Special Article: मथुरा के संस्थापक जदुवंशी रत्न राजा मधु का एक ऐतिहासिक शोध.... ।

आप लोगों ने क्या कभी भगवान श्रीकृष्ण को माधव नाम से स्मरण करते हुए यह भी सोचा है कि वे माधव क्यों कह‌लाए ? क्या आपने कभी यह विचारा है कि जिस

Oct 24, 2025 - 11:49
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Special Article: मथुरा के संस्थापक जदुवंशी रत्न राजा मधु का एक ऐतिहासिक शोध.... ।
मथुरा के संस्थापक जदुवंशी रत्न राजा मधु का एक ऐतिहासिक शोध-

लेखक:- डॉ0 धीरेन्द्र सिंह जादौन

गांव-लढोता ,सासनी जिला-हाथरस ,उत्तरप्रदेश

प्राचार्य राजकीय स्नातकोत्तर कन्या महाविद्यालय ,सवाईमाधोपुर ,राज

आप लोगों ने क्या कभी भगवान श्रीकृष्ण को माधव नाम से स्मरण करते हुए यह भी सोचा है कि वे माधव क्यों कह‌लाए? क्या आपने कभी यह विचारा है कि जिस प्राचीन तथा सुंदर नगरी मथुरा में उन्होंने जन्म लिया था, उसे मधुरा क्यों कहा गया और उसे किसने बसाया?

इन दोनों प्रश्नों का ठीक-ठीक उत्तर जांचने के लिए हमें बाल्मीकि रामायण महाभारत तथा अष्टादश पुराणों के प्रमाणों का सहारा लेना पड़ेगा। विभिन्न कालों में तथा अनेक प्रकार की विचारधाराकों के कारण इन पुराणों के वर्णनों में कहीं-कहीं परस्पर विरोध भी दीखता है। मथुरा के संस्थापक मधु का चरित्र, हमें इस परस्पर विरोधी सामग्री में से छांटकर जो भी देता है, वह बड़ा पवित्र तथा उत्साहबर्द्धक है।

  •  हरिवंश पुराण में यादव कुल का इतिहास इस प्रकार बताया है-

"वैवस्वतमनु के कुल में इक्ष्वाकु के पुत्र राजा हर्यश्व थे, जो इन्द्र के समान पराक्रमी थे। उनकी पत्नी मधु दैत्य की पुत्री थी। जिस प्रकार इन्द्र की इंद्राणी शची है, उसी प्रकार देवी मधुमती राजा की प्यारी पत्नी थी। वह जवानी के सारे गुणों से संपन्न थी और उनके रूप की बराबरी संसार में कोई नहीं कर सकता था। राजा के सर्व मनोरथ पूर्ण करने के कारण वह उन्हें प्राणों से अधिक प्यारी थी। दानवेंद्र की उस पुत्री का कटिभाग सुंदर था और साक्षात कामदेव का स्वरूप या। आकाश में विवरने वाली रोहिणी की भांति उसने पतिव्रत धारण कर रखा था।

  • राज्याधिग्रहण-

वैवस्वत मनु के वंश में इक्ष्वाकु--के पुत्र राजा हर्यश्व को उनके बड़े भाई ने राज्य से निकाल दिया, जिससे वे अपनी पत्नी सहित अयोध्या से बाहर वन में रहते थे। उस समय उनकी कमललोचनी पत्नी ने पति से कहा, राजन, आप अयोध्या का राज्य पाने का विचार बिल्कुल छोड़ दें। आप मेरे पिता मधु के यहां चलें। वहां मधुवन नाम का सुंदर वन है, जहां मनोवांछित फल ,फूल तथा पेड़ हैं। वहां हम ऐसा आनंद करेंगे जो स्वर्ग में ही सुलभ हो सकता है। आप मेरे माता-पिता के प्रेम-पात्र है और मुझे प्रसन्न रखने के कारण मेरा भाई लवण भी आपसे विशेष प्रेम करता है। वहां जाकर हैम दोनों साथ -साथ रह करराज्य पर बैठे हुए दम्पतियों  की तरह इच्छा अनुरूप वस्तुओं का उपभोग करते हुए रमन करेंगे। अपनी राजधानी के समान उस स्थान पर हमें आनंद मिलेगा और हम ऐसा विहार करेंगे जैसे नन्दनवन में देवांगना तथा देवता विहार करते हैं।दास की भांति दूसरे के आश्रित होकर रहना अच्छा नहीं है। अतः इस निन्दित निवास को धिक्कार है। यद्यपि राजा हर्यश्व  को अपने बड़े भाई के प्रति अच्छा वर्ताव था और काम से पीड़ित होने के कारण उस नरेश को पत्नी की बात पसन्द आ गयी। राजा हर्यश्व अपनी कामवती पत्नी मधुमती के साथ  मधुपुर चला गया।

वहां दानवराज मधु ने उससे सांत्वनापूर्वक कहा--- "बेटा हर्यश्व! तुम्हारा स्वागत है। तुम्हें देखकर मैं प्रसन्न हो गया। 

  • राज्य विस्तार-

यह जो मेरा सारा राज्य है, उसे मैं केवल मधुवनको छोड़कर तुम्हें सौंप रहा हूँ। तुम यहाँ निवास करो।इस वनमें यह मेरा पुत्र लवण भी तुम्हारा सहायक होगा तथा शत्रुओंका निग्रह करनेमें यह तुम्हारे लिये कर्णधारका काम देगा। तुम समुद्रके जलप्राय प्रदेशसे विभूषित इस शुभ राष्ट्रका पालन करो। यह गौओंसे समृद्ध और लक्ष्मीसे सेवित है तथा इसमें अधिकतर आभीर जातिके लोगोंका निवास है। तात !

यहाँ रहनेपर महान् एवं दुर्गम गिरिपुर (गिरिनार या रैवतक पर्वतसे मिला हुआ नगर) तुम्हारी राजधानीके रूपमें प्रतिष्ठित होगा। यह महान् सुराष्ट्र राज्य समुद्रके निकट और जलप्राय प्रदेशसे युक्त है। यहाँ किसी प्रकारका रोग नहीं होता। तुम्हारा विशाल एवं विस्तृत राज्य आनर्त नाम से विख्यात होगा। पृथ्वीनाथ ! मेरा विश्वास है कि कालयोगसे वह अवश्यम्भावी है। तुम समयानुसार उत्तम राजोचित बर्तावका आश्रय लेकर यहाँ रहो। तुम्हारा यह वंश ययाति एवं यदुके वंशमें मिल जायगा। चन्द्रवंशके भीतर तुम्हारा वंश चलेगा (सूर्ववंशसे उसका कोई सम्बन्ध नहीं रह जायगा। तात! यही मेरा विभव है। मैं तुम्हें यह उत्तम राज्य देकर तपस्याके लिये लवण-समुद्रको चला जाऊँगा। 'तात! तुम लवणके साथ रहकर अपने वंशकी वृद्धिके लिये इस समस्त उत्तम राज्यका पालन करो'  तब 'बहुत अच्छा' कहकर राजा हर्यश्व ने उस पुरी को ग्रहण किया; फिर वह दैत्य तपस्याके लिये समुद्रको चला गया 'अमरों के समान महातेजस्वी हर्यश्व ने दिव्य एवं श्रेष्ठ गिरिवर (रैवतक) के समीप अपने रहनेके लिये एक नगर बसाया । आनर्त नामसे प्रसिद्ध वह गोधनसम्पन्न राष्ट्र सुराष्ट्र कहलाया और थोड़े ही समय में समृद्धिशाली हो गया ।

जलप्राय देशमें समुद्रतटवर्ती वनोंसे विभूषित, विचित्र, खेतों और हरी-भरी खेतीसे सुशोभित, परकोटों और गाँवोंसे युक्त तथा धन-धान्यसे सम्पन्न उस राष्ट्रपर राष्ट्रको वृद्धि करनेवाले राजा हर्यश्व शासन करने लगे और राजधर्म एवं यशसे प्रजाका आनन्द बढ़ाने लगे। महामना हर्यश्वके उत्तम आचार-व्यवहारके कारण वह अक्षोभ्य राष्ट्र उत्तम राष्ट्रके गुणोंसे सम्पन्न हो निरन्तर उन्नति करने लगा। राज्यपर स्थित होकर राजोचित बर्तावसे सुशोभित होनेवाले उन राजा हर्यश्वने सदाचार और उत्तम नीतिसे अपने कुलके लिये उचित लक्ष्मी प्राप्त कर ली। पुत्रकी इच्छा रखनेवाले उन्हीं सदाचारी एवं बुद्धिमान् हर्यश्वके मधुमतीके गर्भसे महायशस्वी यदुका जन्म हुआ।

महातेजस्वी यदुका स्वर दुन्दुभि-निनादके समान गम्भीर था। वे राजोचित लक्षणोंसे सम्पन्न होकर दिनोंदिन बढ़ने लगे। शत्रुओंके लिये वे सर्वथा दुर्जय थे। हर्यश्व का वह पुत्र यदु नाम-से ही विख्यात हुआ। यदु राजोचित लक्षणोंसे सम्मानित थे, ठीक उसी तरह जैसे उनके पूर्वज राजा महायशस्वी पूरु सम्मानित होते थे । महामना हर्यश्वके एक ही पुत्र यदु हुए। वे परम सुन्दर, बलवान् और पृथ्वीका भरण-पोषण करने में समर्थ थे।

कहते हैं, जैसे ब्रह्माजीके मानसपुत्र वसिष्ठ किसी कारणवश मित्रावरुण के अंशसे नूतन शरीर धारण करके प्रकट हुए; फिर भी वसिष्ठ ही बने रहे, उसी प्रकार ययाति पुत्र महाराज यदु ही योगबल से हर्यश्व के पुत्ररूप में प्रकट हुए थे और उसी पूर्व नामसे प्रख्यात हुये। उन्ही यदू के पुत्र यादव कहलाये। यदु से सर्पराज धूम्रवर्ण की पाँच नाग-कन्याओं से पैदा हुए पाँच पुत्र  महाबाहु मुचुकुन्द, पद्यवर्ण , सारस ,माधव तथा हरित हुए, जिन्होने कमशः विन्ध्य, ऋक्षवान तथा सह्य आदि पर्वतों में राज्य स्थापित किया।

राजर्षि मुचुकुन्द ने विन्ध्यपर्वत के मध्यवर्ती स्थान को पसंद किया तथा उसके शिखर पर महान अश्मसंघात (प्रस्तर -समूह ) से युक्त नगरी  माहिष्मतीपुरी तथा एक देवपुरी के समान "पुरिका "नाम वाली पूरी वसायी।

राजर्षि पद्यवर्ण ने पद्यवत राज्य स्थापित किया जिसकी राजधानी करवीरपुर हुईं। राजा सारस ने क्रौंजच महान नगर का निर्माण कराया।उस नगर का महान समृद्ध जनपद " वनवासी "नाम से विख्यात हुआ।

इस प्रकार मधु की पुत्री मधुमती एवं राजा हर्यश्व के वंश ने सर्वप्रथम दक्षिण भारत तथा द्वीपांतर में यदुवंश का राज्य स्थापित किया। महिष्मती, पुरिका, कौंचपुर, वनवासी, करवीरपुर आदि नगर उन्होंने स्थापित किए तथा अभेद्य दुर्ग-पंक्तियां बनवाई। यदु के ज्येष्ठ तथा धर्मज्ञ पुत्र युवराज़ माधव ने पिता का राज्य संभाला जो रैवत के समीप था। इस प्रकार यह यदुवंश इक्ष्वाकुवंश से निकला है ।फिर यदु के चार छोटे पुत्रों द्वारा यह चार अन्य शाखाओं में विभक्त हुआ है।वे राजा यदु अपने बड़े पुत्र यदुकुलपुङ्गव माधवको अपना राज्य दे इस भूतलपर शरीरका परित्याग करके स्वर्गको चले गये। माधवका पराक्रमी पुत्र सत्त्वत नामसे विख्यात हुआ। वे गुणवान् राजा सत्त्वत राजोचित गुणोंमें प्रतिष्ठित थे और सदा सात्त्विक वृत्तिसे रहते थे। सत्त्वतके पुत्र महान् राजा भीम हुए, जिनसे भावी पीढ़ीके लोग 'भैम' कहलाये। सत्त्वतसे उत्पन्न होनेके कारण उन सबको 'सात्त्वत' भी माना गया है। जब राजा भीम आनर्त देशके राज्यपर प्रतिष्ठत थे, उन्हीं दिनों अयोध्यामें भगवान श्रीराम भूमण्डलके राज्यका शासन करते थे। उनके राज्यकालमें शत्रुघ्नने मधुपुत्र लवणको मारकर मधुवनका उच्छेद कर डाला।उसी मधुवनके स्थानमें सुमित्राका आनन्द बढ़ानेवाले प्रभाव शाली शत्रुघ्नने इस मथुरापुरीको बसाया था। जब श्रीरामके अवतारका उपसंहार हुआ और श्रीराम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न सभी परमधामको पधारे, तब भीमने इस वैष्णव स्थान (मथुरा) को प्राप्त किया; क्योंकि (लवणके) मारे जानेपर अब उस राज्यसे उन्हींका लगाव रह गया था। (वे ही उत्तराधिकारी होने योग्य थे।) भीमने इस पुरीको अपने वशमें किया और वे स्वयं भी यहीं आकर रहने लगे। तदनन्तर जब अयोध्या के राज्य पर कुश प्रतिष्ठित हुए और लव युवराज बन गये, तब मथुरामें भीम पुत्र अन्धक राज्य करने लगे ।

 हर्यश्वके पुत्र यदु मधुकी पुत्री मधुमतीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे, अतः वे मधुके दौहित्र थे। नानाके पुत्र न हो तो उसकी सम्पत्ति दौहित्रको ही प्राप्त होनी चाहिये- यह शास्त्रका नियम है, अतः लवणासुरके मारेजानेपर यदुपौत्र भीम ही उस समय उस राज्यके अधिकारी हुए।

  • श्रीमद्भभागवत के अनुसार-

कीर्तिवीर्य अर्जुन के सौ पुत्र थे, किंतु उनमें पाँच ही शेष बचे। वे सभी अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञाता, बलवान्,  और यशस्वी थे। उनके नाम ये हैं -शूरसेन, शूर, धृष्ट, कृष्ण और जयध्वज। इनमें जयध्वज अवन्तीदेशके महाराज थे ।कार्तवीर्य के ये सभी पुत्र बलवान् और महारथी थे। जयध्वजके पुत्र महाबली तालजङ्घ हुये ।तालजङ्घ के सौ पुत्र थे, जो तालजङ्घ नामसे ही विख्यात थे।

मनस्वी हैहयोंके कुलमें वीतिहोत्र, सुजात, भोज, अवन्ति, तौण्डिकेर, तालजङ्घ तथा भरत आदि क्षत्रियोंके समुदाय उत्पन्न हुए। इनकी संख्या बहुत होनेके कारण इनके पृथक् पृथक् नाम नहीं बताये गये। राजन्! वृष आदि बहुत-से पुण्यात्मा यादव इस पृथ्वीपर उत्पन्न हुए थे। उनमें वृष वंश-प्रवर्तक हुए। वृष्के पुत्र मधु थे। मधुके सौ पुत्र हुए, जिनमें वृषण वंश चलानेवाले हुये।वृषणसे जो संतान-परम्परा चली, उसके अन्तर्गत सभी क्षत्रिय वृष्णि कहलाये और मधुके वंशज माधव नामसे प्रसिद्ध हुए। इसी प्रकार यदुके नामपर उस वंशके लोग यादव कहलाते हैं तथा आगे होनेवाले हैहयके वंशज हैहय कहे जाते है। 

  • बाल्मीकि रामायण वर्णन-

यादववंश के प्रतिष्ठापक मधु स्वयं असाधारण वीर, परम धार्मिक, व्यवहार में मृदु तथा आचारवान व्यक्ति थे। वालमीकि ने मधु के संबंध में भृगुवंशी च्यवन ऋषि से इस प्रकार कहलवाया है-

सतयुग में एक बड़ा बलवान दैत्य  था। वह लोला का जयेष्ठ पुत्र था। उस महान असुर का  नाम मधु था। वह दैत्य ब्राह्मण -भक्त, बुद्धिमान, शरणागत वत्सल था।उसकी बुद्धि सुस्थिर थी ।अत्यन्त उदार स्वभाव वाले देवताओं के साथ भी उसकी गहरी  मित्रता थी जिसकी कहीं तुलना नहीं थी।।मधु बल-विक्रम से सम्पन्न था और एकाग्रचित होकर धर्म के अनुष्ठान में लगा रहता था। उन पराक्रमी तथा धर्मात्मा दैत्य मधु ने कई हजार वर्ष तक भगवान शिव  को प्रसन्न करने के लिए बड़ी आराधना की थी।

'शिव जी ने तप से प्रसन्न होकर बड़े सम्मान के साथ उसे अदभुत वर प्रदान किया था। महामना भगवान शिव ने अपने त्रिशुल से एक चमचमाता हुआ परम शक्तिशाली शूल प्रकट करके उसे मधु को देते हुए भगवान शिव ने कहा कि- हे दैत्यराज, तुमने मुझे प्रसन्न करने वाला यह बड़ा अनुपम धर्म किया है ।मैं तुम्हारी धर्मनिष्ठा से प्रसन्न होकर यह उत्तम आयुध तुम्हे प्रदान करता हूं। असुरराज जब तक तुम देवताओं व ब्राह्मणों से विरोध नहीं करोगे, तभी तक यह शूल तुम्हारे पास रहेगा और उनका विरोध करते ही यह अदृश्य हो जाएगा। "जो पुरुष निःशंक होकर तुम्हारे सामने  युद्ध के लिए आयेगा, तब तुम निर्भय होकर इस शूल का प्रहार करना। उसका संहार करके यह शूल पुनः तुम्हारे हाथ में लौट आयेगा।

  • "भगवान रुद्र से ऐसा वर पा वह महान असुर महादेवजी को प्रणाम करके फिर इस प्रकार बोला-

' तब मधु ने से प्रार्थना की यह परम उत्तम शूल मेरे वंशजों के पास भी सदा रहे। समस्त प्राणियों के अधिपति महान देवता भगवान शिव ने उस प्रार्थना पर एक सशर्त वर दिया कि यह शूल तुम्हारे  एक पुत्र के पास रहेगा। "

यह शूल जब तक तुम्हारे पुत्र के हाथ में रहेगा, तब तक वह समस्त प्राणियों के लिए अवध्य रहेगा।मधु धर्माचार को मानने वाले थे, परंतु वीरता में अद्वितीय थे ।इसी वीरता की बदौलत मधु ने समुद्र पर्यंत शासन किया। 

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  • यदुवंशी मधु द्वारा लंका से कुम्भीनसी का हरण-

जब मधु ने सुना रावण देवताओं , दानवों तथा राक्षसों की कन्याओं का अपहरण कर रहा है. तो वह लंका गया और लंका में रावण के रंग महल  से  उसके नाना सुमाली के बड़े भाई माल्यवान की पुत्री (रावण की  मौसेरी बहिन) कुंभीनसी को हर लाया तथा उसने विवाह किया।मेघनाद तथा विभीषण बैठे -बैठे तप करते रहे तथा कुम्भकर्ण सोते रहे। किसी को उसे रोकने का साहस नहीं हुआ।बाल्मीकि रामायण के अनुसार कुम्भीनसी विश्वावसु की संतान थी। उसका जन्म अनला के गर्भ से हुआ था।कुम्भीनसी बड़ी कान्तिमती थी।

  •  रावण को हुई थी बौखलाहट-

जब रावण लौटकर आया तो विभीषण ने कहा कि कन्याहरण का आपको यह परिणाम मिला है। इस पर बौखला कर रावण ने मेघनाद तथा कुम्भकर्ण को साथ लिया और चार अक्षौहिणी सेना तथा अनेक राक्षसों को साथ लेकर मधुपुरी पर आक्रमण किया।

परंतु मधुपुरी आते-आते रावण के मनसूवे पलट गए। जिस समय रावण मथुरा आया, मधु सो रहे थे। मधु की पत्नी कुंभीनसी ने जो महाबली मधु तथा रावण के युद्ध का भीषण परिणाम जानती थी. भाई को समझाया कि आप युद्ध न करे। रावण ने भी, जो मधु को मारने गया था ,कुंभीनसी को देख कर उसे आशीर्वाद दे दिया तथा पूछा - क्या कार्य करू जो तुझे प्रिय हो?

इस पर कुंभीनसी ने स्वाभाविक रीति से कहा कि यदि आप मेरा प्रिय कार्य करना ही चाहते है तो पहले यह बताए कि मेरे पति को क्यों मारना चाहते है? इस पर रावण ने अपने मन की बात कही। उसने कहा- तुम अपने पति को बुलाओ। मैं उनको साथ लेकर देवताओं को जीतने स्वर्ग जाऊंगा।

  • तब कुंभीसनी ने अपने पति को जगाया और कहा---

मेरे बलवान भाई रावण यहां आए है। वे देव-लोक को जीतने के लिए आपको अपनी सहायता में लेकर जाना चाह‌ते हैं। आप अपने इष्ट मित्रों को साथ लेकर उनके साथ हो जाइए। मधु ने कुंभीनसी की बात मानकर रावण का स्वागत सम्मान किया और एक रात रह कर रावण कैलाश पर्वत की कुबेरपुरी के लिए चल दिया।

परंतु इन्द्र तथा रावण के युद्ध का जो वर्णन किया गया, बहां रावण के नाना सुमाली से लेकर पचासों वीरों के नामों का वर्णन किया गया है. परंतु मधु का नाम नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि देवताओं के मित्र मधु ने रावण का साथ नहीं दिया, जिसके परिणामस्वरूप देवतओं ने रावण को बांध लिया और वह मेघनाद की सहायता से ही छूटा।

मधु का स्वभाव यदि मीठा था तो उसकी मिठास को तो मधुमती ने लिया और बल लवण ने।लवण को  अपनी बहिन मधुमती बहुत प्रिय थी। वह बलवान तो था ही, परंतु नीतिमान और चरित्रवान भी था। जब ऋषियों  से रामजी ने पूछा --उसके दुष्कर्म क्या है? तो केवल यही बतला सके कि उसने आपके पूर्वज मांधाता को हरा कर मार डाला था और यह सब कुछ खाता है। लेकिन च्यवन ऋषि की शिकायत से पहले ही लवण ने अपने खारी स्वभाव के अनुरूप राम को चुनौती दी थी।

  • ऐतिहासिक महत्व

इतिहास की दृष्टि से मधु के सबसे महत्वपूर्ण कार्य दो थे। एक तो शूल की प्राप्ति और दूसरी मथुरा नगरी की स्थापना। शूल का प्रयोग लोहे के शस्त्रों के प्रयोग का प्रारंभ है और इसी कला के कारण यदुवंशी द्वापर युग तक अविजित रहे और उनका अंत भी इन्ही शूलों के कारण हुआ। एशिया मायनर में हिट्टाइट  और मिट्टानी जाति का जो इतिहास मिला है, उससे पता लगता है कि पूर्व से बरछीधारी एक जाति ने काबुल तथा उसके उत्तर में अनेक जातियों पर विजय की थी।

मधु द्वारा शिव को सिद्ध करके तप का भी ऐतिहासिक प्रमाण  यह है कि डा० आनंदकुमार स्वामी के अनुसार ऐतिहासिक काल में सर्व प्रथम  शिवलिंग का निर्माण मथुरा में ही हुआ में ही हुआ। उससे पूर्व हड़प्पा के मोहन- जो- दड़ोशिश्ने देवी की मूर्ति मिली थी।रोपड से लेकर लोथल तक  सिधु-सभ्यता के जो संबंध मिले है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि  यह सारा क्षेत्र मधुवन तथा उसके वंशधरों के अधिकार में रहा, ऐसी सभ्यता व विचारधारा का केंद्र था।

मथुरा नगर की स्थापना मधु के नाम पर हुई यह निर्विवाद है। पहले इसका नाम मधुपुरी या मधुरा था. वो बाद में मथुरापुरी हो गया। मधुरा के द्वारा मधु ने सभ्यता को , नगर तथा दुर्ग-निर्माण कला प्रदान की। हरिवंश पुराण  में लिखा है- पृथ्वी पर मथुरा नामक प्रसिद्ध एक सुंदर पुरी है। ठीक यमुना पर बसने बाली उस समृद्धिशाली नगरी को अनेक जनपद सुशोभित किए हुए है। युद्ध में कभी पराजित न होने वाला, सपूर्ण प्राणियों को भय देने वाला अपार बलशाली और मधु नाम से प्रसिद्ध एक श्रेष्ठ दानव उसी पुरी में निवास करता था। वहां वह रहता था, वहीं मधुवन नामक विशाल वन था।

  • महर्षि वाल्मीकि ने मधु द्वारा स्थापित मधुपुरी का बड़ा सुंदर वर्णन किया है। उन्होंने लिखा है-

महादेव जी से इस प्रकार अत्यन्त अद्भूत वर पाकर असुरश्रेष्ठ मधु ने एक सुन्दर भवन तैयार कराया ,जो अत्यंत दीप्तिमान था । जब लवण को मारकर शत्रुघन जी  मथुरा नगर में घुसे तो उन्होंने देखा कि वह नगरी यमुना किनारे अर्द्धचंद्राकार बनी थी। उसमें बहुत से सुंदर घर, गली , सड़क और बाजार बने थे। उसमें बड़े-बड़े व्यापारी और चारों वर्ण के लोग रहते थे।

उस नगर में लवण ने जो श्वेतमहल (संगमरमर का होगा) बनवाया उसे शत्रुघ्न ने अनेक तरह से सजाकर सुसज्जित किया। उसके चारों ओर उपवन व बिहार स्थान शोभित थे। देवता और ब्राह्मणों से वह नगरी शोभित होरही थी। अनेक देशों के व्यापारी आते और अनेक तरह की वस्तुओं से नगरी को सुशोभित करते थे।शत्रुघ्न उस पुरी को सब तरह से अन्न तथा धन-धान्य से पूर्ण देखकर बड़े प्रसन्न हुए।'

  • राम का प्रलोभन

जब च्यवन आदि भार्गव ऋषि लवण की शिकायत करने राम के पास गए थे और उन्होंने राम को याद दिलाई थी कि उनके पूर्वज मांधाता को इस लवण ने नष्ट कर दिया तो रामचंद्र जी ने शत्रुध्न को आज्ञा दी कि वे लवण को मारने जाएं। इसके पुरस्कार स्वरुप राम ने यह प्रलोभन दिया-

राज्ये त्वामभिषेक्ष्यामी मधोस्तु नगरे सुधे।

नगरं यमुनाजुष्टं तथा जनपदान्शुभान् ।।

अर्थात, मैं मधु के सुंदर नगर का तुम्हें अभिषेक करूंगा। यह नगर यमुना के किनारे बसा है और उसके चारों तरफ सुंदर रूपधारी स्त्री-पुरुषों के जनपद हैं।

  • हरिवंश पुराण के अनुसार लवण ने राम को कहलवाया-

हे राम, मैं सुप्रसिद्ध शत्रु तुम्हारे निकट विराजमान हूं। किंतु राजा लोग बलाभिमानी वैरी को पास रखना पसन्द नहीं करते। जो राजनीति में निपुण है तथा जिसे प्रजाओं के हित की एवं समृद्धिशाली राज्य की अभिलाषा लगी हुई है, उस राजा को चाहिए कि संपूर्ण शत्रुओं को जीत ले।

'अभिषेक के जल से केश भिगोकर रखने वाले तथा प्रजाओं को प्रसन्न करने के अभिलाषी नरेश पहले इंद्रियों पर विजय प्राप्त करें। क्योंकि इंद्रिय निग्रही होने पर विजय निश्चय है। जो भलीभांति व्यवहार करना जानता है तथा विशेषतः जो पृथ्वी का शासक है, उसे नीति का उपदेश प्राप्त करने के लिए जगत के समान दूसरा कोई गुरू नहीं है।

जो बुद्धिमान, अत्यंत बलवान, व्यसनों को हेय समझने वाला तथा धर्मात्मा नरेश है , उसे सामंत शत्रु का भय नहीं हो सकता। अपनी ही इंद्रियां काबू से बाहर हो जाने पर शत्रुओं को प्रसन्न करा देती है। उनसे तथा मोह रखने के कारण सभी लोग शक्ति रखते हुए भी अधीर होकर फंस जाते हैं। तुमने मोह वस स्त्री के लिए सपरिवार रावण को मार डाला, यह कार्य अत्यंत घृणित है। मैं इसे मुक्तियुक्त नहीं मानता। उस समय तुम व्रत लिए हुए वन में डहरे थे , इसलिए राक्षसों को मार डालना यह असज्जनोचित कार्य है।

क्रोध रहित धर्म ही श्रेष्ठ पुरुषों को उत्तम गति देता है किंतु मोह में पड़ कर किए गए तुम्हारे  इस व्यवहार में आश्रमवासी भी दूषित हो गए। तुम व्रती थे, इस लिए तुम्हारे हाथ से स्त्री के लिए संग्राम में मर कर रावण तो धन्य हो गया। हो न हो, वह अजितेंद्रिय व बुद्धिहीन था, अतएव तुमने उसके प्राण हर लिए। तुम में यदि ताकत हो तो अब मेरे साथ संग्राम करो।

राजा राम ने मुस्कुराकर इस चुनौती को सुना और कहा- 'हो सकता है कि वन में मुझसे अविवेक हो  गया हो ,परंतु इस चुनौती का उत्तर शत्रुघ्न देंगे। जब शत्रुघन युद्व के लिए चलने लगे तो राम ने उन्हें जो सीख दी, वह लवण की वीरता की सबसे बड़ी साक्षी है। उन्होंने शत्रुघ्न को गोदी में बैठाकर कहा , हे वीर, लवणासुर को मारने के लिए यह बाण लो। यह सर्वश्रेष्ठ बाण किसी को दिखाई नहीं देता। स्वयंभू ने मधु जैसे दैत्यों को मारने के लिए यह बाण बनाया था। रावण का संहार करने को भी मैंने इस बाण को नहीं चलाया, कारण कि इससे संसार भर के प्राणियों में आतंक छा जाता।

'भगवान शंकर ने मधु को जो शूल दिया है, उस दिव्य शुल को वह घर में रखकर उसका पूजन करता है। उसे छोड़कर वह भोजन के लिए ही बाहर जाता है। अतएव जब वह शस्त्र रहित होकर भोजन को निकले तुम उसके लौटने के पूर्व ही शस्त्र से सज कर द्वार पर खड़े हो जाना। वह आए तो घर में घुसकर जाने से पह‌ले ही दैत्य को युद्ध के लिए ललकारना। इसी तरह तुम उसको मार सकोगे। इसके विरुद्ध करने से वह नहीं मरेगा। तुम मेरी बात मानकर करना, नहीं तो शंकर का वह शूल अमोघ है।'

शत्रुघ्न ने यही किया। राम ने यह भी कहा कि तुम अपने साथ हाथी-धोड़े. नट-नर्तक व व्यापारी ले जाना और सेना पीछे छोड़ देना और मधुवन में अकेले जाना, जिससे लवण को यह पता न लगे कि तुम युद्ध के लिए आए हो। शत्रुघ्न ने यह भी किया।

रामायणकार का कथन है कि फिर भी लवण ने बाणों की झड़ी की परवाह नहीं की और हंसते हुए एक वृक्ष  उखाड़कर शत्रुघ्न को अचेत कर दिया। वाल्मीकि के अनुसार लवण को तब समय मिला था कि शूल ले आता, परंतु वह शत्रुघ्न को तुच्छ समझ कर और मृतक मानकर नहीं गया तथा अपने भोज्य जीवों को लेकर चल दिया।

मथुरावासियों की भूल का यह परिणाम निकला कि शत्रुघ्न ने उठकर राम का दिया हुआ बाण चला कर लवणासुर को मार दिया। उस बाण से पृथ्वी प्रकंपित हो गयी।ब्रहमा जी ने यह कहकर देवताओं को सांत्वना दी कि लवण का नाश हो रहा है। इस घटना के 18 वर्ष बाद मथुरा पुनः बस सकी।

परंतु मथुरा बहुत दिनों तक रघुवंशियों के हाथ में न रह सकी। जब भगवान रामचंद्र अयोध्या पर राज्य कर रहे थे, हर्यश्व के पौत्र सात्वत भीम आनर्त के राजा थे और उनके बाद उनका पुत्र अंधक राजा हुआ।

जब राजा कुश अयोध्या के राजा थे, तब अंधक ने मथुरा का अपने नाना का राज्य पुनः प्राप्त कर लिया। आगे चलकर इसी अंधक के वंश में राजा उग्रसेन व उनके पुत्र कंस हुए।

सन्दर्भ-

  1. श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण ,उत्तरकाण्ड ,61 सर्ग ,पृष्ठ -975-986.
  2. श्री हरवंश पुराण  विष्णुपर्व ,पृष्ठ 361-370
  3. श्रीमद्भागवत
  4. विष्णुपुराण
  5. पद्यपुराण
  6. गर्गसंहिता
  7. प्राचीन भारतीय इतिहास का वैदिक युग -लेखक सत्यकेतु विद्यालंकार
  8. ब्रज के धर्म -सम्प्रदायों का इतिहास -डा0 प्रभुदयाल मीतल ।
  9. ब्रज का इतिहास (भाग 1, 2 -डा 0 कृष्णदत्त वाजपेयी ।
  10. ब्रज का सांस्कृतिक इतिहास -प्रभुदयाल मीतल ।
  11. प्राचीन भारत का इतिहास एवं संस्कृति -डा0 कृष्ण चंद श्रीवास्तव ।
  12. मथुरा जनपद का राजनैतिक इतिहास - प्रोफेसर चिंतामणि शुक्ल ।
  13. प्राचीन भारत में हिन्दू राज्य -लेखक बाबू वृन्दावनदास ।
  14. पोलिटिकल हिस्ट्री ऑफ ऐशियन्ट इंडिया पंचम संस्करण कलकत्ता ,1950, -राय चौधरी  ,
  15. ग्रॉउज -मेमोयर द्वियीय संस्करण इलाहाबाद ,1882
  16. कनिघम -आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया -एनुअल रिपोर्ट जिल्द 20 (1882-83 ) .
  17. मथुरा के यमुना तटीय स्थलों का सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास -जयन्ती प्रसाद शर्मा ।
  18. यदुवंश का इतिहास -लेखक श्री महावीर सिंह यदुवंशी ।
  19. ब्रिज सेंटर ऑफ कृष्णा पिलग्रीमेज -लेखक ऐंटीविस्तले एवं फॉस्टन 1987

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