विशेष लेख: ऐतिहासिक गौरवमय गाथा- रणथम्भौर के चौहान शासकों की शौर्यपताका, बलिदान, वीरता एवं राष्ट्रभक्ति की ।
दुर्ग के निर्माण के बारे में कोई प्राचीन शिलालेख अथवा ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। चौहान वंश से जुड़ी ऐतिहासिक सामग्री (historical study) में भी...

रणथम्भौर के चौहान शासकों की शौर्यपताका, बलिदान, वीरता एवं राष्ट्रभक्ति की गौरवमय गाथा का एक ऐतिहासिक अध्ययन (historical study)।
रणथम्भौर दुर्ग का निर्माण -
दुर्ग के निर्माण के बारे में कोई प्राचीन शिलालेख अथवा ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। चौहान वंश से जुड़ी ऐतिहासिक सामग्री (historical study) में भी इसके निर्माण का उल्लेख नहीं मिलता है। प्राप्त अभिलेखों के अनुसार 10वीं शताब्दी से पहले बयाना का दुर्ग (जिला भरतपुर) ही इस पूर्वांचल का एकमात्र विशाल दुर्ग था। जिस पर यदुवंशी राजाओं का मौर्यकाल के समय से ही शासन चला आ रहा था। उनके अधीन कई किले थे। यदुवंशी जो श्रीकृष्ण के वंशज कहलाते है।
सन् 1018-45 में मुस्लिम आक्रान्ता मोहम्मद गज़नवी एवं अबूबक्र कन्धारी जैसे मुस्लिम आक्रांतों द्वारा मध्यभारत, महावन , मथुरा तथा बयाना पर कब्जा कर लेने के बाद पलायन कर भागे यदुवंशियों द्वारा चंबल एवं बनास नदीयों के किनारे-किनारे वन प्रदेशों में अनेक किलों यथा; त्रिभुवनगिरि / तिमनगढ़, मंडरायल, करौली (धूलकोट), शेरगढ़, खण्डार, रणथम्भौर आदि के निर्माण 10वीं सदी के दौरान कराये गये थे।
वर्तमान राजस्थान के पूर्वांचल के पर्वतीय वन प्रान्तों में प्राचीन जनपदों (मालव, यौधेय) की समाप्ति के बाद यदुवंशियों का ही अधिकार रहा है जो शूरसेन राज्य से निकले थे। आज भी इस अंचल की बोली और खानपान पर भी ब्रज भाषा का प्रभाव यथावत है।
यदुवंशी महाराज विजयपाल मथुरा छोड़कर पूर्वी राजपुताने के बयाना नगर में आये और लगभग सन् 995 ई oमें मानी नामक पहाड़ी पर अपने नाम से विजयमन्दिरगढ़ दुर्ग बनवाया । अबूवक्र खंदारी से संघर्ष में महाराजा विजयपाल संवत 1173' ईस्वी सन 1044 में मारे गये। इनके 18 पुत्र थे, जिनमें से कुछ बयाना युद्ध में मारे गए और जो भी बचे थे उन्होंने पलायन कर चंबल के किनारे-किनारे वन प्रान्तों में नये दुर्ग, मीणा-गुर्जर जनजाति के सहयोग से बनवाये थे। लोकभाषा में यादव को जादव भी कहा जाता है ।सवाई माधोपुर-गंगापुर रेल्वे लाईन पर नारायणपुरा टटवारा एक स्टेशन है। टटवारा कभी टाटू शाखा के जादौ राजाओं की राजधानी थी।
कुवांल जी से प्राप्त शिलालेख के अनुसार रणथंभौर में टाटू यदुवंशी क्षत्रियों और परमारों का युद्ध होने की जानकारी मिलती है। शोध के दौरान अनेक प्राचीन मूल पाण्डुलिपियों और एक जैन मुनि द्वारा लिखित बहुत पुरानी पुस्तक के कुछ पृष्ठ प्राप्त हुये हैं जिनसे भी रणथम्भौर के निर्माण के सूत्र हाथ लगते हैं। जिनकी सत्यता में संदेह नहीं हो सकता है।
यह किला छोटे रूप में मूलतः जादौ राजपूतों की एक उपजाति टाटू क्षत्रियों द्वारा ही वि. सं. 1001 , सन 944 ई o में बनवाया गया था। चारण और भाटों की विरदावलि में जैनमुनि ने जो पाया, उसे इस प्रकार लिखा गया है:
राजा लूटै, फौजां मोडे, नित उठि करे चौबारा ।
दो नगर टाटूओं के,किला रणतभवंरगढ़-टट्टवारा
टाटू ठाकुर ठेठ के, आदु पीठी राज पीपलंदे। हाथी दियो, मद झरतो गजराज ।।
टाटू राजा जगरौटी (वर्तमान गंगापुर, हिण्डौन क्षेत्र) को अर्द्ध स्वतंत्र जागीर के स्वामी थे। टटवारा में भी उनका एक दुर्ग था। कुवांल जी शिलालेख के अध्ययन से रणथम्भौर का निर्माण वर्ष सन् 944 ई. ज्ञात होता है। वास्तव इस दुर्ग का प्रथम नाम रणत भंवर गढ़ और इसके नीचे बसे गांव का नाम 'रणस्तम्भपुर' था। जो अपभ्रंश होकर रणथम्भौर हो गया है।
टाटू यदुवंशी बड़े ही बहादुर, साहसिक और महादानेश्वरी होते थे। उन्होंने निकटवर्ती खींची, तोमर, परमार राजा-महाराजाओं के गांवों , नगरों को लूट कर इस विषम दुर्ग का निर्माण कराया। टाटू लूटमार करके इस दुर्ग में शरण लेते थे और कोई दुश्मन उनके पास फटक भी नहीं पाता था। शनै: शनै: रणत भंवर गढ़ की अभेद्यता , प्राकृतिक सुरक्षा की ख्याति सर्वत्र फैलने लगी । इस समय अजमेर में चौहानों का राज्य था जो दिल्ली के तंवरों के अधीन थे।उन्होंने अनेक वर्षों तक इस दुर्ग पर अधिकार प्राप्त करने का प्रयास किया ।
- रणथम्भौर दुर्ग पर चौहानों का अधिकार-
ऐसा माना जाता है कि चौहान नरेश बीसलदेव (तृतीय) ने यह दुर्ग जादौ राजाओं की शाखा टाटू के राजा को पराजित कर संवत 1211 (सन् 1155) में हस्तगत किया था।' विग्रहराज (बीसलदेव) अपने समय के एक अत्यन्त प्रभावशाली शासक थे। तत्समय उनके अधिकार में 55 दुर्ग थे। बीसलदेव का एक पुत्र प्रायः खण्डार दुर्ग में ही रहता था, जो रणथम्भौर के दक्षिण में बनास नदी के समीप बना हुआ है।
एक लोककथा प्रचलित है कि टाटू राजा जुहार सिंह यदुवंशी की पुत्री का विवाह शाकम्भरी के चौहान राज परिवार में सारंगदेव चौहान से तय हुआ था। बाराती के रूप में आये चौहान सैनिकों ने विवाह उपरान्त दुर्ग में उपस्थित टाटू राजा के सैनिकों-सामन्तों से लड़ाई एवं मार-काट कर दुर्ग पर कब्जा कर लिया। तब से यह दुर्ग अजमेर के चौहान साम्राज्य का हिस्सा बन गया था।
क्षत्रियों के छत्तीस राजकुलों में चौहान राजपूतों ने वीरता ,शौर्यता ,त्याग ,बलिदान और आन -बान -शान का सम्पूर्ण रक्षण करके भारतभूमि की राष्ट्रीयता और संस्कृति की रक्षा के लिए अपने बाहरी सुखों एवं भोगों का ही नही , बल्कि अपने प्रियतम आत्मीयजनों का और स्वयं के प्राणों का भी बलिदान करने में सदा उत्सुक और तत्पर रहे।ऐसा सर्वानुमते स्वीकार हुआ है और इस प्राचीन एवं गौरवशाली वंश के कई राजपुत्रों की प्रशंसा में प्रत्येक भाषा में पूर्वकाल से ही अनेक काव्य ग्रन्थ रचे हुए है ।स्वतंत्रता ,स्वाभिमान और नेक -टेक की धुन में ही मंच -पंच हठीले चौहानों ने वैभव ,सत्ता तथा राज्य का लोभ नहीं करते हुये कीर्ति का लोभ रखने के कारण कई महान योद्धा मुग़ल शासनकाल में गमा दिए।
- रणथम्भौर चौहान राज्य की स्थापना-
सन् 1192 में पृथ्वीराज (तृतीय) के मौहम्मद गौरी से लड़ते हुए वीरगति प्राप्त होने पर मुस्लिम सेनाओं ने दिल्ली तथा अजमेर दुर्ग पर कब्जा कर लिया था। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार पृथ्वीराज चौहान के वीरगति पाने के बाद मुस्लिम सेनाओं ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया था और फिर अजमेर पर आक्रमण कर उसे भी हस्तगत कर लिया था। दिल्ली सम्राट पृथ्वीराज (तृतीय) चौहान ने अपने पुत्र गोविन्दराज एवं भाई हरिराज को अजमेर एवं मत्स्य प्रदेश (पूर्वी राजस्थान का अधिकांश भाग) का शासन सौंप रखा था। कहा जाता है कि मुस्लिम सेनानायक कुतुबुद्दीन ऐबक (गौरी का गुलाम सेनानायक) से समझौता कर गोविन्दराज ने अधीनता स्वीकार कर ली थी परन्तु चाचा हरिराज को यह कायरता पसंद नहीं आई और उसने राजपूत सैनिकों के साथ कुछ महिनों बाद अजमेर पर हमला कर दिया। तारागढ़ (अजमेर दुर्ग) के पतन के बाद, चौहान वीरों ने हिम्मत नहीं हारी थी। कुतुबुद्दीन ऐबक थोड़े समय अजमेर रहकर अपने सिपहसालारों को जिम्मेदारी सौंपकर दिल्ली चला गया था। तब हरिराज ने अजमेर का दुर्ग वापस लेने के प्रयास किये तथा तारागढ़ पर कब्जा कर लिया। अगले वर्ष मुस्लिम आक्रमण होने पर उसकी रानियों ने जौहर किया एवं स्वयं भी युद्ध करते हुए मारे गये।
- गोविन्दराज (1192-1205)-
पृथ्वीराज के भाई हरिराज ने गोविन्दराज को अजमेर से भगा दिया तब पृथ्वीराज चौहान का पुत्र गोविन्दराज भागकर रणथम्भौर दुर्ग आ गया एवं नव राज्य स्थापित किया। उस युग में चौहान शासकों के पास अजयमेरू (अजमेर) के सबसे निकट उनका सुरक्षित एवं सुदृढ़ दुर्ग रणथम्भौर ही था, जिसमें उनके सामंत रहते थे। उस युग में अजमेर से पूर्व दिशा में एक पुराना व्यापार मार्ग था। यह दुर्ग मात्र 157 किमी. दूर था। गोविन्दराज ने पुराने दुर्ग का जीर्णोद्धार कराकर, नये भवन-महल आदि बनवायें। दुर्ग आने वाले मार्गों पर सैन्य चौकियाँ स्थापित की।
गोविंदराज की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र वाल्हणदेव ने राजगद्दी संभाली। उनके शासनकाल की किसी घटना का उल्लेख नहीं मिलता है। उसके बाद प्रहलादन ने राज्य किया। उसके भाई वाग्भट को मंत्री पद दिया गया। उसी समय सन् 1209 में कुतुबद्दीन ऐबक ने रणथम्भौर पर आक्रमण किया पर वह विजय नहीं पा सका और दिल्ली लौट गया। तत्पश्चात् उसके पुत्र वीरनारायण ने जो सन् 1211 में गद्दी पर बैठा इस दुर्ग का शासन किया।
- वीरनारायण-
जब वीरनारायण ने इस दुर्ग के शासन की बागडोर संभाली, उस समय दिल्ली सल्तनत पर इल्तुमिश का शासन था। लगभग 40 वर्षों तक इस दुर्ग पर निर्वाध रूप से चौहानों का राज्य होने से दुर्ग के वैभव की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई थी। इसलिए मुस्लिम शासक इल्तुमिश भी लोभ संवरण नहीं कर पाया और उसने दुर्ग को प्राप्त करने के लिए सन् 1226 में आक्रमण किया परन्तु चौहान सेनाओं से परास्त हो गया। सैनिक शक्ति से परास्त सुल्तान इल्तुमिश ने वीरनारायण को दिल्ली संधि एवं मैत्रीभाव स्थापित करने हेतु बुलवाया, जहां चालाकी से उसे विष देकर मार दिया गया और अपनी सेना भेजकर उसने दुर्ग पर कब्जा कर लिया।
- वाग्यभट्ट-
इल्तुमिश की मृत्यु के बाद फिरोजशाह दिल्ली की गद्दी पर बैठा। इसी बीच वीरनारायण के चाचा वाग्यभट्ट ने सेना संग्रह करके इस दुर्ग पर आक्रमण कर
सन् 1236 में अपना पुनः अधिकार जमा लिया और चौहान पताका फहरा दी। लगभग 10 वर्ष तक इल्तुतमिश के अधीन दुर्ग रह सका ।
वाग्यभट्ट ने इस दुर्ग पर 12 वर्ष तक राज्य किया। उसकी बहादुरी और पराक्रम का वर्णन तत्कालीन मुस्लिम इतिहासकारों ने अपनी पुस्तकों में खूब किया है। रजिया सुल्तान ने रणथम्भौर पर सन् 1236 और 1237 में अधिकार करने हेतु आक्रमण किये। पहले उसने एक बड़ी मुस्लिम सेना भेजी जिसका मुकाबला चौहान सैनिकों ने बनास नदी के किनारे पर जाकर किया और विजय प्राप्त की। मुस्लिम सेना के परास्त होकर भागने की खबर सुनकर स्वयं रजिया ने विशाल सेना लेकर रणथम्भौर पर चढ़ाई की। एक माह तक सेनायें दुर्ग को घेरे रहीं परन्तु चौहान सैनिकों के आक्रमण और दुर्ग की बनावट के कारण वह किले की दीवारों को छू भी नहीं सकी और अन्नतः निराश होकर लौट गई।
- नाहरदेव-
वाग्यभट्ट की मृत्यु के बाद सन् 1248 में चौहान नरेश नाहरदेव रणथम्भौर के शासक बने। उन्होंने इस दुर्ग की मरम्मत करवाई। उस के समय दुर्ग की कीर्ति सर्वत्र फैल गई और दुर्ग वैभवशाली बना। उसी समय मालवा के शासक जयसिंह द्वितीय ने सन् 1248 में आक्रमण किया परन्तु वह हार कर लौट गया। सन् 1248 में ही उलगू खां नामक सैनिक सरदार ने हमला किया परन्तु वह भी हारा और नागौर की तरफ भाग गया। सन् 1249 में सेनापति बलवन ने आक्रमण किया परन्तु नाहरदेव की सेना ने उसे परास्त कर दिया। हारकर दिल्ली लौटते समय उसने भारी लूटपाट की। सन् 1259 के प्रारम्भ में दिल्ली के सुल्तान नासिररूद्दीन महमूद ने मलिक उल नवाब के नेतृत्व में यहाँ सेनायें भेजी जो हार कर भाग गई। इस प्रकार नाहरदेव के समय में आक्रमणों का सिलसिला चलता ही रहा।
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- महाराजा जयत्रसिंह एवं रणथम्भोर का स्वर्ण युग-
नाहरदेव की मृत्यु के बाद उसका पुत्र जयत्रसिंह गद्दी पर सन् 1263 के आसपास बैठा। अपने शासनकाल में उसने रणथम्भौर के राज्य का विस्तार किया। उसने मालवा के परमार राजा को हराया। महाराजा जयत्रसिंह के समय इस दुर्ग की कीर्ति सर्वत्र फैल गई थी एवं अनेक राजा अधीन हो गये थे। उसने आज के राजस्थान, मालवा और गुजरात तक शासन का विस्तार किया और दिल्ली पर भी हमले किये। उनके समय में रणथम्भौर का स्वर्ण युग आ गया था। जयत्रसिंह की मृत्यु के बाद उनका तीसरा पुत्र इतिहास सिद्ध वीर हम्मीर गद्दी पर बैठा।
- राव हमीरदेव चौहान -
हमीर देव चौहान का जन्म 7 जुलाई 1272 को चौहान वंशी राजा जैत्र सिंह के तीसरे पुत्र के रूप में अरावली पर्वत मालाओं से घिरे हुये रणथम्भोर दुर्ग में हुआ था ।इनकी माता का नाम हीरा देवी था। बालक हम्मीरदेव इतना वीर था कि तलवार के एक ही प्रहार से मदमस्त हाथी का सिर काट देता था ।उसके मुक्के के प्रहार से बिलबिला कर ऊंट धरती पर लेट जाता था ।उसकी वीरता से प्रभावित होकर राव जैत्र सिंह ने अपने जीवन काल में ही 16 दिसंबर 1281 को उनका राज्यभिषेक कर दिया था ।इसका शासन 1281 -1301 तक रहा था।गद्दी पर बैठने के बाद हम्मीर ने दिग्विजय प्राप्त की। आबू ,काठियावाड़ ,पुष्कर ,चम्पा तथा धार आदि राज्यों को इन्होंने अपनी अधीनता मानने के लिए बाध्य किया।मेवाड़ के शासक समरसिंह को परास्त करके उसने अपनी धाक राजपूताने में भी जमा दी उसके बाद उसने 1288 में अपने कुल पुरोहित विश्वरूपा की देख रेख में कोटि यज्ञ किया ।
उसकी समर विजय सेना ने मालवा, माण्डलगढ़, उज्जैन, धारानगरी, अजेय कहलाने वाले दुर्ग चित्तौड़गढ़, आबू, वर्धनपुर, चम्पा, पुष्कर, अजमेर, मेरठ, खंडेला, नरवर, ग्वालियर, करौली, महाराष्ट्र, शाकम्भरी और गुजरात प्रदेशों को अपने अधीन कर लिया। जहां-जहां हम्मीर की विजय वाहिनी सेना जाती, तहलका मच जाता था और बड़े-बड़े नरेश उसका लोहा मानते हुए युद्ध में सामना करने से कतराते थे। इस दिग्विजयी यात्रा के अभियान से उसकी प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गई। इस समय तक रणथम्भौर एक शक्तिशाली राजपूत शक्ति का केन्द्र बन गया था।
वीर शिरमणि अन्तिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के बाद चौहान वंश के इतिहास में राव हमीर देव चौहान ही महान व्यक्तिव ,आन -बान -शान वाले साहसी व् तेजस्वी महान योद्धा थे ।पूर्वी राजस्थान के सवाईमाधोपुर से लगभग 12 किलोमीटर दूर रणथम्भोर अरावली पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा एक विकट ,अजेय ऐतिहासिक दुर्ग रणथम्भौर चौहान राजाओं का एक प्रमुख साम्राज्य रहा है । रणथम्भौर को सर्वाधिक गौरव मिला यहाँ के वीर और पराक्रमी शासक राव हमीर देव चौहान के अनुपम त्याग और बलिदान से ।
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1290ई0 में दिल्ली सल्तनत में वंश परिवर्तन हुआ और जलालुद्दीन खिलजी शासक बना।उसने रणथम्भोर की बढ़ती हुई शक्ति को रोकने के लिए 1290 ई0 में कूच किया और मार्ग में स्थित झैन (झाइन)को जीता ।हिन्दू मंदिरों को लूटा व ध्वंस किया। जलालुदीन ख़िलजी ने रणथम्भौर पर चढ़ाई की तो झाइन पर हमीर की सेना ने सेनापति गुरुदास सैनी के नेतृत्व में भीषण युद्ध किया ।यह स्थान अब छान का दर्रा कहलाता है ।युद्ध में जब हमीर का सेनापति गुरुदास सैनी मारा गया तब सुल्तान की सेना दर्रा पार कर रणथम्भौर पहुंची ।किला फतह करने हेतु उसने मंजीकने लगवायेऔर साबातें बनबाई परन्तु दुर्ग की दुर्भेद्यता और रक्षात्मक तैयारियों को देख कर तथा सभी अथक प्रयासों के बाद भी सफलता न मिलने पर निराश होकर झैन (वर्तमान छान)वापस लौट आया ।उसने अपने सैनिक सरदारों से कहा कि --"वह मुसलमान सैनिकों के जीवन के मूल्य पर इस किले को जितने के लिए तैयार नहीं है क्यों कि वह एक मुसलमान के बाल को भी ऐसे दस किलों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण मानता है ।"अतः वह 2जून 1291 ई0 को वापस दिल्ली लौट गया ।इसके दिल्ली लौटते ही रणथम्भोर के शासक हमीर देव चौहान ने झाइन(आधुनिक छान) पर कब्जा कर लिया ।पुनः 1292ई0 में सुल्तान जलालुद्दीन ख़िलजी ने हमीर पर चढ़ाई की किन्तु इस बार भी विफल रहा और पुनः पराजय पाकर दिल्ली लौट गया।
12 जुलाई, सन् 1296 में जलालुद्दीन की हत्या करके उसका भतीजा अलाउद्दीन खिलज़ी गद्दी पर बैठा। उसे मालूम था कि उसका चाचा दो बार रणथम्भौर से बुरी तरह हार चुका है। इसलिए उसने भी उधर रुख करने की हिम्मत नहीं की। परन्तु विधाता का लेख कौन टाल सकता है। वीर हम्मीर ने उसी समय सुल्तान के विद्रोही मंगोल सरदारों एवं कई मुस्लिम सैनिकों तथा अलाउद्दीन के एक भगोड़े प्रमुख सैनिक सरदार मोहम्मद शाह (महिमासाही) को शरण दी। कहते हैं कि मोहम्मद शाह का बादशाह की एक बेग़म से अनैतिक सम्बन्ध था जिसका पता अलाउद्दीन को लग गया। फलतः मोहम्मद शाह जान बचाने के लिए कई स्थानों पर शरण हेतु भागा। किसी राजा से शरण नहीं मिलने पर वह रणथम्भौर दुर्ग आया, जहाँ राजा हम्मीर ने उसे शरण दी। इससे पहले मोहम्मद शाह, बादशाह जलालुद्दीन के साथ दुर्ग पर आक्रमण करने हेतु आ चुका था। यद्यपि इन मुस्लिम विद्रोहियों को शरण देने के मामले में हम्मीर के सरदारों, सामन्तों ने बहुत विरोध किया, समझाया पर हम्मीर देव ने अभयदान का जो वचन उन्हें दिया, उसे हर कीमत पर पूरा किया। इसलिए प्रसिद्ध है कि -
"सिंह सुवन-सतपुरूष वचन, कदली फलै इक बार।
तिरिया तेल, हम्मीर हठ, चढे न दूजी बार।।"
अर्थात सिंह एक ही बार संतान को जन्म देता है ,सच्चे लोग बात को एक ही बार कहते है ।केला एक ही बार फलता है ।स्त्री को एक ही बार तेल एवं उबटन लगाया जाता है ।ऐसी ही राव हम्मीरदेव चौहान की हठ थी ।वह जो ठानते थे ,उस पर दुबारा विचार नहीं करते थे ।
इन सभी विनाश के संभावित कारणों से बादशाह अलाउद्दीन खिलजी हम्मीर से चिड गया। उसने सन् 1300 ई. में नुसरत खां तथा उलूग खाँ नामक दो सेनापतियों के साथ 80 हजार घुड़सवार तथा एक लाख सैनिकों की विशाल सेना भेजी। मार्ग में अनेक प्रदेशों पर अधिकार करती हुई इस शाही सेना ने दुर्ग को घेर लिया। उलूग खाँ ने एक सन्देशवाहक द्वारा राव हम्मीर के सामने मोहम्मद शाह को वापस लौटाने की मांग एवं कुछ अन्य शर्त भी रखी। जिनमें हम्मीर की कन्या देवलदे का सुल्तान से विवाह, अनेक हाथी-घोड़े और जवाहरातों की मांगें शामिल थी। हम्मीर ने दृढ़ता से इन्कार करते हुए कठोरता से उत्तर भेजा कि "शरणागत की रक्षा मेरा धर्म है। "सुल्तान की कोई भी मांग मानने से उसने इन्कार किया। फलतः युद्ध की चिनगारियां भड़क उठी। मुस्लिम सेनाओं ने पहाड़ों कर परगच एवं सुरंगें बनाना प्रारम्भ कर दिया एवं घेरा कड़ा कर दिया गया।
रावराजा हम्मीर ने महिनों तक इस घेरे की परवाह नहीं की। बाद में उसने भी अपनी विशाल सेना को युद्ध मैदान में उतारा। सेना का संचालन सेनापति भीम ने किया। बारह हजार घुड़सवारों एवं डेढ लाख अन्य सैनिकों की उमड़ती-मचलती राजपूती सेना वे भी अपना पड़ाव बनास के किनारे डाला।
कई दिनों चले युद्ध में भीषण मारकाट हुई, मैदान लाशों से पट गया। किले के ससीप आने वाले आक्रमणकारियों पर दुर्ग की दीवारों से भी ज्वलनशील पदार्थ एवं पत्थर फेंके गये। इस युद्ध में सेनानायक नुसरत खां मारा गया। इससे शाही सेना के पाँव उखड गाये एवं भागने लगी। भागती सेना को उलूग खां ने नियन्त्रित किया एवं पुनः संगठित होकर आक्रमण किया। इस लड़ाई में सेनापति भीम मारा गया।
सारे समाचार पाकर अलाउद्दीन खिलजी स्वयं भी विशाल सेना लेकर रणथम्भौर की तरफ रवाना हुआ। जब बादशाह यहाँ पहुँचा तब उलूग खां का घेरा दुर्ग पर चल रहा था। घेरा डाले सवा वर्ष से अधिक हो चुका था। किन्तु राजा हम्मीर विचलित नहीं हुए। इसी बीच बादशाह के जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव आये, अनेक विद्रोह हुये जिनकी चर्चा करना मैं यहां उचित नहीं समझता। सैनिक बल से विजय न होती देखकर खिलजी ने चालाकी से काम लिया। राजा हम्मीर के मंत्री रणमल, रंतिपाल और असंतुष्ट सामन्त भोजराज को वार्ता-समझौते के बहाने अपने शिविर में बुलाकर और प्रलोभन देकर अपने पक्ष में कर लिया। इन नमक हराम देशद्रोहियों के कारण दुर्भाग्य के इतिहास की पुनरावृति हुई। किले में खाद्यान्न का अभाव पैदा हो गया।
ऐसी स्थिति में अन्तिम युद्ध की तैयारियाँ की गई। सेनापति भीम के मारे जाने का समाचार सुन हम्मीर काफी दुःखी हुआ। उसने दोषी मंत्री को भी दण्ड दिया। विषम परिस्थितियों को देखकर हम्मीर ने आमने-सामने की लड़ाई करने का अंतिम निर्णय लिया। किले के आंगन में बारूद (ज्वलनशील सामग्री) बिछा दी गई ताकि वीर नारियाँ आवश्यकता होने पर जौहर कर सकें। सभी राजपूत केसरिया वस्त्र धारण कर जयघोष करते हुए शाही सेना से दो-दो हाथ करने हिन्दवाड़ की घाटी के मैदान में उतर आये। और दोनों सैन्य दलों की प्रत्यक्ष मुठभेड़ हुई और दो दिन तक यह घमासान युद्ध चला, जिससें दोनों पक्षों के हजारों सेनिकों ने अपने प्राण विसर्जित किये। राव हम्मीर के नेतृत्व में भीषण युद्ध हुआ। राव हम्भीर ने जिस बहादुरी से युद्ध किया, उसकी मिसाल इतिहास के पन्नों पर ढूंढने से भी नहीं मिल पाती है। भीषण मारकाट से शाही सेना में खलबली मच गई। इस बार विजयश्री हम्मीर को मिली। वह दिन था सोमवार, 10 जुलाई, सन् 1301 ई.।
- अद्भुत जौहर-
राजपूत सैनिक, मुस्लिम सेना के झंडे छीनकर अपने दुर्ग की ओर खुशी-खुशी लौटे। वस्तुतः विजय और उल्लास की खुशी में सब लोग भूल गये कि उन्होंने दुर्ग रक्षकों से कहा था "यदि शाही झंडियाँ आती दिखाई दें, तो जौहर कर लिया जावे। यदि हम जीते तो हमारे भगवा झंडे फहराते हुए आयेंगे। "परन्तु रणथम्भौर का नसीब ही ऐसा था कि उसे सुख शांति मिली ही नहीं। दुर्ग में राज परिवार की रानियों, राजकुमारियों, स्त्रियों तथा सैनिकों की लगभग 13 हजार वीरागंनाओं ने महल के पीछे बने सरोवर के समीप सजाई गई चिताओं पर अपने आप को न्यौछावर कर दिया। इतना बड़ा जौहर शायद भारत के इतिहास में होने का कोई दूसरा प्रमाण नहीं मिलता है।तब हमीर सैनिकों सहित किले में पहुंचे तो दृश्य देखकर बहुत पछताए। तो दृश्य देखकर बहुत पछताये क्योंकि आक्रान्तों के झण्ड़े आते देखकर दुर्ग की समस्त वीर नारियों ने जौहर कर लिया था। बलिदान और पराक्रम से मिली विजयश्री को केवल राख का ढेर मिला! दुर्भाग्य की इस विडम्बना से हमीर हतप्रत रह गया। उसने अपना सिर आराध्य देव शिवलिंग पर काट कर समर्पित कर दिया। 11 जुलाई , मंगलवार सन 1301 को अलाउद्दीन का रणथम्भोर पर अधिकार हो गया।
हम्मीर के शौर्य और बलिदान की प्रशंसा करते हुये किसी ने लिखा है कि उसमें वे सब गुण थे ,जो एक आदर्श राजपूत चरित्र में होने चाहिए ।राजा हम्मीर के इस अदभुत त्याग और बलिदान से प्रेरित हो संस्कृत ,प्राकृत ,राजस्थानी व् हिंदी आदि सभी प्रमुख भाषाओं में कवियों ने उसे अपना चरित्रनायक बनाकर उसका यशोगान किया है। राजस्थान के इतिहास में हमीर का स्मरण युद्ध में अपनी वीरता के लिए ही नहीं बल्कि अन्य संप्रदायों के प्रति सहिष्णुता के लिए भी किया जाता है।
आज भी चौहान शूरवीरों का वंदनीय, भग्न समृद्धि का यह ऐतिहासिक स्मारक रणथम्भौर, वीरान होकर अनेक अतृप्त आत्माओं की अदृश्य गतिविधियों का एक अनौखा आकर्षण बनाये हुये है। शान से खड़ी किले की प्राचीरें आज भी हर दर्शक में अलौकिक आह्लाद का स्फुरण करती हैं। सत्य है, रणथम्भौर एक दुर्ग ही नहीं बल्कि भारतीय संस्कृति और वीरों का सच्चा प्रतिनिधी है।
- संदर्भ-
- तारीख ए किला रणथम्भोर ,लेखक हीरानन्द कायस्थ ।
- हमीर महाकाव्य , लेखक
- राजस्थान का इतिहास , लेखक गोपीनाथ शर्मा।
- दि अर्ली चौहान डायनेस्टीज ,लेखक डा0 दशरथ शर्मा
- ऐतिहासिक स्थानवाली ।
- दिल्ली सल्तनत ,लेखक डा0 ए0 एल0 श्रीवास्तव ।
- श्रीगणेश यात्रा रणथम्भोर दुर्ग , लेखक गोवर्धन लाल वर्मा ।
- खलजी कालीन भारत , अनुवादक सैयद अतहर अब्बास रिजवी ।
- तारीखे फ़िरोजशाही (इलियट -डाउसन )।
- हमीर प्रबन्ध ,लेखक अमृत कैलाश।
- राजस्थान का इतिहास,लेखक वी0एस0 भार्गव ।
- सल्तनत काल में हिन्दू प्रतिरोध ,लेखक अशोककुमार सिंह ।
- हमीरायण ,लेखक डॉ0 दसरथ शर्मा ।
- रावर्ती-तवकाते नासिरी , जिल्द 1 ।
- वीरविनोद ,प्रथम खण्ड ,लेखक स्यामलदास ।
- शारदा-हमीर ऑफ रणथम्भोर ।
- राजस्थान के प्राचीन दुर्ग, लेखक डा0 मोहनलाल गुप्ता ।
- विश्व विरासत स्थल रणथम्भोर ,लेखक डा0 सूरज जैदी ।
- दुर्ग रणथम्भोर एवं उसका सुरभ्य अंचल ,लेखक गोकुलचन्द गोयल।
- ए हिस्ट्री ऑफ रणथम्भोर ,लेखक जावेद अनवर ।
- ऐतिहासिक किला रणथम्भोर , लेखक डा0 अर्चना तिवारी ।
- भारत के दुर्ग ,लेखक दीनानाथ दुबे।
- राजस्थान के प्रमुख दुर्ग , लेखक डा0 राघवेन्द्र सिंह मनोहर।
- रणथम्भोर -इतिहास के पृष्ठों पर ,लेखक आर0 एस0 राणावत ।
- रणथम्भोर के वीर शिरोमणि हम्मीरदेव चौहान लेखक डा0 सूरज जिद्दी ।
- डिस्ट्रिक्ट गजेटियर जिला सवाईमाधोपुर ,1962।
- रणथम्भौर, लेखक सूरज जिद्दी
- विश्व विरासत स्थल रणथम्भोर,लेखक डॉ सूरज जिद्दी।
- दुर्ग रणथम्भोर एवं उसका सुरम्य अंचल,लेखक गोकुलचंद गोयल।
- सवाई माधोपुर उत्सव स्मारिका 2016
लेखक- डॉ. धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव- लढोता, सासनी
जिला- हाथरस ,उत्तरप्रदेश
प्राचार्य- राजकीय कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय ,सवाईमाधोपुर ,राजस्थान ,322001
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