आज आधुनिक भारत के महान् निर्माता बिसेनवंशावतंस भिनगेश राजाबहादुर राजर्षि उदयप्रताप सिंह 'आधुनिक भारत के द्वादश राजर्षि'- डॉ. जितेन्द्रकुमार सिंह 'संजय'

जहाँ तक राजर्षि की परम्परा का प्रश्न है, तो इस सन्दर्भ में यह कहना उचित होगा कि भारत राजर्षियों का ही देश हैं। यहाँ असंख्य राजर्षि पैदा हुए हैं। भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है— इमं विवस्व

Sep 3, 2025 - 13:10
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आज आधुनिक भारत के महान् निर्माता बिसेनवंशावतंस भिनगेश राजाबहादुर राजर्षि उदयप्रताप सिंह 'आधुनिक भारत के द्वादश राजर्षि'- डॉ. जितेन्द्रकुमार सिंह 'संजय'

भारतीय संस्कृति में राजर्षि अलंकरण से उस मनीषी को विभूषित करते हैं, जो राजा अथवा राजवंशोत्पन्न तो हो ही, साथी ऋषि-चेतना से अनुप्राणित भी हो। जिसके भीतर राजा और ऋषि के समन्वित गुण विद्यमान होते हैं, सही अर्थों में वही राजर्षि है। प्राचीनकाल के राजर्षियों में विश्वामित्र सर्वोपरि हैं। भारत की ऋषि-परम्परा में सात प्रकार के ऋषि बताये गये हैं—
i. महर्षि : जैसे— वेदव्यास
ii. परमर्षि : जैसे— भेल
iii. देवर्षि : जैसे— नारद
iv. ब्रह्मर्षि : जैसे— वसिष्ठ
v. श्रुतर्षि : जैसे— सुश्रुत
vi. राजर्षि : जैसे— ऋतुपर्ण और
vii. काण्डर्षि : जैसे— जैमिनि।

सप्तर्षि पद से ऐसे सात ऋषियों को अलंकृत किया गया है, जो कल्पान्त प्रलयों में वेदों को सुरक्षित रखते हैं। पृथक् पृथक् मन्वन्तर में पृथक् पृथक् सप्तर्षि माने गये हैं। स्वायंभुव मन्वन्तर के सप्तर्षि मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलत्स्य, पुलह, क्रतु और वसिष्ठ थे। वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर के सप्तर्षि कश्यप, अत्रि, वसिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और भरद्वाज हैं।

प्राचीनकाल में ऋषियों की उपर्युक्त श्रेणियों को देखते हुए 'सप्तर्षि' की अवधारणा फलीभूत हुई थी। वर्तमान समय में इस शृंखला में तीन उपाधियाँ और भी जुड़ गयी हैं।
viii. शब्दर्षि : अवधक्षेत्र के प्रख्यात कवि पण्डित सत्यनारायण मिश्र की सारस्वत साधना एवं उनकी शब्दप्रयोग-क्षमता को देखते हुए साकेत महाविद्यालय ने उन्हें 'शब्दर्षि' की गौरवपूर्ण उपाधि से अलंकृत किया था। कालान्तर में 13 मार्च, 2016 ई. को प्रभाश्री ग्रामोदय सेवा आश्रम देवगढ़ द्वारा आयोजित 'देवगढ़ महोत्सव' में राजस्थान के वर्तमान राज्यपाल एवं तत्कालीन केन्द्रीय मन्त्री पण्डित कलराज मिश्र ने 'शब्दर्षि' की गौरवशाली उपाधि से छत्तीसगढ़ के भाषाविद् प्रो. विनयकुमार पाठक को अलंकृत किया।

ix. गीतर्षि : हिन्दी-गीत परम्परा के हीरक हस्ताक्षर प्रो. श्रीपाल सिंह 'क्षेम' ने विन्ध्य के गौरव गीतकार प्रो. सुमेर सिंह 'शैलेश' को समारोहपूर्वक 'गीतर्षि' के विरुद से विभूषित किया। आज गीतर्षि और शैलेश एक दूसरे के पूरक हैं।

x. राष्ट्रर्षि : पतंजलि योगपीठ, हरिद्वार ने 3 मई, 2017 ई. को योगगुरु बाबा रामदेव एवं आचार्य बालकृष्ण के नेतृत्व में देश को स्वच्छ, मज़बूत और एकजुट बनाने के लिए प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र दामोदरदास मोदी के द्वारा किये जा रहे अनथक प्रयासों के लिए उन्हें 'राष्ट्रर्षि' की उपाधि से अलंकृत किया।

जहाँ तक राजर्षि की परम्परा का प्रश्न है, तो इस सन्दर्भ में यह कहना उचित होगा कि भारत राजर्षियों का ही देश हैं। यहाँ असंख्य राजर्षि पैदा हुए हैं। भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है—
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्यम्।
विवस्वान् मनवेप्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।।
— श्रीमद्भगवद्गीता 4/1-2
भारत के पौराणिक इतिहास में अनेक राजर्षि हुए हैं, जिनका प्रातःकाल स्मरण किया जाता है। आधुनिक भारत के इतिहास में द्वादश राजर्षियों का उल्लेख मिलता है, जिनका विवरण निम्नांकित है—

1. महामहोपाध्याय राजर्षि परमानन्द ठाकुर 
मुग़लकाल में खण्डवला राजवंश की स्थापना करनेवाले महेश ठाकुर के पौत्र महामहोपाध्याय परमानन्द ठाकुर दरभंगा के विद्वान् नरेश थे। ब्राह्मण कुलोत्पन्न होते हुए भी परमानन्द ठाकुर को 'राजर्षि' की उपाधि से अलंकृत किया गया है। इस तथ्य का उल्लेख महामहोपाध्याय मुकुन्द झा बख़्शी (1869-1936 ई.) ने अपनी पुस्तक 'खण्डवला राजवंश : मिथिलाभाषामय इतिहास' में किया है। (महामहोपाध्याय मुकुन्द झा बख़्शी : खण्डवला राजवंश : मिथिलाभाषामय इतिहास, सम्पादक— डॉ. पं. शशिनाथ झा, पृ. 61)।

2. राजर्षि राजा भगवानबख़्श सिंह
अमेठी-नरेश राजा भगवानबख़्श सिंह को अमेठी की प्रजा सम्मानपूर्वक 'राजर्षि' कहती थी।

3. राजर्षि राजा उदयप्रताप सिंह
भिनगा-नरेश राजाबहादुर उदयप्रताप सिंह (1850-1913 ई.) का जन्म 3 सितम्बर, 1850 ई. को हुआ था। पिता कविर्मनीषी राजा कृष्णदत्त सिंह के स्वर्गारोहण के उपरान्त मात्र 12 वर्ष की अल्पायु में उदयप्रताप सिंह भिनगा के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए। वे महान् परोपकारी व्यक्ति थे। वाराणसी में अवस्थित उदयप्रताप कॉलेज उनकी कीर्ति-कौमुदी का स्थायी स्मारक है। 
उदयप्रताप कॉलेज की स्थापना के अतिरिक्त भिनगा राज अनाथालय, कमच्छा महेन्द्रवी छात्रावास (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय), दण्डीस्वामी मठ वाराणसी का निर्माण भी राजर्षि उदयप्रताप सिंह ने ही करवाया था। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि 'बनारस मे एक ऐसा भिनगाराज अनाथालय है जो बिना जाति-धर्म पूछे सबको शरण देता है और सबकी सेवा करता है।'

राजर्षि उदयप्रताप सिंह ने रामकृष्ण मिशन की स्थापना के लिए भी मुक्तहस्त दान दिया था। स्वामी विवेकानन्द से उनकी बनारस में ही मुलाक़ात हुई थी।
भिनगेश राजा उदयप्रताप सिंह का विवाह अगोरी-बड़हर के तत्कालीन राजाबहादुर रघुनाथ शाह की पुत्री राजकुमारी मुरारि कुँवरि से हुआ था। 
राजर्षि उदयप्रताप सिंह सिद्धहस्त लेखक थे। उन्होंने आंग्लभाषा में 'A history of the Bhinga Raj Family' (1883), 'Democracy not suited to India' (1888), 'The decay of the landed Aristocracy in India' (1892), 'Memorandum on the education of the sons of Landlords' (1882), 'Minute on the Law of Sedition in India' (1892), 'The Russul Question' (1893), 'Views and Observations' (1907) प्रभृति पुस्तकों का प्रणयन किया है।

राजर्षि उदयप्रताप सिंह ने ही काउंसिल के सदस्य की हैसियत से भारत की संसद में पहला प्रश्न पूछा था। रसद पहुँचाने में ग़रीब जनता को अत्यधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था, जिसका वर्णन राजर्षि उदयप्रताप सिंह ने अपने पहले प्रश्न में किया था। उन्होंने ने संसद में प्रश्न पूछने के दौरान कहा था कि 'हमें अपने मस्तिष्क से इस बात को कभी भी विस्मृत नहीं होने देना चाहिए कि हम न केवल राम और बुद्ध की जन्मभूमि पर पैदा हुए हैं, अपितु हमारी धमनियों में उन्हीं के स्फीत रक्त का संचरण भीहो रहा है; जहाँ एक ने पिता और राजा के आज्ञानुसार अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक राज्य-सुख का परित्याग किया, वहीं दूसरे ने विश्व-शान्ति और मानव-प्रेम का सन्देश देने के लिए महत्तम त्याग किया।'

इंडियन काउंसिल एक्ट 1892 द्वारा ही भारतीयों को पहली बार काउंसिल के भीतर प्रश्न करने का अधिकार ब्रिटिश सरकार ने प्रदान किया था। भारत के संसदीय इतिहास में यह अंकित है कि पहला प्रश्न भिनगा-नरेश राजा उदयप्रताप सिंह ने ही काउंसिल के सदस्य की हैसियत से किया था। रसद पहुँचाने में ग़रीब जनता को अत्यधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था, जिसका वर्णन राजर्षि ने अपने पहले प्रश्न में किया था और इसी के साथ उन्होंने इस प्रथा को समाप्त करने के लिए आवाज़ उठायी थी।

भिनगेश राजा उदयप्रताप सिंह के लोकोपकारी चरित को ध्यान में रखते हुए अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा ने उनको 'राजर्षि' की उपाधि से विभूषित किया, जिसे तत्कालीन अंग्रेज़ी सरकार द्वारा भी मान्यता प्रदान की गयी थी। राजर्षि उदयप्रताप सिंह ने अपने राजकीय वैभववाले जीवन से मुक्त होकर सन् 1895 ई. से काशी में एक वैरागी का जीवन व्यतीत करते हुए शिक्षा के उत्थान हेतु कार्य किया। इस तथ्य का उल्लेख सी. हयवदन राव ने अपनी पुस्तक 'भारतीय जीवनी कोश' में किया है— 'The title of 'Rajarshi' was conferred on him by the Mahasabha, which has been recognised by Government as a mode of address; retired from public life and is leading the life of a recluse at Benares since 1895.' —C. Hayavadana Rao : The Indian Biographical Dictionary, First Edition 1915, P. 45.

4. राजर्षि छत्रपति शाहूजी महाराज
कोल्हापुर-नरेश महाराजाधिराज छत्रपति शाहूजी (1874-1922 ई.) के सामाजिक कार्यों की बृहत्तर परम्परा को देखते हुए अंग्रेज़ी सरकार ने 'राजर्षि' की उपाधि से अलंकृत किया था।  

5. राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन
हिन्दी के पुरोधा एवं राजनीतिक शुचिता के प्रतीक बाबू पुरुषोत्तमदास टण्डन (1882-1962 ई.) के बहुआयामी और प्रतिभाशाली व्यक्तित्व को ध्यान में रखते हुए 15 अप्रैल, 1948 ई. को सान्ध्यावेला में सरयू तट पर वैदिक मन्त्रोच्चार के साथ महन्त देवरहा बाबा ने 'राजर्षि' की उपाधि से अलंकृत किया। कुछ लोगों ने इसे अनुचित ठहराया, पर ज्योतिर्मठ के श्रीशंकराचार्य महाराज ने इसे शास्त्रसम्मत माना और काशी की पण्डित सभा ने 1948 ई. के अखिल भारतीय सांस्कृतिक सम्मेलन के उपाधि-वितरण समारोह में इसकी पुष्टि की। तब से यह उपाधि उनके नाम के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई स्वयं अलंकृत हो रही है।

6. राजर्षि राजा रणञ्जय सिंह
अमेठी-नरेश राजा रणञ्जय सिंह को अनेक सार्वजनिक संस्थाओं ने 'राजर्षि' की उपाधि से विभूषित किया था। अपने पूज्य पिता राजर्षि राजा भगवानबख़्श सिंह की गौरवशाली परम्परा को राजर्षि राजा रणञ्जय सिंह ने आगे बढ़ाया। आज भी अवधक्षेत्र में 'राजर्षि रणञ्जय राजा भोज, अमेठी धारा नगरी है' जैसी काव्य-पंक्तियाँ सुनने को मिलती हैं। पण्डित मंगललाल शास्त्री ने इसी भाव को संस्कृत भाषा में श्लोकबद्ध किया है—
शारदासेविता येन मनो योगेन नित्यशः।
श्रीरणञ्जय सिंहोऽस्ति भोज तुल्यो नराधिपः।।
— राजा रणञ्जय सिंह अभिनन्दन-ग्रन्थ, प्रथम संस्करण 1979 ई., पृ. 16

7. राजर्षि राजा श्रीपाल सिंह
सिंगरामऊ-नरेश राजा श्रीपाल सिंह को अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा ने 'राजर्षि' की उपाधि से अलंकृत किया था। 

8. राजर्षि राजा विश्वनाथप्रताप सिंह
उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमन्त्री, भारत के पूर्व प्रधानमन्त्री, शोषित वर्ग के मसीहा माण्डा नरेश राजाबहादुर विश्वनाथप्रताप सिंह को काशी विद्वत् परिषद् ने 'राजर्षि' की उपाधि से अलंकृत किया था। राजाबहादुर विश्वनाथप्रताप सिंह सही अर्थों में राजर्षि थे। प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित ने अपनी पुस्तक 'अवध संस्कृति विश्वकोश' के प्रथम खण्ड में राजाबहादुर विश्वनाथप्रताप सिंह को 'राजर्षि' उपाधि से अलंकृत किये जाने का उल्लेख किया है। (प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित : अवध संस्कृति विश्वकोश, भाग 1, पृ. 139)।

9. राजर्षि बाबू मदनपाल सिंह
मिर्ज़ापुर की हलिया तहसील में शिक्षा की अखण्ड ज्योति जागृत करने एवं अन्याय सामाजिक कुरीतियों का दमन करनेवाले बाबू मदनपाल सिंह को परिव्राजकाचार्य महामनीषी पण्डित राजनाथ मिश्र ने 'राजर्षि' की उपाधि से अलंकृत किया था।

10. राजर्षि बाबू रामप्रसाद सिंह
अगोरी-बड़हराधिपति राजा आभूषणब्रह्म शाह, राजकुमार क्रान्तिब्रह्म, कीर्तिशेष युवराज अभ्युदयब्रह्म, विजयगढ़-नरेश राजा चन्द्रविक्रमपद्मशरण शाह, राजावत बोधेश्वर सिंह, पूर्व कैबिनेट मन्त्री डॉ. सरजीत सिंह डंग की गौरवपूर्ण उपस्थित में 27 मई, 2015 ई. को देवगढ़ में आयोजित भव्य समारोह में आचार्य विनोबा भावे के भूदान आन्दोलन मेें मुक्तहस्त भूमिदान करनेेेवाले देवगढ़ केे महामना बाबू रामप्रसाद सिंह को श्रीकाशीधर्मपीठ के राष्ट्रीय प्रवक्ता आचार्य पण्डित उमाशंकर मिश्र 'रसेन्दु' ने पट्टाभिषेक के उपरान्त 'राजर्षि' की उपाधि से अलंकृत किया।

11 . राजर्षि डॉ. बृजेश सिंह
उत्तरप्रदेश के बलिया जनपद में जन्मे एवं बिलासपुर में कार्यरत प्रख्यात राष्ट्रीय चिन्तक राष्ट्रकवि डॉ. बृजेश सिंह को उनके गृहग्राम कैंथी में पट्टाभिषेक के उपरान्त श्रीकाशीधर्मपीठ के राष्ट्रीय प्रवक्ता आचार्य पण्डित उमाशंकर मिश्र 'रसेन्दु' ने 7 नवम्बर, 2015 ई. को 'राजर्षि' की गौरवशाली उपाधि से अलंकृत किया। डॉ. बृजेश सिंह देश के अकेले ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्हें 'राष्ट्रकवि' और 'राजर्षि' की युगल उपाधि से अलंकृत किया गया है।
 
12. राजर्षि डॉ. इन्द्रबहादुर सिंह
प्रभाश्री ग्रामोदय सेवा आश्रम द्वारा 13 मार्च, 2016 ई. को आयोजित 'देवगढ़ महोत्सव' में श्रीकाशीधर्मपीठ के राष्ट्रीय प्रवक्ता आचार्य पण्डित उमाशंकर मिश्र 'रसेन्दु', राजस्थान के वर्तमान राज्यपाल एवं तत्कालीन केन्द्रीय मन्त्री पण्डित कलराज मिश्र एवं प्रातःस्मरणीय श्री नारायणस्वामी की पण्डितत्रयी ने भदोही जनपद के गहरवार कुल में उत्पन्न हुए डॉ. इन्द्रबहादुर सिंह की जनोन्मुखी चेतना को ध्यान में रखते हुए उन्हें 'राजर्षि' उपाधि से अलंकृत किया।

आधुनिक भारत इन द्वादश राजर्षियों का उदात्त जीवन-चरित एवं अनुकरणीय कर्तृत्व प्राचीन भारत के राजर्षियों का स्मरण दिलाता है। ऐसे नरपुंगव ही शास्त्र और व्यवहार की कसौटी बनते हैं। वस्तुतः राजर्षि-परम्परा ही ब्राह्मण और क्षत्रिय के मध्य सेतु का निर्माण करती है, जिसे इन द्वादश राजर्षियों ने अपने चारु चरित-चिन्तामणि से चरितार्थ किया है।

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