गीत रजनीगंधा - दिनकर अपनी किरण-स्‍वर्ण से रंजित करके......

प्रिय-संगम से सुखी हुई आनंद मनाती अरुण-राग-रंजित कपोल से शोभा पाती

Dec 31, 2024 - 14:46
Dec 31, 2024 - 14:50
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गीत रजनीगंधा - दिनकर अपनी किरण-स्‍वर्ण से रंजित करके......

महाकवि जयशंकर प्रसाद

रजनीगंधा 
***
दिनकर अपनी किरण-स्‍वर्ण से रंजित करके
पहुँचे प्रमुदित हुए प्रतीची पास सँवर के

प्रिय-संगम से सुखी हुई आनंद मनाती
अरुण-राग-रंजित कपोल से शोभा पाती

दिनकर-कर से व्यथित बिताया नीरस वासर
वही हुए अति मुदित विहंगम अवसर पाकर

कोमल कल-रव किया बड़ा आनंद मनाया
किया नीड़ में वास, जिन्हें निज हाथ बनाया

देखो मंथर गति से मारुत मचल रहा है
हरी-हरी उद्यान-लता में विचल रहा है

कुसुम सभी खिल रहे भरे मकरंद-मनोहर
करता है गुंजार पान करके रस मधुकर

देखो वह है कौन कुसुम कोमल डाली में
किये सम्पुटित वदन दिवाकर-किरणाली में

गौर अंग को हरे पल्लवों बीच छिपाती
लज्जावती मनोज्ञ लता का दृश्य दिखाती

मधुकर-गण का पुंज नहीं इस ओर फिरा है
कुसुमित कोमल कुंज-बीच वह अभी घिरा है

मलयानिल मदमत्त हुआ इस ओर न आया
इसके सुंदर सौरभ का कुछ स्वाद न पाया

तिमिर-भार फैलाती-सी रजनी यह आई
सुंदर चंद्र अमंद हुआ प्रकटित सुखदाई

स्पर्श हुआ उस लता लजीली से विधु-कर का
विकसित हुई प्रकाश किया निज दल मनहर का

देखो-देखो, खिली कली अलि-कुल भी आया
उसे उड़़ाया मारुत ने पराग जो पाया

सौरभ विस्तृत हुआ मनोहर अवसर पाकर
म्लान वदन विकसाया इस रजनी ने आकर

कुल-बाला सी लजा रही थी जो वासर में
रूप अनूपम सजा रही है वह सुख-सर में

मघुमय कोमल सुरभि-पूर्ण उपवन जिससे है
तारागण की ज्योति पड़ी फीकी इससे है

रजनी में यह खिली रहेगी किस आशा पर
मधुकर का भी ध्यान नहीं है क्या पाया फिर

अपने-सदृश समूह तारका का रजनी-भर
निर्निमेष यह देख रही है कैसे सुख पर

कितना है अनुराग भरा िस छोटे मन में
निशा-सखी का प्रेम भरा है इसके तन में

‘रजनी-गंधा’ नाम हुआ है सार्थक इसका
चित्त प्रफुल्लित हुआ प्राप्त कर सौरभ जिसका

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