Special Article: राजस्थानी राज्यवृक्ष खेजङी की सांगरी को मिला जीआई टैग, कल्पवृक्ष से अलंकृत खेजङी अकाल में भी करता रहा रेगिस्तान का प्राकृतिक श्रृंगार।
"खेजङी अर्थात प्रोसोपिस सिनेरेरिया की सांगरी"(फली) हेतु अब जीआई टैग का आवेदन स्वीकृत हो चुका है। जिससे सांगरी व सांगरी के सहउत्पादों ....

अरविन्द सुथार, अनार एवं बागवानी विशेषज्ञ कंसल्टेंट, जालौर (राज.)
"खेजङी अर्थात प्रोसोपिस सिनेरेरिया की सांगरी"(फली) हेतु अब जीआई टैग का आवेदन स्वीकृत हो चुका है। जिससे सांगरी व सांगरी के सहउत्पादों को वैश्विक स्तर पर पहचान मिल सकेगी। साथ ही संरक्षण के लिए भी नई पहल होगी। जीआई (जियोग्राफिकल इंडिकेशन) अर्थात भौगोलिक संकेत हेतु स्वामी केशवानन्द कृषि विश्वविद्यालय बीकानेर द्वारा चैन्नई स्थित जियोग्राफिकल इंडिकेशन्स रजिस्ट्री कार्यालय में 700 पन्नों का आवेदन किया गया। जिसे स्वीकृत कर लिया गया। इससे सांगरी को ग्लोबल उत्पाद के रूप में पहचान मिलेगी।
कल्पवृक्ष की संज्ञा
"राज्य की धरती पर बहुतायत में पाया जाने वाला यह कल्पवृक्ष निरंतर कम होने लग गया। विशेषज्ञों की मानें तो लगभग आधे वृक्ष समाप्त हो चुके हैं या समाप्त कर दिए गए हैं। स्थिति जस की तस बनी रही तो एक दिन ऐसा आएगा कि राजस्थान का राज्य पेड़ इतिहास की विरासत बनकर रह जाएगा।"
पर्यावरण बचाने के लिए हमेशा से ही बहुत सारे संदेश आदान प्रदान होते रहते हैं और होने भी चाहिए। क्योंकि केवल वर्तमान में जी रही इस भौतिक दुनिया को प्रकृति के प्रकोपों का आभास जो होने लगा है। और बात हो सुदूर पश्चिमी भारत अर्थात् राजस्थान की तो जून के महीने में भीषण गर्मी और लू से दमकती धरती को देखकर हर किसी को पर्यावरण सुरक्षा याद आ ही जाती है। लेकिन दुर्भाग्यवश मानसून की वर्षा के साथ ही एक पौधा में भी लगाऊंगा का सपना केवल सपना ही रह जाता है। हर वर्ष की भांति इस बार भी 5 जून को पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। लेकिन इस दिन प्रकृति को कुछ खास नहीं मिलता। बड़े बड़े शहरों सहित गांवों का भी तापमान अपने स्तर से उच्च रिकॉर्ड को पार करता जा रहा है। यह सब जानते हैं कि जीव जगत की रक्षार्थ हमें अपना यथोचित योगदान तो करना ही है। लेकिन जल, पेड़ और पर्यावरण बचाने की बात करने के अलावा हम धरातल पर ज्यादा कुछ कर नहीं पाते हैं।
- खेजङी-संस्कृति और इतिहास-
'सिर सांठे रूंख रहे तो भी सस्तो जाण।'
हरियाणा, पंजाब और राजस्थान में एक ऐसा पेड़ पाया जाता है, जिसे बचाने से तीनों राज्यों में जल, जमीन और वायु की बिगड़ती दशा को सुधारा जा सकता है। इसके अलावा यह गुजरात, कर्नाटक तथा महाराष्ट्र के साथ-साथ भारत के बाहर भी अफगानिस्तान, अरब तथा पाकिस्तान में भी प्राकृतिक तौर पर पाया जाता है। राजस्थान के थार के मरुस्थल को फैलने से रोकने हेतु कमर कसकर खड़ा यह पेड़ आजकल विरलेपन की ओर जा रहा है। राजस्थानी भाषा में कन्हैया लाल सेठिया ने अपनी सुप्रसिद्ध कविता "मींझर" में इसकी उपयोगिता और महत्व का सुंदर चित्रण किया है। दशहरे के दिन इसकी पूजा करने की परंपरा है। रावण दहन के बाद घर लौटते समय इसके पत्तों को तोड़कर लाने की प्रथा है जो स्वर्ग का प्रतीक माना जाता है। शुष्क व अर्ध शुष्क क्षेत्रों में पाया जाने वाला यह बहुउपयोगी, धार्मिक महत्व वाला, बहुवर्षीय वृक्ष है, प्रोसोपिस सिनेरेरिया अर्थात् खेजड़ी। जाटी, कांडी, वण्णी, शमी सुमरी आदि भिन्न-भिन्न प्रकार के क्षेत्रीय नामों से विख्यात और जेठ के महीने में भी हरा-भरा रहने वाला यह वृक्ष राजस्थान सरकार द्वारा वर्ष 1982-83 में राज्य वृक्ष घोषित किया गया। राज्य वृक्ष घोषित करने की औपचारिकता के बाद ना तो इसके संरक्षण, संवर्धन की कोई विशेष योजना आई और ना ही इसके उजड़ने पर रोक लगाई गई। वर्तमान परिणाम ये रहे कि राज्य की धरती पर बहुतायत में पाया जाने वाला यह कल्पवृक्ष निरंतर कम होने लग गया। विशेषज्ञों की मानें तो लगभग आधे वृक्ष समाप्त हो चुके हैं या समाप्त कर दिए गए हैं। स्थिति जस की तस बनी रही तो एक दिन ऐसा आएगा कि खेजड़ी का पेड़ इतिहास की विरासत बनकर रह जाएगा। खेजड़ी वृक्ष की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह तेज गर्मियों में भी हरा-भरा रहता है। अकाल के समय रेगिस्तान के लोगों और जानवरों का यही एकमात्र सहारा है। 1899 में 'छप्पनिया अकाल' के समय लोग इस पेड़ के तनों के छिलके खाकर जिंदा रहे थे।
- खेजड़ी का सांस्कृतिक, धार्मिक एवं वैज्ञानिक महत्व
इसकी छाल को घीसकर पेस्ट बनाया जाता है, जिसे फोड़ा-फुंसी, खाज-खुजली आदि पर लगाने से आराम मिलता है। इसके अलावा इसकी छाल पेट के कीड़े, खांसी, सर्दी आदि के निदान में काम आती है, इसके फूलों को चीनी के साथ मिलाकर गर्भवती महिलाओं को खिलाया जाता है। इसकी पत्तियों को लूंग कहा जाता है। प्रोटीन से भरपूर यह लूंग बकरियां, ऊंट के चारे के अलावा दुधारू पशुओं के लिए सूखे चारे व चूरी के साथ मिलाकर बांटा बनाने के काम में आता है। पश्चिमी राजस्थान में बांटा इसी से बनाते हैं। इसके अलावा इसकी फल (सांगरी) सूख कर खोखा बनता है, जो भेड़ बकरियों के खाने में काम आता है।
इसकी सांगरी को हरी अवस्था में तोड़कर स्वादिष्ट सब्जी बनाई जाती है। और इन्हें सुखाकर कई दिनों तक रखा जा सकता है। कुमटिया, केर, सांगरी, गुंदा व कच्चे आम से बनाई पंचकूट सब्जी राजस्थान की संस्कृति की मुख्य विशेषता है। पंचकूट को आमतौर पर शीतला अष्टमी के दिन हर घर में बनाया जाता है।
कई हजार किलो कैलोरी ऊष्मा वाला इसका ईंधन बहुत ही उपयोग में लिया जाता है। इसकी जड़ से हल बनाया जाता है। लेग्यूमिनेसी कुल के इस पेड़ की जड़ों में राइजोबियम ग्रंथियां पाई जाती है। जिससे यह वायुमंडलीय नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करके कृषि में उपयोगी बनाता है। इस पेड़ के आसपास फसलें बहुत ही अच्छी होती है। जड़ों में कई प्रकार के लाभदायक बैक्टिरीया होने से इसके नीचे की मिट्टी जैविक खेती में जीवामृत बनाने के काम में ली जाती है। इसकी पत्तियां सूखकर भूमि पर गिरती है, जो सड़ गल कर बहुत ही अच्छी खाद का काम करती है। इसकी उम्र सैकड़ों वर्ष आंकी गई है। इसकी जड़ों के फैलाव से भूमि का क्षरण नहीं होता है। जिससे रेगिस्तान के फैलाव पर अंकुश लगा रहता है। एक पेड़ से प्रतिवर्ष 50-60 किलो हरा चारा प्राप्त होता है ।यह 100-150 फूट नीचे से पानी खींच कर लाती है। सर्दियों के प्रारंभ में इसकी छंगाई करनी होती है।
भगवान शिव दुर्गा गणेश की पूजा में इसकी पत्तियां चढ़ाई जाती है। यज्ञ व धूप के लिए टहनियां व सूखी छाल को काम में लेते हैं। दशहरे के दिन इसकी पूजा चिरपरिचित है। घर में अशांति होने पर प्रतिदिन खेजड़ी की एक परिक्रमा करके जल से सींचा जाता है। इसकी जड़ क्षेत्र के आसपास चीटियों का वास होता है, जिन्हें अमावस्या के दिन आटे में घी व चीनी मिलाकर खिलाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इसके नीचे खड़े रहकर की गई मनोकामनाएं हर हाल में पूर्ण होती है।
- विश्नोई सम्प्रदाय का खेजड़ी के प्रति लगाव है प्रेरणादायी
राजस्थान में पर्यावरण वैज्ञानिक गुरू जम्भेश्वर के अनुयायी विश्नोई जाती के लोग प्रारम्भ से ही वन एवं पर्यावरण संरक्षण के लिए जाने जाते हैं। इतिहास बयान है कि इन्होंने खेजड़ी की रक्षा के लिए अमृता देवी के नेतृत्व में बलिदान तक दिया था, और कहा था कि 'सिर सांठे रूंख रहे तो भी सस्तो जाण।' अर्थात् सिर कटने पर भी वृक्षों संरक्षण हो सके तो भी यह बलिदान मामूली ही होगा।
- संरक्षण व संवर्धन की आवश्यकता
कृषि व पर्यावरण क्षेत्र के अलावा खेजड़ी का धार्मिक व सामाजिक महत्व है। इसके संरक्षण व संवर्धन की महत्ती आवश्यकता है। आजकल राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्रों में खेजडियाँ सूखने लगी है। इसकी छंगाई पर नियंत्रण आवश्यक है। बेमौसम छंगाई करने से यह पनपती नहीं है। इसमें लगने वाले कीड़ों व रोगों को पहचानना होगा। कृषि यंत्रों के प्रयोग से इनकी जड़ें क्षतिग्रस्त हो जाती है। इस बहुउपयोगी वृक्ष पर गहन अनुसंधान आवश्यक है। हालांकि काजरी संस्थान जोधपुर में अनुसंधान जारी है। फिर भी इसके महत्व को देखते हुए खेजड़ी के संरक्षण हेतु जन जन तक प्रचार-प्रसार आवश्यक है। बागवानी विकसित करने हेतु हर किसान इसे अनजाने में ही काट देता है तथा इसके अलावा भी यह कई उद्देश्यों से निरंतर कटता जा रहा है, जिस पर अंकुश लगाया जाना आवश्यक है।
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