लड़े थे किंतु गौरी के खिलाफ वे जयचन्द के साथ मिलकर लड़े थे । इससे ये सिद्ध होता है कि चंदवार के चौहान राज वंश ने पृथ्वीराज चौहान एवं जयचन्द दोनों की लड़ाई में किसी का भी साथ नहीं दिया ।वे इस युद्ध में अलग रहे।चन्दवार के चौहानों का वंश पृथ्वीराज चौहान से भी पूर्व का लगभग 7 वी या 8 वीं शताब्दी का कहा जाता है जिसमे माणिकराव नामक एक राजकुमार के नेतृत्व में चौहान राजपूतों का एक दल राजपूताना से चल कर चम्बल के तटवर्ती स्थानों पर पहुंचा ।कालान्तर में इन लोगों ने यमुना पार कर कुछ प्रदेशों पर अधिकार कर लिया जो इस समय आगरा ,मैनपुरी ,एटा आदि जिलों के अंतर्गत है ।इनमें से ही एक स्थान चंदवार था जो इन चौहानों की किसी समय राजधानी था।13 वीं शताब्दी में ही इसी चन्दवार के चौहानों के वंश में से भदौरियों की एक अलग शाखा बनी ।चम्बल किनारे वसे हातकन्त स्थान पर इन चौहानों ने अपनी राजधानी स्थापित की ।यह चम्बल और यमुना का प्रदेश किसी समय भयानक या भद्र प्रदेश कहलाता था ।इस लिए चन्द वार के ये चौहान राज वंश की यह शाखा कालान्तर में भदौरिया कही जाने लगी ।

 "चन्द के वंशज सम्राट अकबर के समय तक रासो को बढ़ाते गये।अकबर ने पृथ्वीराज रासो को सुना था।छपा हुआ रासो प्रायः अकबर के समय तक का बना हुआ 18 श्लोकों का ग्रन्थ है ।उसके बाद भी और जोड़ा गया है जिससे ग्रंथ में श्लोकों  की संख्या सवा लाख की हो गई पर वह थोड़े से लोगों को ही याद है ।चन्द के वंशज (जोधपुर राज्य के अंतर्गत नागौर के निवासी )कहते है कि मूल पृथ्वीराज रासो कोई 3 या 4 हजार श्लोक का था और वह अधूरा ग्रन्थ था ।चन्द उसे पूरा नहीं कर सके थे ।"
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उपरोक्त ऐतिहासिक प्रमाणों से स्पष्ट है कि महाराजा जयचन्द ने यवनों को पृथ्वीराज के विरुद्ध आक्रमण करने के लिए भारत में नहीं बुलाया था परन्तु वह स्वयं भारत आया था और अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान की शिथिलता को देख कर जो कि सम्राट पृथ्वीराज चौहान के सामन्तों की फूट और ईर्ष्या तथा सम्राट की राजकाज में उदासीनता के कारण पड़ गई थी, न केवल उन यवनों ने पृथ्वीराज के राज्य को छिन्न भिन्न किया किन्तु महाराजा जयचन्द गहरवार को भी अपना क्रूर हाथ बताया ।ऐसी स्थित में जयचन्द को देशद्रोही  विभीषण कहना अन्याय और असत्य है ।
 ‎जय हिन्द। जय राजपूताना।।

 लेखक राजपूताने के सुप्रसिद्ध इतिहासकार,राष्ट्रीय भावना व क्रान्तिकारी विचारों वाले स्वर्गीय जगदीश सिंह जी गहलोत को सादर नमन करते हुए श्रद्धा सुमन अर्पित करता है जिनके द्वारा लिखे तथ्यों को मैने संकलित करने का प्रयास किया है जिससे हमारी भावी पीढ़ी महाराजा जयचन्द के विषय में अपना भाव बदलने का प्रयास करेगी ।


 ‎लेखक- डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन 
 ‎गांव- लाढोता ,सासनी ,जिला हाथरस,उत्तरप्रदेश
 प्राचार्य- राजकीय कन्या  महाविद्यालय,सवाईमाधोपुर

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