Special Article: साहिबजादा दिवस- इतिहास नहीं इम्तिहान।
आइए, आज एक प्रश्न से शुरुआत करें... राष्ट्र, धर्म और सनातन संस्कृति की रक्षा के लिए सर्वोच्च बलिदान देने वाले गुरु श्री गोबिन्द सिंह जी
✍️ प्रणय विक्रम सिंह
आइए, आज एक प्रश्न से शुरुआत करें...
राष्ट्र, धर्म और सनातन संस्कृति की रक्षा के लिए सर्वोच्च बलिदान देने वाले गुरु श्री गोबिन्द सिंह जी महाराज के चार साहिबजादों का बलिदान दिवस 'वीर बाल दिवस' (साहिबजादा दिवस) आखिर केवल श्रद्धांजलि का दिन है, या आत्मपरीक्षण का अवसर?
जब हम साहिबजादा जोरावर सिंह और साहिबजादा फतेह सिंह के नाम पर सिर झुकाते हैं, तो क्या हम केवल इतिहास को नमन कर रहे होते हैं, या अपने वर्तमान से भी कोई सवाल पूछ रहे होते हैं?
सच पूछिए तो साहिबजादा दिवस हमें देखने नहीं, सोचने के लिए आमंत्रित करता है।
सोचिए, छह और नौ वर्ष के वे बालक, जिनके सामने विकल्प था: जीवन, यदि धर्म छोड़ दें… या मृत्यु, यदि सत्य पर अडिग रहें।
उन्होंने क्या चुना? उन्होंने चुना धर्म, स्वाभिमान और आत्मा की स्वतंत्रता।
अब खुद से पूछिए... आज हमारे सामने कौन-सी दीवारें खड़ी हैं? वे ईंट और चूने की नहीं हैं, पर उतनी ही कठोर हैं।
आज दबाव तलवार से नहीं, विचारों, भय और तुष्टीकरण से डाला जाता है।
आज पूछा जाता है कि इतना धार्मिक क्यों हो? इतना अपनी पहचान पर क्यों अड़े हो? इतिहास को भूल क्यों नहीं जाते?
यहीं साहिबजादे हमसे संवाद करते हैं। वे कहते हैं कि परिस्थितियां बदल जाती हैं, सिद्धांत नहीं। दीवारें बदल जाती हैं, पर आत्मा की परीक्षा वही रहती है।
सिख गुरुओं की परंपरा कोई संकीर्ण धार्मिक कथा नहीं है। गुरु तेग बहादुर जी ने कश्मीर के पंडितों के लिए शीश दिया, क्या वह सिखों के लिए था?
नहीं, वह सनातन चेतना के लिए था। उस विचार के लिए, जो कहता है कि दूसरे की आस्था की रक्षा करना भी मेरा धर्म है।
आज, जब दुनिया के कई हिस्सों में आस्था डर का कारण बन रही है, जब त्योहार सुरक्षा घेरे में सिमट रहे हैं, जब पहचान छुपाने की सलाह दी जाती है, तब साहिबजादे हमसे पूछते हैं कि क्या तुम अब भी मौन को समझदारी समझते हो?
भारत के संदर्भ में यह प्रश्न और तीखा हो जाता है। हम विविधताओं का राष्ट्र हैं। पर विविधता तभी सुरक्षित रहती है, जब उसकी जड़ें मजबूत हों। और वे जड़ें हैं संस्कृति, आस्था और आत्मसम्मान।
इसीलिए जब उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ साहिबजादा दिवस को केवल स्मरण नहीं, संस्कार का विषय बनाते हैं, तो यह एक प्रशासनिक निर्णय नहीं रहता... यह एक वैचारिक संदेश बन जाता है।
यह संदेश कि नई पीढ़ी को केवल अधिकार नहीं, कर्तव्य और चरित्र भी सिखाया जाना चाहिए।
और जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वीर बाल दिवस को राष्ट्रीय स्मृति में स्थापित करते हैं, तो वह कहते हैं कि भारत अपनी सभ्यता को भूलकर आधुनिक नहीं बनेगा। भारत अपनी सभ्यता के बल पर आधुनिक बनेगा।
अब फिर एक प्रश्न कि क्या साहिबजादा दिवस केवल बच्चों के लिए है?
नहीं। यह हर उस व्यक्ति के लिए है, जो किसी दबाव के सामने चुप हो जाने को आसान रास्ता मान लेता है।
आज साहिबजादे हमसे कहते हैं कि तुम्हें दीवार में चुनने की नौबत नहीं आएगी, लेकिन तुम्हें रोज़ यह तय करना होगा कि तुम सत्य के साथ खड़े हो या सुविधा के साथ।
तो आइए, इस साहिबजादा दिवस पर केवल नमन न करें, निर्णय करें।
निर्णय कि हम अपनी आस्था पर शर्मिंदा नहीं होंगे, हम अन्याय के सामने मौन नहीं रहेंगे, और हम अपने समय में धर्म, न्याय और मानवीय गरिमा की रक्षा करेंगे।
आज साहिबजादों को नमन करने का सच्चा अर्थ यही है कि हम अपने समय की 'सरहिंद' पहचानें, और अपने भीतर के साहिबजादे को जीवित रखें।
क्योंकि
साहिबजादा दिवस इतिहास नहीं है...
यह आज का इम्तिहान है।
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