Special Article: जादों  राजवंश की राजधानी करौली का एक ऐतिहासिक,धार्मिक एवं दार्शनिक परिदृश्य-

राजस्थान के पूर्व भाग में स्थित करौली एक छोटी सी  प्राचीन रियासत थी। जैसलमेर की भांति करोली के यादव राजपूत ( आधुनिक जादों ) भी यदुकुल शिरोमणी श्री कृष्ण के वंशज हैं।

Oct 31, 2025 - 23:46
Nov 1, 2025 - 12:29
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Special Article: जादों  राजवंश की राजधानी करौली का एक ऐतिहासिक,धार्मिक एवं दार्शनिक परिदृश्य-
जादों  राजवंश की राजधानी करौली का एक ऐतिहासिक,धार्मिक एवं दार्शनिक परिदृश्य-

लेखक- डॉ. धीरेन्द्र सिंह जादौन  


 ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

राजस्थान के पूर्व भाग में स्थित करौली एक छोटी सी  प्राचीन रियासत थी। जैसलमेर की भांति करोली के यादव राजपूत ( आधुनिक जादों ) भी यदुकुल शिरोमणी श्री कृष्ण के वंशज हैं। श्री कृष्ण पहले बृज भूमि में राज करते थे, पर बाद में वे द्वारका चले गये थे। श्री कृष्ण के बाद उनके प्रपौत्र वजनाभ  के नेतृत्व में यादवों की वृष्णि शाखा ने पुनः बृज देश में (मथुरा) अपना राज्य स्थापित कर लिया था। वज्रनाभ के 74 पीढ़ी में  सन 800 के आस -पास  मथुरा के शासक राजा धर्मपाल हुए।  ख्यातों के अनुसार मथुरा में सन 879 ई. में इच्छापाल यादव राज्य करता था। पर जब भारत की उत्तरी-पश्चमी सीमा से यवनों के आक्रमण बढ़ने लगे तो इच्छापाल के पुत्र ब्रहमपाल  का पौत्रएवं जयेन्द्र पाल का पुत्र विजयपाल मथुरा छोड़कर  बयाना के पास मानी पहाड़ियों में चला गया। उसने सन 1040 में वहां एक किला बनाया जो अब बयाना के विजयमन्दिर किले के नाम से जाना जाता है। गजनवियों ने 1093 में इस किले पर अधिकार कर लिया और विजयपाल को मार डाला ।

विजयपाल के उत्तराधिकारी तवनपाल ने बयाना के निकट तवनगढ़ का किला बनवाया। उसने अलवर, भरतपुर, धोलपुर, करोली, आगरा, ग्वालियर और मथुरा के इलाकों पर अपना वर्चस्व स्थापित किया। उसने सार्वभौम शासक की तरह "परम भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर' की उपाधि धारण की ।तिमनपाल की सन  1160 में मृत्यु हो और  उसके उत्तराधिकारी कमजोर सिद्ध हुये । उसके पोते कुंवरपाल को मुहम्मद गोरी ने सन् 1196 में हरा दिया और उसके राज्य पर अधिकार कर लिया। उसने रीवां में शरण ली। उसके वंशज लगभग 150 वर्षों तक इधर-उधर डोलते रहे। सन् 1327 ई. के लगभग ने अर्जुनपाल ने अपने पैतृक राज्य के कुछ भागों पर पुनः अधिकार किया। उसने सन् 1348 में करौली नगर बसाया और उसे अपनी राजधानी बनाया। उसके उत्तराधिकारी विक्रमादित्य अभयपाल, प्रतापरूद्रा आदि राजकाज चलाते रहे। प्रतापरूद्र का पुत्र चन्द्र पाल (चन्द्रसेन ) सन् 1449 में करोली की गद्दी पर बैठा। उसे मालव के सुल्तान महमूद खिलजी ने हराकर करौली पर अधिकार कर लिया। चन्द्रपाल के पोते गोपालदास ने अकबर के समय में पुनः इस क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था।तभी से यह क्षेत्र यदुवंशी राजाओं के अधीन रहा है।

प्राचीन नाम कल्याणपुरी का अपभ्रंश स्वरूप नाम करौली है। करौली रियासत का सन् 1348 ई0 से लेकर सन 1947 तक  गौरवशाली इतिहास रहा है। यहां के किले व दुर्ग सामरिक दृष्टिकोण की अनेक महत्वपूर्ण 'घटनाओं व संघर्षों के साक्षी रहे है। करौली का समृद्ध इतिहास यहां के कण-कण में व्याप्त है।

   करौली नगर की भौगोलिक स्थिति   

करौली भौगोलिक दृष्टि से ब्रज क्षेत्र के अन्तर्गत आता है।उत्तरप्रदेश एवं मध्यप्रदेश की सीमाओं पर नदियों की धारा के बीच अरावली पर्वत श्रृंखलाओं में  राजस्थान के पूर्वी भाग में 
स्थित है । चम्बल नदी के किनारे -किनारे मीलों तक फैले हुए बीहड़ यहाँ की प्रमुख विशेषता है ।इसी लिए डांग क्षेत्र कहलाता है ।

करौली राज्य में  धार्मिक , प्राकृतिक एवं ऐतिहासिक पर्यटक स्थलों की अधिकता रही है।यहां  लगभग एक दर्जन प्राचीन किले तथा चम्बल घाटी के समानान्तर फैला हुआ कैलादेवी अभयारण्य  है जो यहाँ की विरासत है। यहाँ के प्राचीन भवनों में मुगल तथा राजपूत शैली की वास्तुकला एवं शिल्प का उपयोग हुआ है।

   धार्मिक आस्था के केन्द्र     

जग-जन के आराध्य परम परमेश्वर भगवान श्रीकृष्ण इस अखिल ब्रह्माण्ड  के आराध्य देव माने जाते हैं। करौली में गली-गली में मन्दिर है। इस लिये करौली को राजस्थान का वृन्दावन  भी कहते हैं। यह क्षेत्र बृजभूमि कहलाता है , ब्रजक्षेत्र होने के कारण यहाँ पर अधिकतर श्रीकृष्ण जी के मंदिर है। यहाँ की बसावट व  पूजा की सारी रस्में वृन्दावन के समान ही है। भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र वज्रनाभ ने अपने पितामह के शौर्य को जानकर उनकी प्रतिमाएँ बनवाई। सम्पूर्ण करौली राज्य में लगभग 300 विष्णु भगवान के श्री कृष्ण जी के रूप में मन्दिर थे।इसके अतिरिक्त 20 मन्दिर शिव जी तथा 8 मन्दिर देवियों के थे।जिनमें कैलादेवी ,कुलदेवी अंजनी तथा लाल रंग के हनुमान जी प्रमुख हैं।करौली शहर में लगभग 50 हिन्दुओं की आस्था के मंदिर हैं जिनमें 4 देवियों के , 2 भैरों जी के तथा 2 बलदेब जी के हैं।करौली नगर यदुकुल शिरोमणि देवकीनन्दन वासुदेव श्री कृष्ण जी की आस्था का प्रमुख केन्द्र है।करौली में अन्य मन्दिर इस प्रकार हैं।

1- प्रताप शिरोमणि मन्दिर- यह मन्दिर महाराजा प्रताप पाल ने बनवाया था।इनकी देखभाल गोसाई मुकुन्द किशोर करते थे।

2- कल्याणराय जी मंदिर- यह मन्दिर करौली नगर की स्थापना से पूर्व ही महाराजा अर्जुनपाल ने बनवाया था।इन्हीं के नाम पर एक कल्याणपुरी नगर महाराजा अर्जुनदेव ने बसाया था जो कालांतर में करौली के नाम से विख्यात हुआ।एक कनौज के गुसाईं के पास इसकी देखभाल का दायित्व था।

3- नबल विहारी मन्दिर- ये मन्दिर महाराजा प्रतापपाल की नरुका रानी द्वारा बनवाया गया था।इसकी देखभाल के दायित्व एक बंगाली को दिया गया था।

4- राधा किशन जी मन्दिर- यह मन्दिर धौ खूबराम ने बनवाया था तथा देखभाल का दायित्व एक बंगाली प्रेमदास वैरागी को दिया गया था तथा बाद में महाराजा मदनपाल जी ने इस मन्दिर को उस बंगाली से ले लिया था और एक भारतीय ब्राह्मण गोविन्द प्रसाद को देखभाल का दायित्व दिया।बंगाली से झगड़े होते रहते थे क्यों कि उसका व्यवहार खराब था।

5- गोविन्द जी मन्दिर- यह मन्दिर वैश्यों की एक पंचायत ने बनवाया था।एक बंगाली इस मन्दिर की देखभाल करता था।

6- गोपीनाथ एवं महाप्रभु जी मन्दिर- ये दोनों मन्दिर अच्छे बने हुए हैं।महाप्रभु जी का मन्दिर बहुत प्राचीन है ।

7- मुरली मनोहर मन्दिर- यह मन्दिर महाराजा मानकपाल के समय में लालजी दीवान ने बनवाया था ।दरवार इसकी देखभाल के लिए 250 रुपये प्रतिमाह देते थे।बाद में यह मंदिर बाबू प्रताप छन्द के अधिकार में रहा ।

8- बख्तेवर शिरोमणि मन्दिर- बख्तेवर सिरोमणि मन्दिर महाराजा प्रतापपाल की रानी राणावत जी ने बनवाया था जो दरवार से प्रतिदिन 2 रुपये प्राप्त करती थीं।इस मंदिर से 2000 रुपये की सालाना आय का एक गांव भी जुड़ा था जो महाराजा मदनपाल जी ने हटा दिया था तथा झगड़े के कारण मन्दिर के गुसाईं को भी निकाल दिया गया था।

9- श्री मदनमोहन जी का मंदिर- वृन्दावन के पुराने देवालयों में वास्तु कला की दृष्टि से श्री गोविन्ददेव जी के मंदिर के पश्चात इसी को महत्व दिया जाता है। इस मंदिर का निर्माण जलगांव के एक धनी व्यापारी रामदास कपूर ने गोडीय धर्माचार्य श्री सनातन गोस्वामी के उपास्य श्री मनमोहन जी के देव-स्वरूप के लिए एक ऊँचे स्थल पर किया था। यह मंदिर किस समय बनाया इसका प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता है। किंतु इसकी वास्तुशैली से ऐसा अनुमान होता है कि श्री गोविंददेव जी के मंदिर के निर्माण काल सं. 1647 के कुछ समय बाद ही यह बन कर पूरा हुआ होगा। इस की विशेषता इसके कलात्मक उच्च शिखर और उस पर निर्मित अलंकृत आमलक के कारण है,जो  सौभाग्य से अभी तक नष्ट होने से बचे हुए हैं। इन पर बड़ा सुंदर अलंकरण किया गया है। ऐसी किवदंती है, इस मंदिर के शिखर पर एक बड़ा स्वर्ण कलश भी था, जिसे मांट ग्राम का एक नामी चोर शर्त लगा कर पहिरेदारों के बीच में से चुरा कर ले गया था |

   श्री मदनमोहन जी की मूर्ति         

चैतन्य संप्रदाय की मान्यता के अनुसार गौडीय धर्माचार्य श्री अर्द्वत  प्रभु ने सर्वश्री रूप-सनातन गोस्वामियों के ब्रजागमन से कुछ समय पूर्व ब्रज यात्रा की थी। वे वृन्दावन में वहाँ के ऊंचे स्थल 'द्वादशादित्य टीला' पर एक वट वृक्ष के नीचे ठहरे थे। उसी स्थल से उन्हें श्रीकृष्ण की एक मूर्ति प्राप्त हुई थी, जिसका नाम उन्होंने 'श्री मदनगोपाल जी' रखा था। अब वे  यात्रा के अनंतर स्वदेश वापिस जाने लगे, तब उस मूर्ति को वे मथुरा के एक चतुर्वेदी परिवार को सौंप गये थे। श्री सनातन गोस्वामी सं. 1476 में स्थायी रूप से ब्रजवास करने को आये थे। इस काल में वृंदावन में कोई बस्ती नहीं थी; अतः जब वे वहां रहते थे, तब भिक्षा के लिए मथुरा जाया करते थे। मथुरा के जिस चतुर्वेदी परिवार में श्री अद्वेत प्रभु द्वारा प्रदत्त श्री मदनगोपाल जी की देव-प्रतिमा थी, वहाँ भी सनातन जी का कभी-कभी जाना होता था।

उस चतुर्वेदी परिवार ने उन्हें श्री मदनगोपाल जी की वह प्रतिमा सौंप दी, और उन्होंने उसे वृंदावन में कालियदह के निकटबर्ती द्वादशादित्य टीला पर ही प्रतिष्ठित कर दिया। उन्होंने सं. 1590 में उनकी सेवा 'श्री मदन मोहन जी' के नाम से प्रचलित की थी। सेवा पूजा का कार्य गदाधर पंडित जी के शिष्य कृष्णदास ब्रह्मचारी को दिया गया था। बाद में उक्त मूर्ति को रामदास कपूर द्वारा निर्मित मंदिर में प्रतिष्ठित किया था। सम्राट औरंगजेब ने जब इस मंदिर को सं.1726 के लगभग ध्वस्त कराया था, तब श्री मदनमोहन जी की मूर्ति आक्रमणकारियों से छिपा कर किसी प्रकार जयपुर भेज दी गई थी। वहाँ पर उसे राजकीय संरक्षण में रखा गया था। कालांतर में करोली के राजा गोपालसिंह ( राज्य काल सं. 1782- सं. 1814 ) ने उक्त देव-विग्रह को अपने बहनोई जयपुर-नरेश से माँग कर अपने राज्य में प्रतिष्ठित किया था। तब से अभी तक करौली के राजकीय देवालय में ही श्री मदनमोहन जी
का देव-स्वरूप बिराजमान है ।

जग-जन के आराध्य परम परमेश्वर भगवान श्रीकृष्ण इस अखिल ब्रह्माण्ड  के आराध्य देव माने जाते हैं। करौली में गली-गली में मन्दिर है। इस लिये करौली को राजस्थान का वृन्दावन  भी कहते हैं। यह क्षेत्र बृजभूमि कहलाता है , ब्रजक्षेत्र होने के कारण यहाँ पर अधिकतर श्रीकृष्ण जी के मंदिर है। यहाँ की बसावट व  पूजा की सारी रस्में वृन्दावन के समान ही है। भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र वज्रनाभ ने अपने पितामह के शौर्य को जानकर उनकी प्रतिमाएँ बनवाई जिनमें हरिदेव जी  गिर्राज  जी में , श्री केशवदेव जी मथुरा में , श्री बलदेव दाऊजी वृन्दावन में,  श्री गोविन्ददेव जी जयपुर में ,श्रीनाथ जी उदयपुर में, श्री गोपीनाथ जी जयपुर में , श्री मदनमोहनजी करौली में , श्री साक्षीगोपाल जी उड़ीसा में  विराजमान है। ये मूर्तियां बनवाकर मुनिगनों को प्रदान की जिनमें  मदनमोहन जी की मूर्ति निम्बारक मुनि ने मथुरा में ध्रुव टीले पर स्थापित की जिसकी भटदेव पूजा करते थे।

जब भतदेव वृन्दावन चले गये तब वह मूर्ति मधुरा के सीने परिवार को दी। इस वंश के दामोदर के घर पर यह मूर्ति भैरव रूप में विराजमान थी। गौड देश का एक साथ भगवान श्रीकृष्ण का अनन्य भक्त था उसकी भक्ति से प्रसन्न भगवान ने दर्शन देकर कहा कि मथुरा में दामोदर के घर भैरव रूप में मेरी प्रतिमा है। उस धोने का बालक मेरे भैरव रूप को देखकर डर गया और अचानक बीमार हो गया आप जाकर उसे झाड़ा देकर ठीक कर दो ।बालक स्वस्थ्य हो जाऐगा पत्नी कुछ मांगने को कहेगी तो तुम मुझे माँग लेना और वृन्दावन लाकर मन्दिर में स्थापित कर देना। कुछ समय पश्चात जयपुर महाराजा जयसिंह मृन्दावन गये तब श्री विग्रह के दर्शन कर मोहित हो गये और मुस्लिम आकान्ताओं से तोड़ने से बचाने के लिये किशोरीदास गोस्वामी से प्रतिमा को जयपुर ले जाने की प्रार्थना की गोस्वामी जी तैयार हो गये और पूर्ण राजसी सम्मान से डोला जयपुर आ गया। यहाँ जयसिंह रोज दर्शन करते थे। करौली रियासत के महाराज श्री गोपाल सिंह जी भी श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे उन्हें स्वप्न में दर्शन देकर कहा मैं तेरी भक्ति से प्रसन्न हूँ, मुझे बृज का माखन मिश्री अच्छा लगता है। अतः मुझे करौली ले चल ।

सुबह महाराजा ने जयपुर प्रस्थान किया और वहाँ पहुँचकर महाराजा सवाई जयसिंह से मूर्ति ले जाने को कहा तो महाराजा सवाई जयसिंह ने परीक्षा देने की बात कही करौली महाराज तैयार गये। उन्होंने ठाकुर जी बनी अनेकों मूर्तियों को एक जैसी पोशाक और एक जैसा श्रृंगार करा रखा था। जयसिंह ने कहा कि अब आपको आँखों पर पट्टी बाँधकर अपनी मूर्ति को पहचान कर ले जाओ। गोपालसिंह जी ने अपने इष्ट का मन में स्मरण किया और सबके चरण स्पर्श करके जाँचने लगे तो जैसे ही मदनमोहन जी की प्रतिमा के चरण स्पर्श किये तो अनुभव किया कि पैरों में रक्त संचार हो रहा है और चरण गुदगुदे लगे तुरन्त ही गोपालसिंह जी ने जयपुर महाराजा को कह दिया कि ये मेरे मदनमोहन जी है।

राजा जयसिंह भी गोपाल जी की परीक्षा को साथ चलकर देख रहे थे। उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा और जयसिंह जी ने करौली महाराज से कहा आप सच्चे भक्त है। अतः आप विग्रह ले जा सकते हैं। शुभ नक्षत्र में राजसी डोला में विग्रह को विराजमान कर करौली 1842 ई0 में प्रस्थान किया जैसे ही करौली में अंजनी माता के यहाँ पहुँचे नगर सूचना पाकर उमड़ पड़ा
स्वयं महाराजा गोपाल सिंह जी पैदल चल रहे थे। तोपों की सलामी दी जा रही थी। ढोल नगाड़े, कीर्तन चल रहे थे। सवारी राजमहल के दक्षिणी भाग में पधारी जहाँ देवगिरी के दौलताबाद से लाये श्री राधागोपाल जी का विग्रह पहले से ही विराजमान था।

अतः मेहमान स्वरूप मदनमोहन जी के पधारने पर उन्हें राधागोपाल जी के बीच में स्थान दिया और राधागोपाल जी को दॉयी तरफ स्थान दिया जो आज भी उसी जगह मौजूद है। मंदिर में राजभोग व आठौ झाँकियों के खर्च के लिए पृथक से जागीर की व्यवस्था की गई। गौर से देखने पर मँगला आरती के समय भगवान का बालरूप दिन की आरती के समय युवा रूप व साँझ की आरती के समय वृद्धावस्था के रूप में दर्शन होते हैं। आज तक करौली के निवासी बिना किसी जातिगत भेदभाव के नित्य भगवान के दर्शन कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। वर्तमान समय में हर मास की अमावस्या को मंदिर परिसर में लक्खी मेला लगता है।

श्री मदनमोहन जी के नित नये चमत्कारों से लोगों में भक्ति व समर्पण की भावना प्रगाढ़ हो रही है। मंदिर व्यवस्था के लिए एक ट्रस्ट है। जिसके मुख्य ट्रस्टी करौली महाराजा है। रियासत के सभी राजमहल भी ट्रस्ट के अधीन है। यहाँ का प्रशासन करौली के शासक "स्टेट श्री मदनमोहन जी की मोहर से चलाते है। करौली रियासत का सारा राजकाज श्री मदनमोहन जी के नाम से चलाया जाता है। "

10- बीजासन माता का मन्दिर- कैलादेवी से 3 किमी खोहरी गांव में प्राचीन मन्दिर है। 

11- गुमानो माता का मन्दिर - कैलादेवी से 35 किमी दूर करनपुर गांव में प्राचीन मन्दिर स्थित है।

12- अंजनीमाता का मन्दिर- करौली से 3 किमी विश्वास गांव की पहाड़ी पर स्थित इस मन्दिर में बालक हनुमान जी को स्तनपान कराती माता अंजनी की चमत्कारिक प्रतिमा है।करौली एवं सबलगढ़ के समस्त यदुवंशी राजपूत इनको अपनी कुलदेवी मानते हैं।

13- कैला मैया मन्दिर- जिला मुख्यालय करौली से 23 किलोमीटर दूर कैला मैया का  भव्य  मन्दिर कालीसिल नदी के किनारे स्थित है। कालिसिल नदी के किनारे त्रिकूट पर्वत पर केदार गिरि नामक साधू देवी की अराधना किया करता था। देवी के दर्शन प्राप्त करने के लिये उसने 12 वर्ष तक बिहार के हिंगलाज पर्वत पर कठोर तपस्या की थी। जब देवी प्रसन्न हुई तो साधू ने प्रार्थना की कि वह  त्रिकूट पर्वत पर चलकर वहां रहने वाले एक राक्षस का बध करे। साधु की सार्थना पर देवी चित्रकूट आई और उसने राक्षस का वध कर दिया। कैलादेवी मंदिर से आधा किलोमीटर पूर्व में नदी किनारे एक चट्टान पर देवी के चरण चिन्ह आज तक बने हुए हैं। इस प्रकार ईस्वी 1114 केदार गिरि द्वारा देवी की एक मूर्ति यहां स्थापित की गई। बाद में खींची राजा मुकुन्ददास , यादव  राजा गोपालसिंह तथा यादव राजा भंवरपाल द्वारा इस मंदिर में अनेक भवनों का निर्माण करवाया गया। पीतुपुरा गांव के मीणा परिवार ने भी देवी को प्रसन्न किया तब से ये लोग गोठया कहलाते हैं। उन्हें देवी का भाव आता है। कैला मैया का मंदिर संगमरमर पत्थर से बना हुआ है। इसकी भव्य छतरियां और अनूठी वास्तुकला देखने योग्य है। मुख्य कक्ष में महालक्ष्मी कैला देवी और चामुण्डा की प्राचीन प्रतिमायें विराजमान है ।कैला मैया अपनी आठ भुजाओं में शस्त्र लिये हैं और सिंह पर सवार हैं। सुहागिन महिलाएं मन्दिर जाने से पूर्व कालीसिल  नदी में स्नान करके कोरी सफेद साड़ी तथा हरे कांच की चूड़ियां पहनकर खुले केशों मन्दिर तक जाती हैं और कैला मातेश्वरी से अपने सुहाग, परिजनों तथा शिशुओं के सुखी और दीर्घ जीवन की कामना करती हैं। आगरा से तो लगभग प्रत्येक परिवार, विवाहोपरान्त पुत्रवधु को लेकर, शिशु जन्म के बाद शिशु को लेकर मां कैलादेवी की यात्रा करता है और बच्चों का मुंडन भी यहीं कराता है।

आगरा अंचल के यूं तो सभी वर्ग और जातियों के लोगों में मां के प्रति असीम श्रद्धा किन्तु यह एक उल्लेखनीय तथ्य है कि आगरा के 90% अग्रवाल वैश्य परिवार नियमित रूप से कैला देवी के दर्शनार्थ आते हैं। सामान्यतः मूर्ति पूजा विरोधी होने के उपरान्त भी फिरोजाबाद के मुस्लिम भक्त प्रतिवर्ष सैकड़ों सहयोगियों को लेकर मां के दर्शन करने आते हैं तथा छप्पन भोग से पूजा करते हैं।

    प्राकृतिक स्थल               

चम्बल नदी के किनारे 2 मील तक फैले हुए बीहड (रिवाइन्स ) यहां की प्रमुख विशेषता है।इसी लिए डांग क्षेत्र कहलाता है। करौली जिला क्षेत्र प्रकृति की अनुपम धरोहर हैं । यहां डांग क्षेत्र में मनोरम घाटियां है एवं अनेक खोह, कन्दरा एवं झरने है। साथ ही रणथम्भौर अभ्यारण्य से जुड़े वन क्षेत्र में असंख्य वन्य जीवों की शरण स्थलियां तथा विभिन्न प्रजातियों के वृक्ष है। वर्षा ऋतु में यहां की छटा अद्भुत दिखाई देती है। हिण्डौन के जगरौटी क्षेत्र व टोडाभीम नादौती में भी प्राकृतिक स्थलों की कमी नहीं है। 

(1) राष्ट्रीय चम्बल घडियाल अभ्यारण्य- घडियालों की लुप्त होती जा रही प्रजाति को सुरक्षित रखने के लिए 280 वर्ग किमी जलीय क्षेत्र को अभ्यारण्य घोषित किया है। यहां घडियाल, मगरमच्छ, उदबिलाव तथा टरटल्स पाये जाते हैं। साथ ही 150 प्रजातियों के पक्षियों व स्थानीय वन्यजीवों की बहुतायत है।

(2) कैला देवी अभ्यारण्य- कैलादेवी अभ्यारण्य अपनी प्राकृतिक छटा के लिए प्रसिद्ध है। पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र यह अभ्यारण्य करौली से 24 किलोमीटर दूर दक्षिण में स्थित है। 'कैला देवी अभ्यारण्य कैला देवी मंदिर से लेकर चम्बल तक एवं दौलतपुर वनखण्ड से निदड़ तक 674 वर्ग कि.मी. क्षेत्र में फैला हुआ है। पूर्व में यह बाघों की शरणस्थली रहा है। जिसमें रियासतों के समय में बाघों की अच्छी संख्या पाई जाती थी। राज्य सरकार ने 1984 में यह क्षेत्र अभ्यारण्य के रूप में घोषित किया। प्रभावी संरक्षण एवं सुरक्षा के लिए 1991 में इसे बाघ परियोजना में शामिल किया गया।

इस क्षेत्र के बाघ परियोजना में सम्मिलित होने के बाद से संरक्षण एवं सुरक्षा के कारणों से बाघों की वंश वृद्धि की संभावनायें बढ़ रही है कैलादेवी अभयारण्य का सम्पूर्ण क्षेत्र नालों, दर्रों  के साथ-साथ ऊंचा-नीचा और पथरीला है। विंध्याचल पर्वत की घाटियां, चट्टानें जो समतल एवं चपटी हैं जिनमें खोह जैसी आकृतियां पाई जाती हैं जो देखने में अत्यन्त रमणीक एवं चित्ताकर्षक है। निभेरा की खोह ,  चिर की खोह , घण्टेश्वर की खोह  आदि ऐसी ही घाटियां हैं। बरसात के मौसम में इस क्षेत्र का पानी छोटी-छोटी धाराओं एवं नालों के द्वारा चम्बल में चला जाता है। क्षेत्र में जीवों के लिए पीने का पानी जगह-जगह तलैयों , झरनों एवं छोटे-छोटे बांधों में मिल जाता है। गर्मी के दिनों में पानी की कमी रहती है जिससे वन्य जीवों को पीने के पानी की समस्या का सामना करना पड़ता है।

कैला देवी अभ्यारण का यह क्षेत्र शुद्ध रूप से धोंक वन क्षेत्र है। धोंक के साथ-साथ अन्य वनस्पतियां  भी पाई जाती हैं जिनमें खैर (अकेसिया करेच) गूगल, झावेरी आदि झाड़ियां मुख्य हैं । पठारी इलाको पर समतल क्षेत्र के नालों में प्रचुर मात्रा में घास पाई जाती है जो वन्य जीवों को समुचित मात्रा में भोजन प्रदान करती है। अभ्यारण्य में बाघ के साथ-साथ बघेरे, लकड़बग्घा, भालू आदि देखने को मिलते हैं। हरबीवोरस में चिकारा, नील गाय, खरगोश, रीछ आदि पाये जाते हैं जो पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। 

    ऐतिहासिक दुर्ग                 

(1) तिमनगढ़ दुर्ग- बयाना से 23 किमी दक्षिण में एक उन्नत शिकार पर स्थित है। महाराज तिमनपाल द्वारा  सन 1058 ई0 में निर्मित यह दुर्ग पाषाण की मूर्तियों के अमिट खजाने एवं हस्तशिल्प के बेजोड़ नमूनों के लिए अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त है। यह स्थान करौली से 42 किमी दूर मासलपुर के पास स्थित है। दुर्ग पर्वतमालाओं से आवृत वन सम्पदा से परिपूर्ण तथा नैसर्गिक सौंदर्य से सुशोभित है जो यदुवंशियों के शौर्य ,वीरता और पराक्रम की अनेक घटनाओं का साक्षी है।
 
(2) मण्डरायल दुर्ग- यह दुर्ग पूर्व मध्यकाल का एक प्रसिद्ध दुर्ग है जो चम्बल नदी के किनारे एक उन्नत पहाड़ी के शिखर भू-भाग पर स्थित है। इस दुर्ग का निर्माण बयाना के राजा विजयपाल के पुत्र मदनपाल ने सम्बत 1184 के लगभग कराया था।मध्यकाल में सामरिक दृष्टि से  यह महत्वपूर्ण दुर्ग रहा है। चम्बल नदी के किनारे पर्वत श्रृंखलाओं के बीच लाल पत्थरों से बना है। करौली से 40 किमी की दूरी पर स्थित है।

(3) उंटगिर/अवन्तगिरि /अवन्तगढ़ दुर्ग- अभयारण्य क्षेत्र में स्थित यह किला करौली की पुरानी राजधानी रही है। करणपुर के पश्चिम में कल्याणपुरा के पास यह किला तीनो ओर से पहाडियों से घिरा हुआ है। किले के नीचे अनेक पुरानी छतरियां  बनी हुई है। लगभग 6 किलोमीटर क्षेत्र में किले के चारों ओर एक परकोटा बना हुआ है और विनोद के अनुसार किले के अंदर एक छोटा किला नरेश हरबख्श पाल द्वारा बाद में बनवाया गया था। पहाड़ी की आकृति ऊँट के समान होने के कारण संभवतया इसका नाम उटगिरि पड़ा हो। विभिन्न इतिहास ग्रंथो के अनुसार इस क्षेत्र में लंबे समय तक लोधी राजपूतों का शासन था। बाद में इसको यदुवंशियों ने हस्तगत किया था।राजा चन्द्रसेन बहुत समय तक इसी दुर्ग में रहे थे।अकबर भी उनसे इसी किले में आकर मिला था।

(4) देवगिर दुर्ग- देवगिरि किला रणथम्भौर अभयारण्य क्षेत्र मे उटगिरी के पूर्व मे चम्बल के किनारे ऊचाई पर बना हुआ है। किले का अधिकांश भाग खण्डहर हो चुका है। यहाँ आबादी के प्रमाण उपलब्ध है। ऐसा प्रतीत होता है कि उटगिरी शासकों  का आवास था तथा देवगिरी मे लोग रहते थे। यहाँ देवालय भी था जिसके राग भोग के लिए कृषि भूमि भी आवंटित थी। देवगिरी मूल के अनेक परिवार कालान्तर मे करणपुर आकर बस गये तथा कुछ परिवार राजधानी उटगिरी से करौली बदलने के बाद शासकों के साथ करौली आ गये। वर्तमान मे करौली मे भी देवगिरी के निवासियो का एक मौहल्ला है।

(5) अमरगढ़ दुर्ग- यह करौली रियासत का सशक्त ठिकाना रहा । यहाँ का पहला ठाकुर राजा जगमन का बेटा अमरमान था। इसी ने इस गिरि दुर्ग का निर्माण कराया और दुर्ग के नीचे आबादी विकसित कराई। यहाँ के ठाकुरों का आमतौर पर अपने शासकों से मतभेद रहा करता था। महाराजा मानिक पाल (1722-1804 ई) के शासन में कुँवर अमोलक पाल ने सन् 1802 ई0 में यह किला उमरगढ़ के ठाकुरों से छीन लिया। इसी प्रकार महाराजा हरबक्स पाल (1804-1837 ई) ने भी अपने समय में इस गढ़ को एक बार  अधिकृत कर लिया था।महाराणा प्रताप्रपाल (1837-40 ई) ने यहाँ के ठाकुर लक्ष्मणपाल को विरोधियों की मदद करने के इल्जाम में (सन् 1947 ई) पन्द्रह हजार रूपयों से दंडित किया। यह गढ़ आज भी सुरक्षित है जिसमे ठाकुरों के वंशज रहते हैं। इस दुर्ग से कुछ ही दूरी पर क्षेत्र की प्रसिद्ध गुफा घण्टेश्वर है, जो वन्यजीवों के साथ अपनी प्राकृतिक सम्पदा से अकूत है।"

(6) बहादुरपुर किला- करौली शहर से 15 किमी  दूरी पर स्थित है तथा अपने  गौरवशाली अतीत की यादों का साक्षी बनकर खण्डर स्थित में खड़ा है। इसका विस्तार 1566 से 1644 तक होता रहा। इसका शिल्प अद्भुत है। दुर्ग के मुख्य प्रवेश द्वार के दोनों तरफ सुरक्षा सैनिकों के लिए प्रकोष्ठ बने हुए हैं।

(7) फतेहपुर किला- इस किले का निर्माण हरनगर के ठाकुर घासीराम ने सन 1702 ई0 में कराया था। करौली से 30 किमी दूर कंचनपुर मार्ग पर 250 वर्ष पूर्व निर्मित यह किला यदुवंशियों की 16 शाखाओं का मुख्यालय था। क़िले के अन्दर आवासीय भवनों के अलावा पानी के टाँके एवं हनुमान जी का मन्दिर है।

(8) किला नारौली गांव- करौली जिले के सपोटरा से 12किमी नारौली गांव में ऊँची पहाड़ी पर स्थित इस किले का निर्माण सन 1783ई0 में करौली के यदुवंशी मुकुन्दपाल के वंशजों ने कराया था। राजा भंवरपाल जी ने किले के चारों ओर परकोटा एवं कचहरी का निर्माण कराया था ।यह किला तत्कालीन समय में करौली तथा जयपुर राज्यों की सीमा पर स्थित था।

(9) रामठरा किला- रामथरा दुर्ग  सपोटरा उपखण्ड में रणथम्भोर वन्यजीव अभ्यारण  क्षेत्र में एक पहाड़ी पर बना हुआ है तथा करौली अभ्यारण से लगभग 5 किमी दूरी पर है ।इस किले का निर्माण करौली के यादवों ने कराया था।सन 1645 में इस किले का करौली महाराजा ने अपने पुत्र भोजपाल को जागीरदार बना कर इस किले का अधिकारी बनाया था। वर्तमान  में ठाकुर ब्रजेन्द्र पाल जी इस दुर्ग के मालिक हैं।उनके पुत्र रविराज पाल जी हैं जो बहुत ही प्रकृति एवंम  पर्यावरण प्रेमी हैं।दुर्ग के भीतर सूंदर बहु मसनजिला महल बने हुए हैं ।दुर्ग में भगवान गणेश का मंदिर एवं एक शिव मंदिर दर्शनीय है। 

(10) सपोटरा दुर्ग- सपोटरा दुर्ग करौली के महाराजा धर्मपाल के वंशज राव उदयपाल ने बनवाया था जो महाराजा रतनपल के पुत्र थे।राव उदयपाल को सपोटरा ठिकाना दिया गया था तथा उनके भाई कुंवरपाल करौली के सन 1688 में राजा बने थे।ये दुर्ग जीरौता से 11किमी पूर्व में है।इसमें एक खूबसूरत तालाब भी बना हुआ था।

(11) थाली दुर्ग- यह दुर्ग मचीलपुर से उत्तर-पश्चिम में एक पहाड़ी पर स्थित है। इस दुर्ग का निर्माण महाराजा  हरबख्श पाल ने कराया था। इस दुर्ग में अन्दर एक कुंआ है जिससे जलापूर्ति की जाती भी ।

(12) कुरा दुर्ग- मचीलपुर से 3 किमी. पूर्व में यह दुर्ग स्थित है। यह किला  महाराजा गोपालदास ने बनवाया था। दुर्ग के पास एक नाला बहता है जिस पर आम के बाग थे।  दुर्ग के अन्दर एक गहरा पूल है।

(13) मांची दुर्ग- यह दुर्ग मांची गांव में था। यह हरदास ठाकुर के वंशजों की रियासत थी। यहां पर एक दुर्ग था जो महाराजा  प्रतापपाल द्वारा तोड़ कर ध्वस्त किया गया था क्यों कि मांची ठाकुर उनके समय में विद्रोही थे। 

(14) बाजना दुर्ग - बाजना में भी एक किला था जो अब खण्डहर अवस्था में है।

(15) जम्बुरा दुर्ग- यह दुर्ग मचीलपुर परगने के पूर्वी इलाके में लगभग 3 मील दूरी पर था। 

(16) निन्दा किला- यह किला मंडरायल के उत्तर में 3 मील दूरी पर स्थित था अब खण्डहर है।

(17) उन्ड का किला- यह किला मंडरायल के उत्तरी-पूर्वी भाग में चम्बल के पास स्थित था।

(18)  खुर्दयी  का किला- यह किला मंडरायल के पास स्थित है।

(19) दौलतपुरा का किला- उंटगिरी के पास 14 मील पश्चिमी क्षेत्र में है।

    करौली के दर्शनीय ऐतिहासिक स्थल    
  1. शिकार गंज महल
  2. रावल पैलेस
  3. भंवर विलास पैलेस
  4. हरसुख विलास उद्यान
  5. गोपाल सिंह की छत्तरी
  6. सुख विलास बाग एवं शाही कुण्ड
  7. दरगाह कबीर शाह

    प्राकृतिक स्थल               

चम्बल नदी के किनारे 2 मील तक फैले हुए बीहड (रिवाइन्स ) यहां की प्रमुख विशेषता है।इसी लिए डांग क्षेत्र कहलाता है। करौली जिला क्षेत्र प्रकृति की अनुपम धरोहर हैं । यहां डांग क्षेत्र में मनोरम घाटियां है एवं अनेक खोह, कन्दरा एवं झरने है। साथ ही रणथम्भौर अभ्यारण्य से जुड़े वन क्षेत्र में असंख्य वन्य जीवों की शरण स्थलियां तथा विभिन्न प्रजातियों के वृक्ष है। वर्षा ऋतु में यहां की छटा अद्भुत दिखाई देती है। हिण्डौन के जगरौटी क्षेत्र व टोडाभीम नादौती में भी प्राकृतिक स्थलों की कमी नहीं है। 

(1) कैलादेवी वन अभ्यारण्य- जिला मुख्यालय से मात्र 23 किमी दक्षिण में रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान से जुडा हुआ व 782 वर्ग किमी क्षेत्र में फैला वफर वन क्षेत्र कैलादेवी अभ्यारण्य कहलाता है। प्राकृतिक सम्पदा से भरपूर इस क्षेत्र को  1955 में संरक्षित क्षेत्र घोषित किया वहीं जुलाई 1983 भारत सरकार ने वन अभ्यारण घोषित किया।

(2) राष्ट्रीय चम्बल घडियाल अभ्यारण्य- घडियालों की लुप्त होती जा रही प्रजाति को सुरक्षित रखने के लिए 280 वर्ग किमी जलीय क्षेत्र को अभ्यारण्य घोषित किया है। यहां घडियाल, मगरमच्छ, उदबिलाव तथा टरटल्स पाये जाते हैं। साथ ही 150 प्रजातियों के पक्षियों व स्थानीय वन्यजीवों की बहुतायत है।

    धार्मिक आस्था के केन्द्र            

करौली के मेले- राजस्थान के करौली जिले के विभिन्न अंचलों में आयोजित मेले यहां की अनूठी लोक संस्कृति के परिचायक है। हर उम्र जाति वर्ग के नर -नारियों की सोल्लास सहभागिता लोकरंजन की तस्वीर प्रस्तुत करती है। इन मेलों में यहां के लोक जीवन की विशिष्ट शैली, सांस्कृतिक मूल्यों, जन विश्वास व आस्था की अभिव्यक्ति दिखाई देती है। 

(1) कैलादेवी का मेला - चैत्र कृष्णा एकादशी नवरात्रा स्थापना से अष्टमी तक लख्खी मेला श्री महावीरजी के मेले की सवारी से चैत्र शुक्ल दसवी तक तथा कार्तिक मास में। प्रतिवर्ष आयोजित होता है। लाखों दर्शनार्थी लांगुरियां गीतों पर नाचते-गाते, ढोल, ढप बजाते माता के दरबार में माथा टेंकते है। जगह-जगह जोगनियों के नृत्य व लांगुरिया गीतों की गूंज सुनाई पड़ती है।

(2) अंजनीमाता का मेला - करौली हिण्डौन मार्ग पर स्थित माता अंजनी के मन्दिर पर कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में देव उठनी एकादशी को भव्य मेला लगता है। 

(3) करौली में गणेश जी के मेले - प्रतिवर्ष गणेश चतुर्थी पर करौली नगर के प्राचीन गणेश मंदिरों में मेलों का आयोजन किया जाता है।

(4) शिवरात्रि का मेला- माघ शुक्ल 12 से फाल्गुन कृष्ण 6 तक करौली में रियासत काल से ही मेला लगता है। यहां पहले विशाल पशुमेला तथा बाद में बच्चों का मेला लगता है।

    रणगंवा तालाब          

करौली-मण्डरायल मार्ग पर लगभग 2 किलोमीटर दूर यह ऐतिहासिक तालाब है। रियासतकालीन यह तालाब मराठा एवं करौली की सैनाओं का रणक्षेत्र रहा है। इस स्थान पर भारी संख्या में स्थानीय सैनिक शहीद हुऐ थे। उन्ही की याद मे इस तालाब का निर्माण होने से इसे रणगवां तालाब कहा जाने लगा। वर्तमान मे इसकी देखरेख की जिम्मेदारी नगरपालिका पर है। यह स्थान स्थानीय लोगो के लिए प्रमुख सैरगाह है, श्रावण मास में प्रत्येक सोमवार को यहाँ मेले लगते हैं। रणगंवा तालाब में भीषण गर्मी में भी पानी रहता है।

नीदर बांध- करौली जिला मुख्यालय से 40 किलोमीटर तथा मण्डरायल क़स्बे  से लगभग 5 किलोमीटर पश्चिम में स्थित नींदर गाँव के सहारे पर्वत श्रृंखला के नीचे यह बाँध तीन ओर से पहाडी क्षेत्र से घिरा होने के कारण बहुत ही आकर्षक दिखाई देता है। इसमें प्रमुख रूप से डॉग क्षेत्र एवं घाटी के नीचे दो छोटी नदियों तथा चौरस वन क्षेत्र से बर्षाती पानी का संग्रहण होता है। बॉध लगभग 70 वर्ष पुराना है इसकी आधारशिला तत्कालीन नरेश गणेश पाल द्वारा रखी गई थी तथा निर्माण श्याम लाल गुप्ता इंजीनियर की देखरेख में मैसर्स नत्थू लाल लक्ष्मण प्रसाद ठेकेदार द्वारा कराया गया था। पुराना नीदर गाँव बांध के डूब क्षेत्र मे आने के कारण वर्तमान गाँव पहाडी के नीचे बसाया गया है। बाँध से 1995 ईस्वी से मण्डरायल तथा आस पास के कई गाँवो में सिंचाई होती है। बाँध बनने के बाद मण्डरायल क्षेत्र के कुओं का जल स्तर 30 फीट तक बड गया है। कैलादेवी अभ्यारण क्षेत्र में होने के कारण यहां दूरस्थ स्थानों से विभिन्न प्रजातियों के पक्षी प्रजनन करते हैं।पर्यटन की दृष्टि से यह बांध बहुत उपयोगी है।

 प्रसिद्ध पान का जायजा -

करौली उपखण्ड की  उप तहसील मासलपुर एक ऐतिहासिक कस्बा है। यहाँ की प्रमुख पैदावार पान की खेती है। यहाँ पैदा होने वाला पान अन्य क्षेत्रों में उत्पादित पान के मुकाबले अलग ही जायके का है। एक बार यहां के पान का रसास्वादन करने के बाद किसी भी व्यक्ति को फिर से इसको खाने के लिए लालायित होना स्वाभाविक हैं। मासलपुर में उत्पादित पान की विदेशों में विशेष मांग है। यहां से विदेश जाने वाले लोग अपने रिस्तेदारों को पान की सौगात ले जाना नहीं भूलते। यह पान दिल्ली, मेरठ, सहारनपुर,  आगरा, अलीगढ आदि मण्डियों में पहुँचकर अरब देशों तक निर्यात किया जाता है। पूर्व मुस्लिम रियासत टोंक में तो वहां के नवाबों की पसन्द यह पान इतना  लोकप्रिय था कि वहां मंगाये जाने वाले पान पर किसी प्रकार का कर अथवा चुंगी माफ थी। मासलपुर के पान की खुशबु दूर -दूर तक जाती है ।नादौती तहसील के गढमोरा गाँव मे भी पानों की खेती होती है किन्तु  यहाँ का पान मासलपुर के पान के समान ख्याति प्राप्त नहीं है।

मांसलपुर - करौली से १६ मील उत्तर-पूर्व में है। यहाँ महादेव व विष्णु के कई मन्दिर है। इमारत में बड़ी इमारत महाराजा गोपालदास के महल का  खंडहर है, इसके पास ही एक महादेव और दूसरा मदनमोहन का मन्दिर उसी समय के बने हुए हैं। शहर से उत्तर की तरफ एक छोटी पहाड़ी पर 12 खम्भों की बनी  एक कब्र  पठानी के जमाने की है। यहाँ से १ मील उत्तर में  एक कुआ है जिसको  "चोर बाबड़ी" कहते हैं। कस्बे से उत्तर की ओर कई बगीचे हैं, जिनमें एक मरहटों के समय का बना "दक्षिणियों का बगीचा" नाम से प्रसिद्ध है।

जिरोता- यह राजधानी करौली से २८ मील दक्षिण-पश्चिम में है। यहाँ कल्याणराय का एक मन्दिर ७०० वर्ष से अधिक समय का बना हुआ है । सं० 1195  ( ई० 1138 हि० 532 ) की प्रशस्ति उसमें लगी हुई है। कस्बे के पास ही एक पहाड़ी पर शेख बद्रुद्दीन की दरगाह है।

सलेमपुर - यह करौली से २४ मील पश्चिम में है । यहाँ पर पुराने किले के खंडहर, मियां मक्खन की मस्जिद व कब्र  है। गाँव के पास मदार साहब का चिल्ला नाम की पहाड़ी है, जहाँ किसी समय एक मुसलमान फकीर ने चालीस रोज तक उपवास किया था । यहाँ की आधी जमींदारी पठानों की है।

संदर्भ-

  1. गज़ेटियर ऑफ करौली स्टेट -पेरी -पौलेट ,1874ई0
  2. करौली का इतिहास -लेखक महावीर प्रसाद शर्मा
  3. करौली पोथी जगा स्वर्गीय कुलभान सिंह जी अकोलपुरा
  4. राजपूताने का इतिहास -लेखक जगदीश सिंह गहलोत
  5. राजपुताना का यदुवंशी राज्य करौली -लेखक ठाकुर तेजभान सिंह यदुवंशी
  6. करौली राज्य का इतिहास -लेखक दामोदर लाल गर्ग
  7. यदुवंश का इतिहास -लेखक महावीर सिंह यदुवंशी
  8. अध्यात्मक ,पुरातत्व एवं प्रकृति की रंगोली करौली  -जिला करौली
  9. करौली जिले का सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन-लेखक डा0 मोहन लाल गुप्ता
  10. वीर-विनोद -लेखक स्यामलदास
  11. गज़ेटियर ऑफ ईस्टर्न राजपुताना (भरतपुर ,धौलपुर एवं करौली )स्टेट्स  -ड्रेक ब्रोचमन एच0 ई0 ,190
  12. सल्तनत काल में हिन्दू-प्रतिरोध -लेखक अशोक कुमार सिंह
  13. राजस्थान के प्रमुख दुर्ग -लेखक रतन लाल मिश्र
  14. राजस्थान के प्रमुख दुर्ग-डा0 राघवेंद्र सिंह मनोहर
  15. तिमनगढ़-दुर्ग ,कला एवं सांस्कृतिक अध्ययन ।
  16. करौली का यादव राज्य ;रणबांकुरा मासिक में (जुलाई 1992 ) कुंवर देवीसिंह मंडावा का लेख ।

लेखक- डॉ. धीरेन्द्र सिंह जादौन  
गांव-लढोता, सासनी 
जिला-हाथरस ,उत्तरप्रदश , प्राचार्य ,राजकीय  कन्या महाविद्यालय ,सवाईमाधोपुर ,राजस्थान ,322001

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