ऐतिहासिक परिचय : क्षत्रिय महासभा तदर्थनाम अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा स्थापना।

Edited By- Vijay Laxmi Singh
स्थापना दिवस- सन1857 में "रामदल", सन 1861में " क्षत्रिय हितकारणी महासभा ",19 अक्टूबर 1897 को क्षत्रिय महासभा, लखनऊ, पंजीकरण 180/ 1530/ 1897/ 2150/ 86/ 661/ 96/ 75/ 01
1857 के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का अहम् योगदान था क्षत्रिय महासभा के निर्माण में-
अंग्रेजी शासन काल में ,प्रथम स्वतंत्रता संग्राम अंग्रेजों द्वारा क्षत्रियों के विरुद्ध अपनाई गई कलुषित नीति के विरुद्ध विदेशी दासता से मुक्ति पाने के लिए एक खुली अघोषित क्रांति थी जिसका प्रमुख केंद्र बिन्दु उत्तर भारत था।शुरुआत में इसके सूत्रपात्र के दो मुख्य श्रोत "सैनिक क्रांति "और "जन क्रांति "थे ।इसके सूत्रपात्र का जिम्मा शुरुआती दौर में उत्तरप्रदेश ,बिहार ,मध्यप्रदेश ,दिल्ली ,पंजाब (वर्तमान हरियाणा )तथा आँध्रप्रदेश के उत्पीड़ित क्षत्रिय शासकों एवं मुस्लिम नबाबों ने उठाया था।
यह क्षत्रिय -मुस्लिम एकता का अदभुत संगम था ।सयुक्त प्रान्त आगरा एवं अवध में , अवध की वेगम ,बनारस के राजा चेत सिंह की फांसी ,रुहेलखण्ड के क्षत्रिय सरदारों के प्रति ईस्ट इंडिया कंपनी की उपेक्षा पूर्ण नीति और दिल्ली के अंतिम मुगल शासक बहादुरशाह जफ़र के दो बेटों को दिल्ली में बीच मार्ग पर खड़ा करके गोली मारने की घटना ने आग में घी डालने का काम किया ,साथ ही क्षत्रिय राजाओं को गोद लेने की प्रथा को समाप्त करने की लार्ड डलहौजी की घोषणा ने भी भीषण जनक्रांति को जन्म दिया।
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राजपूतों की अंग्रेज़ हुकूमत के खिलाफ जनक्रान्ति -
परिणामस्वरूप मुग़ल शासक बहादुरशाह जफ़र के झंडे के नेतृत्व में बेगम हजरत महल ,झांसी की रानी लक्ष्मीबाई , बाजीराव पेशवा ,अवध के राजा बेनी माधव सिंह ,उन्नाव के राव रामबक्श सिंह बैस ,बाबू कुंवर वीरसिंह पंवार जगदीशपुर ,दरियाव सिंह खागा ,राजा नरपति सिंह हरदोई ,शिवरतन सिंह हिस्था सेमरी बिहार ,गालब सिंह अलुरी ,सीताराम राजू आंध्र प्रदेश तथा रानी निड़ाल नागालैंड आदि ने क्रांति कर लाखों क्रांतिकारियों के साथ क्रांति की ज्वाला को प्रज्जवलित कर दिया।
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रामदल का गठन -
इसी समय गोंडा के राजा देवी बख्श सिंह बिसेन ,कालाकांकर के राजा हनुमंत सिंह ,प्रताप सिंह ,माधोसिंह ,अवध के राजा बैनी माधव सिंह ,दरियाव सिंह ,बाबूसहलन सिंह ,जोधराज सिंह खीरी आदि राजाओं ने अवध की वेगम हजरत महल के योगदान से कालाकांकर के गंगा पुलिन पर "राम दल "का 16मई 1857ई0 में गठन किया जिसका प्रतीक चिन्ह "श्री राम "के चिन्ह के साथ लाल कमल का फूल था और जिसके प्रचार तंत्र में योगी एवं साधू -महात्मा भी घर- घर जाकर क्रांति का प्रचार -प्रसार कर रहे थे।
अंग्रेजी हुकूमत में अवध के जो सरदार लगान नही दे पारहे थे उनकी जमीन जप्त कर ली गयी और उनको उनके अधिकारों से वेदखल कर दिया गया ।इस कठोर नीति ने जनक्रांति को वीभत्स रूप प्रदान किया ।इसी समय अंग्रेजों के द्वारा प्रदत्त बंदूकों की गोलियों से गाय और सूअर की चर्बी के लगाने से हिन्दू और मुस्लिम सैनिकों में धार्मिक उन्माद ने क्रांति के रूप में जन्म ले लिया ।बैसवाडा क्षेत्र उस समय ब्रिटिश फ़ौज की छावनी थी ,जहाँ 40000 हजार से अधिक क्षत्रिय सरदार सेना में सैनिक थे ।करीव तीस हजार पेंशन पारहे थे इनको युद्ध का अनुभव था ।वे सभी राजाओं की क्रांति सेना में भर्ती हो गये।
नवाब रुहेलखण्ड की सेना में पिचहत्तर हजार बैस राजपूत सैनिक ,बैस वाड़ा के राजा बेनी माधव की सेना में 35 हजार सैनिक थे ।बैसवाड़ा के हर परिवार से हर एक व्यक्ति उनकी सेना का अंग था ।बिहार के कुंवर वीर सिंह की सेना में 65 हजार विद्रोही सैनिक शामिल थे। यह एक महान क्रांति का समय था ।अंग्रेज गरीब भारतीयों को धन के लालच से ईसाई बनाने में लगे थे। इससे कुछ क्षत्रिय सरदारों के मन में क्षत्रिय समाज को लामबन्द करके इस बलि बेदी पर एक सूत्र में बाँधने की आवश्यकता का अनुभव हुआ।
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क्षत्रिय हितकारणी सभा का गठन -
कालाकांकर प्रतापगढ़ के राजा हनुमंत सिंह के नेतृत्व में गंगा -जमुना क्रांति के प्रवाह में "राम दल "नाम के संघ ने गोपनीय तरीके से क्लब के रूपमें क्षत्रिय महासभा के सूत्रपात्र को जन्म दिया और क्षत्रियों ने "राम दल " को विघटित कर उसके स्थान पर 1860 ई0 में "क्षत्रिय हितकारणी सभा का गठन किया पर यह राजाओं ,राजदरवारियों और उनके सहयोगियों का संगठन आम बन कर रह गया जिसका कार्य क्षेत्र उत्तरप्रदेश में प्रतापगढ़ ,गोरखपुर ,आजमगढ़ ,बलिया ,रायबरेली ,उन्नाव ,आगरा ,मथुरा ,हरदोई ,मैनपुरी ,गोंडा तक ही सीमित था । बाद में संगठन का मध्यप्रदेश ,राजस्थान ,गुजरात ,बंगाल ,जम्बू कश्मीर ,पंजाब , हरियाणा तक विस्तार किया गया ।कालाकांकर (प्रतापगढ ) में जन्मी क्षत्रिय हितकारणी सभा को कालान्तर में आगरा और अवध के नाम को परिवर्तित कर संयुक्त प्रान्त आगरा और अवध के नाम से पंजीकृत कराया गया ।
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क्षत्रिय महासभा का निर्माण -
एटा जनपद में स्थित अवागढ़ रियासत के राजा बलवंत सिंह जी के नेतृत्व में तत्कालीन समिति के प्रतिनिधि ठाकुर उमराव सिंह रियासत कोटला (आगरा ) , राजर्षि राजा उदयप्रताप सिंह बिसेन रियासत भिंगा ( बहराइच ) ,राजा खडग बहादुर सिंह मझोली (बिहार ) ,श्री रामदीन सिंह ,तथा राजा मल्ल एवं अन्य क्षत्रियों सरदारों ने "क्षत्रिय हितकारणी सभा " का नाम बदल कर इसका पुनः नामकरण "क्षत्रिय महासभा " रखा। इसी समय में संयुक्त प्रान्त आगरा और अवध के अन्तर्गत 19 अक्टूबर सन 1897 ई0 में भारतीय सोसाइटी अधिनियम के तहत राजधानी लखनऊ (लक्ष्मणपुर )अवध में " क्षत्रिय महासभा " का पंजीकरण हुआ ।
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राजा बलवंत सिंह अवागढ़ रियासत संस्थापक एवं प्रथम अध्यक्ष निर्वाचित -
राजा बलवंत सिंह ,अवागढ़ ,एटा को संयुक्त प्रान्त आगरा एवं अवध को जनक (Founder )के रूप में अध्यक्ष निर्वाचित कर इसका पंजीकरण पंजीकृत कार्यालय 224 महात्मा गांधी मार्ग ,लखनऊ कैंट ,उत्तरप्रदेश तथा प्रधान कार्यालय मथुरा ,संयुक्त प्रान्त आगरा एवं अवध में रखा गया ।
उपाध्यक्ष - राजा उदयप्रताप जूदेव एवं ठाकुर उमराव सिंह-
भिंगा नरेश राजा उदय प्रताप बिसेन एवं ठाकुर उमराव सिंह कोटला निर्विरोध उपाध्यक्ष निर्वाचित किये गए।
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क्षत्रिय सभा बनाम अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा -
कालान्तर में 09 -11 -1986ई0 में महाराजा लक्ष्मण सिंह डूंगरपुर के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं श्री कोक सिंह भदौरिया ,राष्ट्रीय महामंत्री के समय में "क्षत्रिय महासभा " यह सभा भारत में "अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा "के रूप में सम्बोधित होगी ,के नाम से पुनरावृत्ति की गयी ।
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तुम हमको यूँ ही भुला न पाओगे-
देश जब अंग्रेजों की गुलामी की जंजीर में जकड़ा हुआ था उस समय आम राजपूत की आर्थिक एवं शैक्षनिक स्थित बहुत ही दयनीय थी। एक तरफ सामाजिक संगठन का आभाव व् दूसरी तरफ अशिक्षा ने समाज की उन्नति को खोखला कर रखा था। अधिकांश बड़े बड़े राजा व् महाराजा अंग्रेजों के कठपुतली बन चुके थे ।सामाजिक चेतना की जागृति करने का तो किसी ने सोचा भी नही था ।जादातर राजवाड़े अपनी सुख -सुविधाओं को बनाये रखने के लिए ही अंग्रेजों के आधीन थे।
उन्हें समाज के उत्थान से कोई लेना -देना भी नही था । देशके कुछ गिने -चुने छोटे राजाओं और जागीरदारों के मन में यह विचार आया कि क्षत्रिय समाज का कैसे उत्थान सम्भव है क्यों कि परिस्थितियां उस समय बहुत प्रतिकूल थी । कुछ जागीरदार एवं शिक्षित राजपूतो ने विचार कर समाज के शैक्षणिक विकास व् सामाजिक उत्थान के लिए संगठन बनाने का मंथन और चिंतन किया जिसमें राजा बलवंत सिंह अवागढ़ ,राजर्षि राजा उदयप्रताप सिंह बिसेन ,ठाकुर उमराव सिंह ,राजा प्रताप सिंह जी कश्मीर ने प्रचार प्रसार करके क्षत्रियों में शिक्षा व् सामाजिक उत्थान के लिए जागृति के लिए अभियान चलाया।
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ये हमारे लिए बड़े हर्ष एवँ स्वाभिमान का विषय है क़ि ये उन तीनों महापुरुषो के द्वारा बनाया गया क्षत्रियों का संगठन " क्षत्रिय महासभा" तदर्थ नाम "अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा " आज इतना बड़ा बट वृक्ष का रूप ले चुका है कि देश के सभी प्रान्तों के जिलों में विद्यमान है और राजपूत हितों के लिए कार्य कर रहा है। अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा की प्रथम सभा आगरा में ठाकुर उमराव सिंह जी और उनके छोटे भाई नौ निहाल सिंह जी की कोठी "बाघ फरजाना "जिसको बाद में राजपूत बोर्डिंग हाउस का नाम दिया गया उसमें संपन्न हुई थी।
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राजपूत नासिक समाचार पत्र का प्रकाशन -
20जनवरी 1898को राजा बलवंत सिंह जी और उनके दोनों सहयोगी राजा उदय प्रताप सिंह जी भिंगा और कोटिला के राजा उमराव सिंह ने बनारस के बाबू सांवल सिंह जी की अध्यक्षता में प्रस्ताव पारित करके क्षत्रिय समाज में एकता और जागृती लाने के उदेश्य से एक समाचार पत्र जिसका नाम "राजपूत मासिक "दिया गया प्रकाशित कर वाया गया जिसके माध्यम से देश के विभिन्न भागों में फैले हुए समस्त क्षत्रिय समाज में उनकी सामाजिक ,शैक्षणिक विकास एवं समस्याओं के निराकरण के जनसम्पर्क और नुक्कड़ सभाएं शुरू हुई।
इस अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा संगठन के माध्यम जो कार्य राजा बलवन्त सिंह एवं भिंगा नरेश उदय प्रताप जी ने किया जो बहुत बड़े राजा और महाराजाओं ने भी समाज के लिए नही किया ।इन्होंने समाजपीड़ा और परिस्थिती को गंभीरता से समझा और समाज के विकास के लिए सार्थक प्रयास किये ।यही उच्च कोटि की सोच समाज के विकास के प्रति देश के सभी राजा और महाराजाओं की होती तो शायद आज राजपूतों के विकास की तस्वीर ही कुछ और होती।
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राजपूत गजट का प्रकाशन -
इसके बाद महाराजा प्रताप सिंह जी जम्बू -कश्मीर ने लाहौर से "राजपूत गजट"नामक उर्दू समाचार पत्र प्रकाशित किया जिसको ठाकुर शुखराम दास चौहान ने एडिट किया था ।इन समाचार पत्रों के माध्यम से क्षत्रिय महासभा ने देश में जिले और तालुका स्तर पर सभाओं की सूचनाओं के द्वारा समाज में एकता और जागृति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया ।
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राजा बलवंत सिंह जी अवागढ़ का राजपूतों के शैक्षणिक विकास एवं सामाजिक उत्थान में महान योगदान -
उर्दू के एक शायर ने बिलकुल ठीक ही कहा है --"हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पर रोता है ,बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा " स्वर्गीय राजा बलवन्त सिंह जी यथार्थ में एक दैव पुरुष थे जिनके व्यकित्व में दैनिक गुणों का पूर्ण रूप से प्रतिनिधित्व था, उन जैसे व्यक्ति यदा कदा ही अवतरित होते है ।श्रेष्ठ पुरुषों में जितने भी शुभ गुण दृषिटगत हो सकते है वे सब राजा साहब में प्रतिष्ठित थे ।समाज एवं शिक्षा के क्षेत्र में आप की सेवाएं सर्व विदित है
राजा बलवन्त का जन्म 21 सितम्बर सन् 1853 को बरई गांव के जमींदार ठाकुर उमराव सिंह के यहां हुआ था। राजा बलवन्त सिंह का प्रथम विवाह एटा जनपद के जादों ठिकाना दलशाहपुर से ठाकुर दुर्गपाल सिंह की बहिन के साथ हुआ था जिनका शीघ्र निधन हो गया था द्वितीय विवाह अलीगढ़ जनपद के चौहान राजपूत ठिकाना छलेशर की कलावती देवी के साथ हुआ ।बलवन्त सिंह जी अपने बड़े भाई राजा बलदेव सिंह के साथ रियासत के सभी काम-काजों को देखते थे।
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तभी उन्होंने राजा बलदेव सिंह की अनुमति पर सन 1885 में क्षत्रियों की शिक्षा के लिए आगरा में राजपूत बोर्डिग हाउस छात्रावास प्रारम्भ किया जिसके लिए 13 हजार रुपये में छात्रावास के किये एक इमारत खरीदी गई जो आजकल राजा बलवन्त सिंह महाविद्यालय की पुरानी बिल्डिंग है।इसके बाद संयुक्त प्रान्त के गवर्नर सर ऑकलैंड कॉल्विन के द्वारा राजपूत छात्रावास का विधिवत शुभारम्भ किया गया जिसका 1887 में क्वीन विक्टोरिया की रजत जयंती होने की वहज से उसका " जुवली राजपूत बोर्डिंग हाउस "नाम दिया गया।
तत्कालीन अवागढ़ राजा बलदेव सिंह के 8 मार्च 1892 को निधन हो जाने के कारण उनके अनुज बलवन्त सिंह 16 नवम्बर सन् 1892 ई. में अवागढ़ रियासत के राजा के पद पर विराजमान हुए। उस समय उनकी उम्र 39 वर्ष की थी। वे शारीरिक रूप से बहुत ही बलवान और तेज बुद्धि वाले थे। उनके बारे में कहा जाता है कि उनकी लगन व्यायाम तथा शारीरिक परिश्रम की ओर अधिक थी।वे पुरुषार्थी अधिक थे।
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सन 1897 के भीषण अकाल की विभीषिका में जनता की अभूतपूर्व मदद -
सन 1898 में देश में भीषण अकाल पड़ा था जिससे लोगों के जीवन को तहस -नहस कर दिया।आम जनता भूख से मरने लगी थी तथा मवेशियों का तो हाल ही सोचनीय था। अंग्रेजी हुकूमत का कहर भी जनता को सहना पड़ रहा था इस बुरे दौर में राजा बलवन्त सिंह जी ने अपने खजाने तथा अनाज भंडारों को खोल कर क्षेत्रीय जनता की भरपूर मदद की थी जिसकी अंग्रेज सरकार ने भी प्रसंसा की और राजा साहिब को सी 0आई0 ई0 की उपाधि से सम्मानित किया गया।
राजा बलवंत सिंह जी अधिक पढे लिखे नही थे ।इस पीड़ा से उनके ह्रदय में राजपूतों के शैक्षणिक विकासकी भावना का दर्द जाग्रत हुआ और इसके लिए उन्होंने साक्षरता के प्रसार की ओर दूरगामी दृष्टि डाली ।
सन् 1899 में श्रद्धेय स्वर्गीय पंडित मदन मोहन मालवीय जी , राजा रामपाल सिंह कालाकांकर और कोटला के ठाकुर उमराव सिंह जी के परामर्श से राजा साहिब ने जुबली राजपूत बोर्डिंग हाउस छात्रावास को राजपूत हाई स्कूल में अपग्रेड करवाया ।सन 1901 में प्रथम बैच के रूप में मैट्रिक परीक्षा राजपूत छात्रों ने इलाहाबाद विश्व विद्यालय से सम्बंधित इस स्कूल से पास की।
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1906 में राजा बलवन्त सिंह ने अपनी रियासत से एक लाख रुपये स्कूल की इमारत बनवाने हेतु दान दिए जो 1913 के मध्य तक बनकर तैयार हुई। सन 1908 में यह राजपूत स्कूल राजा बलवंत सिंह के अधीन रहा। अपने निधन से पूर्व राजा साहिब ने सन 1909 में एक वसीयत की जिसके अनुसार 9 लाख 30 हजार रुपये तथा खंदारी गांव के निकट 49 एकड़ का एक फार्म इस संस्था के लिये प्रदान किये।अभी यह संस्था केवल 15 वर्ष की अवधि ही प्राप्त कर सकी थी कि 21 जून 1909 में राजा बलवन्त सिंह इस संस्था को शैशव काल में छोड़ कर आगरा में स्वर्गवासी हो गए ।
राजा बलवंत सिंह के इस दान ने शिक्षा के क्षेत्र में एक क्रान्ति उत्पन्न कर दी। शिक्षा के लिये दिया जाने वाला दान सबसे बडा धर्म माना गया है। कौटिल्य ने तो दान को ही धर्म बताया है। हालांकि उस समय के राजा महाराजाओं के लिये इतना दान देना कोई बड़ी बात नहीं थी परन्तु समय और आवश्यकता के अवसर पर जो दान दिया जाय उसका अधिक महत्व होता है ।एक विद्वान ने लिखा है कि “बहुत अधिक देने से उदारता सिद्ध नहीं होती, आवश्यकता के समय सहायता देना ही उदारता है ।"
स्वर्गीय राजा बलवन्त सिंह के इस परोपकारी कार्य को आगे बढाने में कोटला परिवार के राजा कुशलपाल सिंह ,ठाकुर ध्यानपाल सिंह ने तन , मन ,धन सेसन 1923 तक निष्ठा से पूर्ण किया। अमेरिका के प्रसिद्ध विद्वान एमर्सन ने लिखा है कि- "कोई भी महान संस्था केवल एक व्यक्ति की विस्तारित छाया मात्र होती है, An Institution is the lengthened shadow of one man."
राजा बलवन्त सिंह ऐसी सेवाभावी विभूतियों में से थे जिन पर सम्पूर्ण देश को गर्व है। आपकी परिष्कृत रुचि, सांस्कृतिनिष्ठा , देश भक्ति और शासन नीति निपुणता एवं विद्या प्रेम सचमुच अनुकरणीय है। राजा बलवंत सिंह राजपूत कालेज के रूप में माँ भारती के समान आपकी जो मंगलमयी भावना मूर्तिमय खड़ी है, वह हमारे सारे देश में विभिन्न विषयों के अध्ययन के द्वारा यहाँ सबके लिये एक रीढ़ के रूप में परिणत हो गया है। उनके द्वारा लगाया गया यह पौधा अब एक विशाल कल्प वृक्ष होकर मनोवांछित फल दे रहा है।
विस्टन चर्चिल ने लार्ड कर्जन का चरित्र-चित्रण करते हुये एक बार कहा था कि-- Every thing interested him, and the adorned nearly all he touched" अर्थात् उन्हें हर चीज में दिलायी थी और जिस चीज को उन्होंने छूआ उसे अलंकृत कर दिया।" यह कथन राजा साहब के सम्बन्ध में भी पूर्णत: चरितार्थ होता है। राजा साहब इस शिक्षण संस्थान के प्रतिष्ठाता ही नहीं, उसकी आत्मा है और उन्होंने मन-प्राण से इसका पोषण एवं संवर्धन किया है। अब यह शिक्षण संस्थान अपने 100वर्ष पूर्ण करते हुए तीव्र गति से आगे बढ़ रही है।। राजा साहब का इस शिक्षण संस्थान से कितना घनिष्ठ सम्बन्ध था, यह किसी से छिपा नहीं है। शिक्षा के क्षेत्र में एवं अशिक्षित होते हुये भी जो सेवा उन्होंने की है , भरतीय शिक्षा के इतिहास में उसका अंकन प्रमुख रूप से जरूर होगा ,इसमें सन्देह नहीं है।
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राजा सूरज पाल सिंह जी के समय में 1928 में इंटर मीडिएट कॉलेज में क्रमोन्नत हुआ और जिसका नाम बलवंत राजपूत कॉलेज किया गया ।सन् 1940 में ये डिग्री कॉलेज बन गया जिसके विकास में अवागढ़ राजपरिवार का महत्वपूर्ण योगदान रहा जो आज दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा कॉलेज है जिसके पास लगभग 1100 एकड़ जमींन है।
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हिन्दी भाषा की मान्यता के लिए अथक प्रयास-
राजा बलवंत सिंह जी सन 1898 में पंडित मदनमोहन मालवीय जी के नेतृत्व में अपने मित्र अयोध्या के महाराजा प्रताप नारायण सिंह ,मांडू के राजा राम प्रसाद सिंह ,श्री कृष्णा जोशी ,डॉ0 सुंदरलाल के साथ अंग्रेज गवर्नर सर् एंटोनी मैक डोनाल्ड से हिंदी भाषा का प्रयोग कचहरी तथा सरकारी डाक्यूमेंट्स में मान्यता देने केलिए मिले तथा दबाव बनाया जिनके प्रयास के फलस्वरूप सरकारी दस्तावेजों में हिंदी में काम करने की मान्यता 18 अप्रैल 1900 को मिली जो कि उस समय एक बहुत ही बड़ी बात थी ।
राजा सूरजपाल सिंह जी ने देश की काफी शिक्षण संस्थाओं जैसे शांतिनिकेतन ,किशोरी रमन महाविद्यालय मथुरा ,धर्म समाज महाविद्यालय अलीगढ़ , स्वतंत्रता सेनानियों की प्रत्यक्ष रूप से आर्थिक मदद की थी ।
राजा साहिब के छोटे बेटे राव कृष्णपाल सिंह जी हिंदूवादी विचारके पक्के समर्थक थे ।सन 1951में जब भारतीय जनसंघ स्वर्गीय श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में बनी थी तब उत्तरप्रदेश के भारतीय जनसंघ के प्रथम अध्यक्ष राव कृष्णपाल सिंह अवागढ़ तथा जनरल सेक्रेटरी स्वर्गीय पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी बनाये गए थे ।राव कृष्णपाल जी हिन्दू महासभा के भी अध्यक्ष रहे तथा क्षत्रिय महासभा के उपाध्यक्ष भी रहे तथा 1962 के तृतीय लोकसभा में वे जलेसर ,एटा के सांसद भी रहे जिनकी गिनती सादगी से परिपूर्ण ईमानदार जन प्रतिनिधियों में कीजाती थी ।राजा बलवंत सिंह महाविद्यालय के विकास में उनका अभूतपूर्व योगदान रहा ।
2- उपाध्यक्ष- राजर्षि राजा उदय प्रताप जूदेव भिंगा रियासत -
राजा उदय प्रताप सिंह जी भिंगा राजपरिवार का भी राजपूतों के सामाजिक विकास के अतरिक्त शैक्षणिक विकास में भी महत्वपूर्ण व् सराहनीय योगदान रहा था ।वे स्वयं भी बहुत शिक्षित थे ।राजपूतों के शैक्षणिक विकास में उनके योगदान को हमेशा याद रखा जाएगा ।उन्होंने वाराणसी में सन् 1909 में हेवेत क्षत्रिय हाई स्कूल की स्थापना की जिसके लिए 10 लाख रूपये दान दिए जो 1921 में इंटरमीडिएट कॉलेज में अपग्रेड हुआ जो बाद मेंउदय प्रताप इंटरमीडिएट कॉलेज के नाम से जाना गया ।बाद में 1949में डिग्री कॉलेज में अपग्रेड हुआ और जिसका नाम उदय प्रताप ऑटोनोमस कॉलेज हुआ ।राजा उदय प्रताप सिंह जी ने क्षत्रिय उपकर्णी महासभा की स्थापना की जिसके लिए भींगा राज क्षत्रियों के लिए 35000रूपये दान दिए ।इसके अलावा वे हर साल क्षत्रिय ग्रेजुएट को ऑक्सफ़ोर्ड और कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में शिक्षा पाने के लिए11000रूपये क्षात्रवृति के रूप में देते थे।
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राजा साहिब स्वर्गीय पंडित मदन मोहन मालवीय जी की विचाधारा के अनुयायी थे ।उन्होंने उदय प्रताप कॉलेज के आलावा कई दूसरी संस्थाओं को आर्थिक सहायता प्रदान की ।राजा साहिब ने वाराणसी के कमच्छा में उर्फन्स होम ,भिनगा राज अनाथालय स्थापित किये जिसके लिए 123000रूपये खर्चे के लिए दान दिए ।उन्होंने लाखों रूपये दूसरे सामाजिक संगठनो को दान दिए जिनमें के0 जी0 मेडिकल कॉलेज लखनऊ ,कैल्विन तालुकुदार कॉलेज लखनऊ ,मूलघंध कुतिविहार ,सारनाथ ,हिंदी प्रचारिणी सभा सम्लित है ।उन्होंने राजपूत छात्रों के लिए कई छात्रवृति के रूप में फण्ड दिए जिसके लिए वे हमेशा याद किये जाएंगे ।
3- उपाध्यक्ष- ठाकुर उमराव सिंह कोटला रियासत -
राजपूतों के शैक्षणिक विकास एवं सामाजिक उत्थान में कोटला के ठाकुर उमराव सिंह जी एवं उनके अनुज ठाकुर नौ निहाल सिंह का महत्वपूर्ण योगदान रहा था ।कोटला राजपरिवार के लोग उस समय शिक्षा के क्षेत्र में देश के सम्पूर्ण क्षत्रियों में अग्रणी थे ।वे शिक्षा की महत्ता को समझते थे ।इस लिए उनकी सोच राजपूतों की शिक्षा के लिए दूरगामी भी थी ।उनकी जयपुर राजपरिवार से भी नजदीकी रिस्तेदारी थी ।राजा मान सिंह जी दुतीय जो ईसरदा ठिकाने से जयपुर की गद्दी पर बिराजे थे उनकी ननिहाल कोटला जादौन राजपरिवार में उमराव सिंह जी के यहाँ थी ।सन् 1878 में एक शिक्षण संस्था की स्थापना का प्रयत्न कुछ विचारशील व्यक्तिओं के द्वारा एक काल्पनिक योजना को मूर्तरूप देने का प्रयास किया गया था।
उस समय आगरा ही शिक्षा का इस क्षेत्र में बड़ा विकसित शहर था ।कोटला के ठाकुर उमराव सिंह जी और उनके छोटे भाई नौ निहाल सिंह जी के निजी निवास स्थान के आउट हाउस में केवल 20 राजपूत छात्रों को रहने एवं पढ़ने के लिए एक बोर्डिंग हाउस खोला गया ।उनकी ये कोठी बाग़ फरजाना नाम से आगरा में मशहूर थी ।उसमे एक वार्डन व् एक ट्यूटर भी रखा गया ।इस संस्था को आगे सुचारू रूप से संचालन के लिए दूसरे प्रमुख जादौन राजपूत जमींदारों का भी सहयोग लिया गया जिनमें मुख्य रूप से राजा बलदेव सिंह जी अवागढ़ ,राजा लक्षमण सिंह जी बजीरपुरा जिला आगरा ,ठाकुर लेखराज सिंह जी गभाना रियासत ,अलीगढ ,ठाकुर कल्याण सिंह जी ठिकाना जलालपुर ,अलीगढ थे।
इसके बाद समाज के कुछ बुद्धिजीविओं के मन में विचार आया कि इस बोर्डिंग हाउस से काम नही चलने बाला ।सन् 1905 में अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा का राजपूत बोर्डिंग हाउस में 9वां अधिवेशन हुआ जिसमे आगरा में एक सेंट्रल राजपूत कॉलेज खोलने का प्रस्ताव रखा गया । लेकिन किन्ही कारणों से पूर्ण न हो सका ।इसके बाद फिर सन् 1910में अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा का 14 वां अधिवेशन महाराजा जम्बू एवं कश्मीर के महाराजा मेजर जनरल सर् प्रताप सिंह जी की अध्यक्षता में हुई जिसमें केंद्रीय राजपूत कॉलेज आगरा में खोलने का प्रस्ताव पुनः पारित किया गया। लेकिन इलाहावाद यूनिवर्सिटी ने इस प्रस्ताव को मान्यता देने से इनकार कर दिया ।उस समय आगरा अंग्रेजी शिक्षा के लिए उपर्युक्त शहर था।
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इसके बाद शुरू हुआ देश के अन्य राजपूत शासकों के द्वारा अन्य प्रांतों में राजपूतों के लिए राजपूत बोर्डिंग हाउस और स्कूल खोलने प्रचलन जिसमें ईडर के राजा प्रताप सिंह जी ने जोधपुर में चौपान्सी स्कूल खोला ।इसके बाद राजकोट ,अजमेर ,लाहौर ,रायपुर और इंदौर शहरों में राजपूतों की शिक्षा के लिए स्कूल आरम्भ हुये जिससे समाज में शिक्षा का काफी स्तर ऊंचा हुआ ।
लेखक:- डॉ0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव:- लढोता ,सासनी
जिला:- हाथरस ,उत्तरप्रपदेश
प्राचार्य:- राजकीय कन्या महाविद्यालय सवाईमाधोपुर ,राजस्थान
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