Special : जब प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने कार के लिए लिया था लोन.... जानिए उनकी मौत के रहस्य के बारे में
स्वतंत्रता संग्राम में शास्त्री जी की भूमिका महत्वपूर्ण रही। 1921 से वे कांग्रेस के स्वयंसेवक बने। लाला लाजपत राय की सेवा भारती सोसाइटी के सदस्य रहे। मुजफ्फरपुर
दो अक्टूबर को भारत महात्मा गांधी के साथ ही अपने दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की जयंती भी मनाता है। शास्त्री जी का जन्म 1904 में उत्तर प्रदेश के मुगलसराय में हुआ था। वे सादगी, ईमानदारी और देशभक्ति के प्रतीक थे। उनका नारा जय जवान जय किसान आज भी लाखों लोगों को प्रेरित करता है। शास्त्री जी का जीवन संघर्षों से भरा था, लेकिन उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। आज उनकी जयंती पर हम उनके जीवन की उन घटनाओं को याद करते हैं जो उनकी सादगी को दर्शाती हैं। खासकर वह प्रसिद्ध किस्सा जब वे प्रधानमंत्री थे और परिवार की जरूरत के लिए बैंक से लोन लिया। यह घटना न केवल उनकी विनम्रता दिखाती है बल्कि यह भी साबित करती है कि सत्ता का पद उनके लिए कभी अभिमान का कारण नहीं बना।
शास्त्री जी का पूरा नाम लाल बहादुर श्रीवास्तव था। उनके पिता शारदा प्रसाद एक स्कूल शिक्षक थे जो राजस्व विभाग में क्लर्क के पद पर भी कार्यरत रहे। लेकिन शास्त्री जी के जन्म के डेढ़ साल बाद ही उनके पिता का देहांत हो गया। मां रामदुलारी देवी ने तीन बच्चों की जिम्मेदारी संभाली। बड़े भाई-बहन कालसी देवी और छोटी बहन सुंदरी देवी के साथ वे नानीहाल चले गए। वहां नाना हजारी लाल, जो एक हेडमास्टर थे, ने उनका लालन-पालन किया। परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर थी। फिर भी शिक्षा पर कभी कंजूसी नहीं की गई। बचपन से ही शास्त्री जी में जिम्मेदारी का भाव था। वे चचेरे भाई बिंदेश्वरी प्रसाद के साथ वाराणसी आ गए। वहां ईस्ट सेंट्रल रेलवे इंटर कॉलेज और हरिश्चंद्र हाई स्कूल में पढ़ाई की। स्कूल जाने के लिए कई मील पैदल चलना पड़ता था। जूते न होने पर भी वे कभी शिकायत नहीं करते थे। नाव का किराया बचाने के लिए वे गंगा नदी तैरकर पार करते थे। किताबें सिर पर बांधकर वे दो बार नदी पार करते, ताकि पढ़ाई में कोई रुकावट न आए।
1917 में परिवार के वाराणसी आने के बाद शास्त्री जी की प्रारंभिक शिक्षा घर पर हुई। उन्होंने संस्कृत और हिंदी सीखी। स्वामी विवेकानंद और महात्मा गांधी की किताबों से वे गहराई से प्रभावित हुए। 1921 में मात्र 16 साल की उम्र में गांधी जी के असहयोग आंदोलन ने उनका जीवन बदल दिया। उन्होंने पढ़ाई बीच में छोड़ दी और स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गए। परिवार ने बहुत मनाया, लेकिन वे अडिग रहे। नाबालिग होने के कारण गिरफ्तारी के बाद छूट गए। फिर काशी विद्यापीठ में दाखिला लिया, जो गांधी जी की प्रेरणा से स्थापित राष्ट्रवादी संस्थान था। वहां दर्शनशास्त्र और नैतिकता में प्रथम श्रेणी से स्नातक किया। विद्यापीठ ने उन्हें शास्त्री उपाधि दी, जो उनके नाम का हिस्सा बन गई। यह उपाधि उनके विद्वान होने का प्रमाण थी।
शास्त्री जी का वैवाहिक जीवन भी सादगी का प्रतीक था। 1927 में मिर्जापुर की ललिता देवी से विवाह हुआ। शादी में कोई दिखावा नहीं था। दहेज में केवल एक चरखा और खादी का कपड़ा मिला। ललिता जी ने जीवन भर उनका साथ दिया। दंपति के छह बच्चे हुए। शास्त्री जी परिवार को सिखाते थे कि सुख-दुख सबको बराबर बांटना चाहिए। वे खुद कभी विलासिता की ओर आकर्षित नहीं हुए।
स्वतंत्रता संग्राम में शास्त्री जी की भूमिका महत्वपूर्ण रही। 1921 से वे कांग्रेस के स्वयंसेवक बने। लाला लाजपत राय की सेवा भारती सोसाइटी के सदस्य रहे। मुजफ्फरपुर में हरिजन कल्याण के लिए काम किया। 1930 में दांडी मार्च के बाद वे कई आंदोलनों में सक्रिय हुए। ब्रिटिश जेल में कुल सात साल बिताए। 1928 में डेढ़ साल और 1940 में एक साल की सजा मिली। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में इलाहाबाद से भूमिगत रहकर निर्देश जारी किए। नेहरू जी के घर से कार्यकर्ताओं को मार्गदर्शन दिया। 1937 और 1946 के विधानसभा चुनाव जीते। उनका योगदान अहिंसा और सामाजिक समानता पर आधारित था। वे गांधी जी के सिद्धांतों को जीवन में जीते थे।
आजादी के बाद शास्त्री जी का राजनीतिक सफर तेज हुआ। 1946 में उत्तर प्रदेश सरकार में संसदीय सचिव बने। गोविंद बल्लभ पंत के अधीन पुलिस और परिवहन मंत्री रहे। महिलाओं को बस कंडक्टर बनाने का पहला प्रयास किया। भीड़ नियंत्रण के लिए लाठी के बजाय पानी की बौछार का इस्तेमाल शुरू किया। 1947 के दंगों और शरणार्थी पुनर्वास में सराहनीय भूमिका निभाई। 1951 में दिल्ली आकर ऑल इंडिया कांग्रेस कमिटी के महासचिव बने। 1952, 1957 और 1962 के चुनावों में कांग्रेस की जीत में उनका बड़ा योगदान था।
केंद्रीय स्तर पर शास्त्री जी ने कई विभाग संभाले। 1952 से 1956 तक रेल मंत्री रहे। इंटीग्रल कोच फैक्ट्री की स्थापना की। लेकिन 1956 की दो रेल दुर्घटनाओं में सैकड़ों मौतों के बाद नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया। यह उनकी ईमानदारी का उदाहरण था। बाद में वाणिज्य और उद्योग मंत्री बने। 1961 से 1963 तक गृह मंत्री रहे। भ्रष्टाचार रोकथाम समिति गठित की। असम और पंजाब के भाषा आंदोलनों को शास्त्री फॉर्मूला से सुलझाया। 1964 में नेहरू जी की बीमारी के दौरान बिना पोर्टफोलियो मंत्री बने।
नौ जून 1964 को नेहरू जी के निधन के बाद शास्त्री जी प्रधानमंत्री बने। के. कामराज के समर्थन से मोरारजी देसाई को हराया। नेहरू मंत्रिमंडल को बरकरार रखा। इंदिरा गांधी को सूचना प्रसारण मंत्री बनाया। उनका कार्यकाल छोटा लेकिन प्रभावी रहा। 1965 में मद्रास में हिंदी विरोधी आंदोलन शांत किया। अंग्रेजी को सह-आधिकारिक भाषा बनाए रखने का वादा किया।
शास्त्री जी का सबसे बड़ा योगदान 1965 के भारत-पाक युद्ध में था। पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला किया। शास्त्री जी ने दृढ़ता दिखाई। भारतीय सेना ने लाहौर तक पहुंचकर पाकिस्तान को हराया। इस दौरान जय जवान जय किसान का नारा दिया। यह नारा सैनिकों और किसानों की एकता का प्रतीक बना। युद्ध समाप्ति पर सोवियत मध्यस्थता से ताशकंद घोषणा हुई। दस जनवरी 1966 को शास्त्री जी और पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खान ने शांति समझौता किया।
प्रधानमंत्री के रूप में शास्त्री जी ने आर्थिक सुधारों पर ध्यान दिया। खाद्यान्न संकट से जूझते देश में हरित क्रांति की नींव रखी। पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में उच्च उपज वाली गेहूं की किस्में लाई गईं। खाद्य निगम स्थापित किया। निष्पक्ष मूल्य की दुकानें शुरू कीं। श्वेत क्रांति को बढ़ावा दिया। 1965 में राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड बनाया, जिससे दूध उत्पादन बढ़ा। छोटे उद्योगों को प्रोत्साहन दिया। गरीबी हटाओ और आत्मनिर्भरता उनकी प्राथमिकताएं थीं।
शास्त्री जी की सादगी की कहानियां अमर हैं। वे हमेशा धोती-कुर्ता पहनते थे। 1961 में ब्रिटिश क्वीन के सम्मान में पहली बार पजामा पहना। बेटे की नौकरी में गड़बड़ी पर कार्रवाई की। वे कविताएं लिखते थे जो देशभक्ति से भरी होतीं। महिलाओं के सशक्तिकरण के समर्थक थे। लेकिन सबसे चर्चित घटना कार खरीदने से जुड़ी है। प्रधानमंत्री बनने के बाद भी उनके पास निजी कार नहीं थी। परिवार सरकारी गाड़ी का निजी उपयोग नहीं करना चाहता था। बेटे सुनील शास्त्री साइकिल से कॉलेज जाते थे। दोस्तों के ताने सहने पड़े। बेटे ने पिता से कार खरीदने की जिद की। शास्त्री जी ने सहमति दी। लेकिन फिएट कार की कीमत 12,000 रुपये थी। उनके बैंक खाते में केवल 7,000 रुपये थे। उन्होंने पंजाब नेशनल बैंक से 5,000 रुपये का लोन लिया। आवेदन उसी दिन मंजूर हो गया। लोन मिलने पर शास्त्री जी ने बैंक अधिकारियों से कहा कि आम आदमी को भी इतनी तेज सुविधा मिलनी चाहिए। कार क्रिम कलर की 1964 मॉडल फिएट थी, जिसका नंबर DLE 6 था। यह कार आज भी दिल्ली के लाल बहादुर शास्त्री मेमोरियल में रखी है।
दुर्भाग्य से शास्त्री जी 11 जनवरी 1966 को ताशकंद में निधन हो गया। आधिकारिक कारण हृदयाघात था, लेकिन कई सवाल आज भी अनसुलझे हैं। पोस्टमॉर्टम नहीं हुआ। शरीर पर नीले निशान दिखे। केजीबी ने उनके नौकर को पूछताछ के लिए हिरासत में लिया। जहर या साजिश की अफवाहें हैं। बेटे सुनील ने भी जांच की मांग की। लोन चुकाने का समय नहीं मिला। बैंक ने ललिता जी को पत्र लिखा। उन्होंने पेंशन से किस्तों में हर पैसा चुकाया। इंदिरा गांधी ने लोन माफ करने की पेशकश की, लेकिन ललिता जी ने इनकार कर दिया। वे पति की ईमानदारी पर कायम रहीं। चार साल तक किश्तें भरीं। यह घटना शास्त्री जी की सादगी का जीवंत प्रमाण है।
शास्त्री जी को मरणोपरांत भारत रत्न मिला। दिल्ली में विजय घाट उनका स्मारक है। मसूरी में लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी उनके नाम पर है। वाराणसी में पैतृक घर संग्रहालय बना। उनकी विरासत सेवा और सत्यनिष्ठा की है। वे साबित करते हैं कि छोटा कद बड़ा काम कर सकता है। आज के नेता और युवा उनसे सीखें कि सत्ता सेवा का माध्यम है। शास्त्री जी अमर रहें।
Also Click : Gorakhpur : महिलाओं के प्रति अपराध में न्यूनतम, सजा दिलाने में नम्बर वन है यूपी - मुख्यमंत्री
What's Your Reaction?