गीत रजनीगंधा - दिनकर अपनी किरण-स्वर्ण से रंजित करके......
प्रिय-संगम से सुखी हुई आनंद मनाती अरुण-राग-रंजित कपोल से शोभा पाती
महाकवि जयशंकर प्रसाद
रजनीगंधा
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दिनकर अपनी किरण-स्वर्ण से रंजित करके
पहुँचे प्रमुदित हुए प्रतीची पास सँवर के
प्रिय-संगम से सुखी हुई आनंद मनाती
अरुण-राग-रंजित कपोल से शोभा पाती
दिनकर-कर से व्यथित बिताया नीरस वासर
वही हुए अति मुदित विहंगम अवसर पाकर
कोमल कल-रव किया बड़ा आनंद मनाया
किया नीड़ में वास, जिन्हें निज हाथ बनाया
देखो मंथर गति से मारुत मचल रहा है
हरी-हरी उद्यान-लता में विचल रहा है
कुसुम सभी खिल रहे भरे मकरंद-मनोहर
करता है गुंजार पान करके रस मधुकर
देखो वह है कौन कुसुम कोमल डाली में
किये सम्पुटित वदन दिवाकर-किरणाली में
गौर अंग को हरे पल्लवों बीच छिपाती
लज्जावती मनोज्ञ लता का दृश्य दिखाती
मधुकर-गण का पुंज नहीं इस ओर फिरा है
कुसुमित कोमल कुंज-बीच वह अभी घिरा है
मलयानिल मदमत्त हुआ इस ओर न आया
इसके सुंदर सौरभ का कुछ स्वाद न पाया
तिमिर-भार फैलाती-सी रजनी यह आई
सुंदर चंद्र अमंद हुआ प्रकटित सुखदाई
स्पर्श हुआ उस लता लजीली से विधु-कर का
विकसित हुई प्रकाश किया निज दल मनहर का
देखो-देखो, खिली कली अलि-कुल भी आया
उसे उड़़ाया मारुत ने पराग जो पाया
सौरभ विस्तृत हुआ मनोहर अवसर पाकर
म्लान वदन विकसाया इस रजनी ने आकर
कुल-बाला सी लजा रही थी जो वासर में
रूप अनूपम सजा रही है वह सुख-सर में
मघुमय कोमल सुरभि-पूर्ण उपवन जिससे है
तारागण की ज्योति पड़ी फीकी इससे है
रजनी में यह खिली रहेगी किस आशा पर
मधुकर का भी ध्यान नहीं है क्या पाया फिर
अपने-सदृश समूह तारका का रजनी-भर
निर्निमेष यह देख रही है कैसे सुख पर
कितना है अनुराग भरा िस छोटे मन में
निशा-सखी का प्रेम भरा है इसके तन में
‘रजनी-गंधा’ नाम हुआ है सार्थक इसका
चित्त प्रफुल्लित हुआ प्राप्त कर सौरभ जिसका
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