जीवन परिचय : एक आदर्श माता, धर्मनिष्ठा की प्रतिमूर्ति एवं देशभक्त क्षत्राणी- राजमाता जीजाबाई

Jul 20, 2024 - 08:08
Jul 20, 2024 - 11:12
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जीवन परिचय : एक आदर्श माता, धर्मनिष्ठा की प्रतिमूर्ति एवं देशभक्त क्षत्राणी- राजमाता जीजाबाई

Edited By- Vijay Laxmi Singh 

जीजाबाई के पूर्वज थे देवगिरि राज्य के यादव /यदुवंशी (आधुनिक जाधव) क्षत्रिय

देवगिरि दक्षिण में यादव वंशी क्षत्रिय राजाओं की समृद्ध राजधानी थी। यादव राजपूत पहले चालुक्यों के अधीन थे, किन्तु राजा भिलम्म ने 1187 ई. में स्वतन्त्र राज्य स्थापित करके देवगिरि को अपनी राजधानी बनाया। उसके बाद सिंघण ने प्रायः सम्पूर्ण पश्चिमी चालुक्य राज्य अपने अधिकार में कर लिया। उत्तर में विंध्य पर्वतों द्वारा सुरक्षित रहने के कारण यह राज्य 11वीं से 13वीं शताब्दी ईस्वी के मध्य होने वाले विदेशी आक्रमणों से बचा रहा। दुर्भाग्य से तेरहवीं शताब्दी ईस्वी के अन्तिम दशक में इसे तुर्की आक्रमण का सामना करना पड़ा। इस राज्य की सम्पन्नता, समृद्धि एवं विस्तार ने इसे ईर्ष्या का केन्द्र बना दिया था।

अलाउद्दीन का समकालीन देवगिरि का शासक रामचन्द्र देव था।1294 ई. में अलाउद्दीन खलजी ने देवगिरि को लूटा। पहले तो यादव नरेश ने कर देना स्वीकार कर लिया, किन्तु बाद में कर देना बन्द कर दिया। फलस्वरूप 1307 ई. और 1313 ई. में मलिक काफूर ने फिर देवगिरि पर आक्रमण किया। देवगिरि के अन्तिम शासक हरपाल द्वारा स्वतन्त्रता कायम करने पर 1317 ई. में सुल्तान कुतुबुद्दीन मुबारक ने दक्षिण की ओर प्रस्थान किया।

राजा हरपाल राजधानी छोड़कर भाग गया; किन्तु वह पकड़ा गया और उसकी जीवित खाल खिंचवा ली गई। देवगिरि राज्य को जिलों में विभक्त करके तुर्की अफसरों के सुपुर्द कर दिया। मुबारक ने देवगिरि में अनेक मन्दिरों का विध्वंस कियाऔर उनके अवशेषों के एक मस्जिद बनवायी। 1326-27 ई. में मुहम्मद बिन तुगलक ने देवगिरि को अपनी राजधानी बनाने का निश्चय किया, क्योंकि वह अपने विशाल राज्य की देखभाल के लिए दिल्ली की अपेक्षा देवगिरि को अधिक सुरक्षित राजधानी मानता था। राजधानी परिवर्तन की यह योजना असफल रही और उसे दिल्ली वापस आना पड़ा। कालान्तर में इस पर वहमनी सुल्तानों का अधिकार हो गया।

कुछ इतिहासकार देवगिरि के यादव क्षत्रिय वंश के संस्थापक भिल्लम यादव को ही  देवगिरि दुर्ग का निर्माता मानते है, जिसने सन् 1187 ई. में दुर्ग की प्राचीर बनवायी और उसे देवगिरि नाम दिया था। यादव क्षत्रिय नरेशों में भिल्लम के अलावा सिचण, कृष्ण ,महादेवराय आदि शक्तिशाली राजा हुए हैं। प्रसिद्ध ज्योतिषी बराहमिहिर और संत ज्ञानेश्वर  भी देश को देवगिरि राज्य की ही देन है।

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राजमाता जीजाबाई को भी देवगिरि के इस प्राचीन प्रसिद्ध यादव क्षत्रिय कुल (आधुनिक  जाधव राजपूत )में अवतरित होने का शौभाग्य प्राप्त हुआ।

नारी शक्ति का आदर्श पूर्ण चित्रण दिखाने वाली तेजस्वनी और भारतीय वीरांगना एवं एक आदर्श माता का चित्रण छत्रपति शिवाजी महाराज जी की जननी,राजमाता जीजाबाई में पूर्णरूपेण विद्यमान था। देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत प्रेरक मातृत्व वीरांगना जीजाबाई   का सम्पूर्ण जीवन संघर्ष , साहस, त्याग और बलिदान से परिपूर्ण रहा।

  • जन्म एवं माता -पिता-

राजमाता जीजाबाई जी का जन्म 12 जनवरी 1598 ई0 को अहमदनगर राज्य के एक गांव सिंदखेड़ में जाधव (यदुवंशी)  क्षत्रिय राजवंश में हुआ था जिन्होंने महाराष्ट्र में कई सदियों तक राज किया। जीजाबाई के पिता लखूजी जादवराय जी थे एवं माता महालसा बाई थी।उनके पिता अहमदनगर में निजामशाही की सेवा करते थे और उन्हें अपने ऊँचे रुतबे और पद पर गर्व था ।

  • धार्मिक ग्रंथों की  कहानियों से ली थी जीजाबाई ने क्षत्रिय धर्म की प्रेरणा-

जीजाबाई ने बचपन से ही धार्मिक ग्रन्थ रामायण ,महाभारत की कहानियों का अध्ययन किया था। राजपूत वीरांगनाओं,धर्मपत्नियों तथा माताओं की प्रेरणा भरी कहानियाँ उन्होंने अपनी माँ से सुनी थी। फलस्वरूप उनके बालमानस में ही इन आदर्शों के प्रति गहरी निष्ठा जम गई थी।

  • विवाह एवं परिवार-

जीजाबाई का विवाह भोंसले वंश (मराठा देश के क्षत्रियों का प्रमुख वंश है जिसका निकास मेवाड़ के गहलोत (सिसोदिया) वंश से हुआ है) के मालोजी के पुत्र शाहजी से हुआ जो दक्षिण भारत के एक शक्तिशाली सामन्त थे जिनकी जागीर तथा स्थायी निवास पूना और सूपा में था किन्तु उस समय वे निजामशाही के दरबार में मनसबदार थे और उसी की ओर से मुगलों के विरुद्ध युद्ध में संलग्न थे।जीजाबाई के पिता लखूजी जादवराय भी निजामशाह के ही सहायक थे। 

निजामशाह के दबाव के कारण लखूजी जादवराय को अपनी बेटी जीजाबाई  का विवाह बिना इच्छा के शाहजी के साथ करना पड़ा जिससे वे निजामशाह एवं अपने जमाता शाहजी दोनों से द्वेष करते थे ।इस दुश्मनी के कारण लखूजी मुगलों से मिल गये ।शाहजी और लखूजी के दूसरे के जानी दुश्मन हो गये। अपने श्वसुर लखूजी जादवराय की गलत नीति के कारण शाहजी को माहुली का किला खो कर वहां से अपनी  गर्भवती पत्नी जीजाबाई को अपने मित्र श्री निवास राव के घर छोड़ना पड़ा।

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श्री निवासराव ने जीजाबाई को सुरक्षित और साधनापूर्ण शिवनेरी दुर्ग में भेज दिया। अपने प्रतिशोध का बदला लेने के लिए पीछा करते हुए लखूजी जादवराय भी वहीं आ पहुंचे लेकिन शाहजी वहां से जा चुके थे।लखूजी जादवराय ने अपनी बेटी जीजाबाई को काफी समझायाऔर अपने साथ चलने का आग्रह किया। लेकिन  जीजाबाई पतिभक्ता वीर पत्नी थीं उन्होंने स्पष्ट इनकार कर दिया। युद्ध के संकट में पड़े पति के कष्ट -क्लेशों का विचार न कर स्वयं अपने लिए सुख-सुविधा की इच्छा करना उन्होंने धिक्कार के समान समझा ।लखूजी विवश होकर वापस चले गये।

शिवनेरी के दुर्ग में जीजाबाई ने अपनी तथा अपने पति की परेशानियों का गहरा चिंतन किया।मुसलमान बादशाहों के लिए दर-दर ठोकरें खाते फिरना और उनके हाथों लुटते रहना व्यर्थ ही नहीं ;स्वयं अपने लिए ,धर्मजाति ओर देश के लिए भी हानिकारक है।इस दृष्टि से न तो उनके पति ही औचित्य के लिए कष्ट झेल रहे थे और न उनके पिता का रवैया ही ठीक था ।गलत दिशा में दोनों ही थे। कठिनाइयों और विपत्तियों में शांत वातावरण मिलते ही व्यक्ति अपने कार्यो और गतिविधियों का कई पक्षों से अध्ययन करता है। विभिन्न पक्षों से जीजाबाई ने भी बिचारा। वे सोचने लगी कि क्या ही अच्छा हो इतने कष्ट धर्म और न्याय की रक्षा के लिए सहे जायँ। मराठों तथा इस देश के अन्य  प्रांतों के निवासियों पर तो दोनों ओर से ही आक्रमण होते है ।न मुसलमान मानते है और न ही दिल्ली के मुगल ।

जीजाबाई के विचारों और भावनाओं ने एक नई दिशा पकड़ी और उन्होंने निश्चय किया कि अवसर मिला तो वे अपने पति को इस कार्य के लिए प्रेरित करेगी ।साथ ही  भगवान से प्रार्थना भी करती रहतीं कि मेरी कोख से ऐसा पुत्र जन्म ले ,जो देश को इन विधर्मियों और  अईयाश सम्राटों के चंगुल से मुक्त करे। 

  • शिवाजी का जन्म-

अहनिरश देशोद्धार के विचारों से ओत-प्रोत रहने के कारण उन्होंने अपनी आशाओं को पूरा करने वाले पुत्ररत्न को चुनार के अंतर्गत शिवनेरी दुर्ग में 19 फरवरी 1630 को  जन्म दिया।शिवनेरी दुर्ग किअधिष्ठात्री देवी शिवाई के नाम पर ही माता ने उनका नाम शिवा रखा ,क्यों कि धर्मनिष्ठ जीजाबाई नेअपने बेटे को देवी का प्रसाद ही समझा।

उधर शाहजी पुनः राज्य प्राप्ति के लिए प्रयत्न कर अपनी स्वामिभक्ति का परिचय दे रहे थे।कुछ समय बाज बीजापुर राज्य की स्थिति ठीक होने के बाद वे वहीं चले गये।बीजापुर के नबाब आदिलशाह ने उनका बड़ा मान -सम्मान किया और अपना परामर्शदाता नियुक्त कर लिया ।आदिलशाह ने हैदराबाद की निजामशाही का अंत कर उसे अपने राज्य में मिला लिया था।जीजाबाई भी अपने पति शाहजी के साथ रहने लगीं। जादवराय ने भी निजाम का पतन होने के बाद शाहजी का पीछा छोड़ दिया था।

  • राजमाता जीजाबाई में थी सच्ची सनातनी एवं अटूट राष्ट्रभक्ति भावना-

राजमाता जीजाबाई के सम्मुख अब राष्ट्रोउद्धार का प्रश्न था। उन्होंने अपने पति को पहले तो इस बात के लिए समझाया कि यवनों की गुलामी छोड़कर मराठा राज्य की स्थापना के लिए प्रयत्न करें।शाहजी को जीजाबाई की सलाह किसी भी प्रकार अच्छी नहीं लगी।जीजाबाई फिर भी निराश न हुई।पति के हाथों स्वधर्म की रक्षा न होते देख उनकी आशाओं का एकमात्र केंद्र वह अबोध बालक  शिवाजी बन गया। 

  • राजपूती संस्कारों को प्रोत्साहन-

जीजाबाई को बचपन की सुनी राजपूतानी वीरांगनाओं की कहानियाँ याद थीं,जो अपनी संतान को शेर से मुकाबला करने के योग्य शौर्यशाली बना देती थी।संतान का निर्माण माँ के हाथों में होता है।एक समझदार एवं संतान पालन में दक्ष स्त्री अपने बच्चे को मनचाही दिशा प्रदान कर सकती है ।जीजाबाई ने दृढ़ संकल्प कर लिया कि संतति -निर्माण की उसी कला और पद्धति का अनुसरण कर मैं भी अपने पुत्र को राष्ट्र का उद्धारकर्ता और धर्म का रक्षक बनाउंगी।बाल्यावस्था से ही उन्होंने शिवाजी के पालन में सावधानियां रखनी आरम्भ कर दी।वे शिवाजी को अपने पिता के प्रभाव और दासता के संस्कारों से बचाती रहीं।

  •  पतिपरायणा  एवं  धर्मनिष्ठा की प्रतिमूर्ति जीजाबाई-

शाहजी से उनके संम्बन्ध अच्छे थे।कठिन परिस्थितियों और विपन्न अवस्थाओं में भी अपने पति का अनुगमन करने वाली पतिपरायणा जीजाबाई उस व्रत से कैसे हट सकती थीं?मतभेद था -थोड़ा -सा ,शाहजी के दायित्व ओर अपने कर्तव्यों के सम्बंध में ।सोअपने -अपने पक्ष का निर्वाह कर दोनों ने दांपत्य जीवन में सहनशीलता का अपूर्व परिचय दिया।

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शिवाजी को जीजाबाई ने अपने पास ही रखा वे स्वयं भी शाहजी के साथ नहीं रहीं।कारण था कि बीजापुर के वातावरण में देशभक्ति के जो बीज जीजाबाई अपने पुत्र की मनोभूमि में उगाना चाहती थीं ;कहीं अनूंकरित न रह जाएं।शाहजी को इसमें कोई आपत्ति नहीं हुई।वे समय -समय पर अपनी पत्नी और अपने पुत्र के पास देख -भाल के लिए आया करते थे।

  • शिवाजी  को  पढ़ाया था धार्मिक , देशभक्ति, शौर्य एवं वीरता का पाठ -

जीजाबाई ने शिवाजी को रामायण और महाभारत के वीरता ,धर्मनिष्ठा ,शौर्य ,मर्यादा  और धैर्य की प्रेरणा देने वाले प्रसंग सुनाना आरम्भ कर दिए ।कहानियां बच्चों को वैसे ही आकृष्ट करती है ।वह तन्मय आकर्षण उनके बालपन में जीजाबाई ने तत्कालीन परिस्थितियों और देश -काल के संदर्भों में परिवर्तन और संघर्ष का हौसला भर दिया।शिवाजी जब भी कभी इस प्रकार की कहानियाँ सुनते,तो कह उठते --माँ !मैं भी राम की तरह आज के इस औरंगजेबी रावण का अंत करूँगा।

  • जीजाबाई ही थीं शिवाजी की प्रथम शिक्षक -

मनोभूमि को दृढ़ बनाने के साथ -साथ जीजाबाई ने शिवाजी को लिखना -पढ़ना ,घुड़सवारी करना ,युद्ध लड़ना आदि बातों की जानकारी और शिक्षण देना भी आरंभ किया । माता जीजाबाई के निरंतर प्रयास से शिवाजी में धीरे-धीरे ये सभी गुण समाविष्ट होने लगे। शिवाजी ने अपनी माँ की प्रेरणा से किशोरावस्था में ही एक छोटी -सी सैनिक टुकड़ी बना ली।इस इन छोटे -छोटे बालवीरों ने शिवनेर किले की छोटी -छोटी जागीरों को अपने अधिकार में करना आरंभ कर दिया।

माँ जीजाबाई उन्हें हमेशा प्रोत्साहित करती रहीं।उनकी धर्मनिष्ठा ने भी शिवाजी को प्रभावित किया और वे भी अपनी माँ के समान दुर्गाशक्ति के उपासक बने।शिवाजी नेआगे चलकर इतिहास को बदल देने वाले जो कार्य किये ,उनका अधिकांश श्रेय जीजाबाई को ही जाता है।पालन-पोषण और प्रेरणा -प्रवाह में दक्ष जीजाबाई शिवाजी की परम आराध्य बनीं रहीं ।संतान अपनी सफलताओं के मूल में माता -पिता को जितना अधिक सहयोगी रूप में देखती है ;उतनी ही उसके मन में श्रद्धाभावना उमड़ने लगती है 

मराठा राज्य की स्थापना से लेकर ,सफल विजय अभियान चलाने और शिवाजी को सुयोग्य शासक बनाने में जीजाबाई का जो हाथ रहा ,वह भारतीय मातृत्व की गौरवमयी -गरिमा का ही प्रतीक है।

  • निधन -

80 वर्ष की आयु में सन 1674 ई0 में इस देशभक्त देवी का स्वर्गवास हो गया। भारतीय संस्कृति ने उनके ग्रहस्थ जीवन और मातृत्व की दायित्व दक्षता में ही नारीत्व एवं सच्ची क्षत्राणी की सार्थकता मानी है ।राजमाता जीजाबाई इस कसौटी पर जितनी खरी रहीं ,वह सभी के लिए एक आदर्श है । हमारी मातृशक्ति को जीजाबाई से प्रेरणा लेकर आज की  पीढ़ी में अच्छे संस्कारो का समावेश करके बच्चों को संस्कारी बनाना चाहिए।

जय हिन्द।जय मातृशक्ति ।।जय राजपूताना।।

लेखक:- डॉ0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव:- लाढोता ,सासनी ,
जिला:- हाथरस ,उत्तरप्रदेश
प्राचार्य:- राजकीय कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय सवाईमाधोपुर

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