Lucknow News: UNIQUE WAY TO CELEBRATE REPUBLIC DAY- अनोखे तरीके से मनाया गणतंत्र दिवस।
ज्यादातर लोगों ने गणतंत्र दिवस (republic day) सामान्य तरीके से मनाया होगा - ध्वजा रोहण, कुछ भाषण, ’भारत माता की जय’ व ’वंदे मातरम...

लेखकः संदीप पाण्डेय
LUCKNOW UNIQUE REPUBLIC DAY: ज्यादातर लोगों ने गणतंत्र दिवस (republic day) सामान्य तरीके से मनाया होगा - ध्वजा रोहण, कुछ भाषण, ’भारत माता की जय’ व ’वंदे मातरम’ के नारे और शायद मिठाई वितरण। जब से अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन हुआ है तब से अन्य अवसरों के साथ-साथ स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस पर भी तिरंगे का इस्तेमान बढ़ गया है। जब से अपने दूसरे दौर में भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई है तो एक थोड़ा आक्रामक किस्म का राष्ट्रवाद प्रचलन में आ गया है जो जब धर्म से साथ मिलकर धार्मिक राष्ट्रवाद का रूप ले लेता है तो थोड़ा खतरनाक भी प्रतीत होने लगता है।
खसकर तब जब इसे दुश्मन की आवश्यकता पड़ने लगती है। सामान्य लोगों को तिरंगा पकड़ने में, अपने घरों व वाहनों में लगाने पर गर्व महसूस होता है। किंतु यह भावना कुछ देर के लिए ही होती है जब तक समारोह का आयोजन हो रहा होता है। उसके बाद हम अपने-अपने कामों में लग जाते हैं, बिना लोगों या राष्ट्र की परवाह करते हुए। हम एक भ्रष्ट, शोषक, असंवेदनशील व्यवस्था का हिस्सा हैं और ज्यादातर लोग इसे बदलने की कोशिश भी नहीं करते। हम जाने-अनजाने उसी धारा में बहते रहते हैं।
लखनऊ में एक मनोचिकित्सक हैं डाॅ. प्रशांत शुक्ल जो मानसिक रूप से बीमार लोगों के लिए एक अस्पताल चलाते हैं। वे अवसाद, ग्रस्तता बाध्यता रोग (आब्सेसिव कम्पलसिव डिसआर्डर), पैनिक डिसआर्डर, बाध्यता रोग, उन्नाद (मैनिया) व साइकोसिस जैसे रोगों का इलाज करते हैं। कुछ रोगियों का तो वे अपना पेशेवर शुल्क लेकर इलाज करते हैं लेकिन कुछ मरीज़ों को वे सड़क से उठाते हैं जिनका इलाज कराने वाला कोई नहीं होता और न ही कोई इलाज का खर्च उठाने वाला। जब ये मरीज इतना ठीक हो जाते हैं कि वे अपने घर का पता बता पाते हैं तो डाॅ. शुक्ल उन्हें उनके परिवार के पास वापस भेजने का भी प्रयास करते हैं।
कानूनी प्रक्रिया में तो इस तरह के मरीजों को पहले न्यायालय में पुलिस द्वारा पेश किया जाना चाहिए और न्यायालय यह निर्णय लेगी कि रोगी कहां जाएगा। यह प्रक्रिया बहुत पेचीदी है। उदाहरण के लिए लखनऊ में भिखारियों के रहने के लिए जो शासकीय भवन बना है वहां आज तक एक भी भिखारी नहीं रहा जबकि सरकार उन कर्मचारियों-अधिकारियों की तनख्वाह देती रही जो इसकी देख-रेख के लिए लगाए गए हैं। डाॅ. प्रशांत शुक्ल जब किसी मरीज़ को सड़क से उठाते हैं अथवा ठीक होने के बाद उसे घर छोड़ने जाते हैं तो स्थानीय थाने को सूचित कर देते हैं। कई बार तो पुलिस ही उन्हें थाने बुला कर ऐसे मरीज़ उनके हवाले कर देती है। ऐसा एक मरीज़ आंध्र प्रदेश के राजमुण्डरी जिले का था जो लखनऊ की सड़कों पर पाया गया था। उसके ठीक होने के बाद डाॅ. शुक्ल ने डाॅ. भरत वटवानी, जो इस तरह का काम बड़े पैमाने पर मुम्बई में कर रहे हैं, की मदद लेकर उनके सोशल मीडिया पर मरीज का फोटो व विवरण डाला गया।
आंध्र प्रदेश के एक कार्यकर्ता राम कृष्ण राजू ने इस मरीज़ के परिवार को खोज निकाला एवं उसके पिता व चाचा को आंध्र प्रदेश से लखनऊ भेजा ताकि वे 13 वर्ष पहले घर छोड़े मरीज़ को वापस घर ला सकें। इस तरह डाॅ. शुक्ल ने करीब 50 मनोरोगियों का इलाज कर उन्हें उनके घर पहुंचाया है। डाॅ. भरत वटवानी अपने करजत स्थित केन्द्र से अब तक 5,500 मरीजों का इलाज करा उन्हें उनके घर पहुंचा चुके हैं जिसके लिए उन्हें 2018 में मैग्सायसाय पुरस्कार मिला। अब राम कृष्ण राजू यही काम आंध्र प्रदेश के दो जिलों विशाखापट्टनम व कडप्पा के सरकारी अस्पतालों के साथ मिलकर कर रहे हैं।
इस गणतंत्र दिवस को, 2025 में, डाॅ. प्रशांत शुक्ल एवं उनके सहयोगियों ने आशीष शर्मा नामक व्यक्ति को जिसे 27 दिसम्बर को उन्होंने लखनऊ में अशोग मार्ग स्थित दूरदर्शन कार्यालय के सामने से उठाया था को उसके घर पहुंचाने का फैसला लिया। जब वह सड़क पर पाया गया था तो उसके बाल लम्बे बढ़े हुए, शरीर गंदा था एवं वह किसी की बात सुनने को तैयार नहीं था। जब वह डाॅ. शक्ुल के लखनऊ-अयोध्या मार्ग स्थित आशा अस्पताल लाया गया तो वह वहां रुकने को तैयार नहीं था। उसने चिल्ला-चिल्लाकर अस्पताल के सारे कर्मचारियों की जिंदगी मुश्किल बना दी थी। किंतु धीरे-धीरे दवा का असर उसपर हुआ और वह सामान्य हुआ। एह महीेने के अंदर वह अपने घर का पता बता सकने तथा घर वापस जाने की स्थिति में आ गया।
26 जनवरी, 2025 को जब हममें से अधिकतर लोग उत्सव की छुट्टी मना रहे होंगे तो डाॅ. शुक्ल उनके सहयोगी पवन वर्मा व सामाजिक कार्यकर्ता आशीष द्विवेदी आशीष शर्मा को लेकर खोजवा, रकाबगंज संकरे रास्ते से होते हुए उसके घर पहुंचे। उसकी बहन जिसके साथ वह घर छोड़ने से पहले रहता था घर पर नहीं थी। आशीष शर्मा को घर छोड़े कोई दस वर्ष हो चुके थे। जब उसके पिता जिंदा थे तब उसके घर छोड़ कर चले जाने पर उसे खोज कर ले आते थे। किंतु जब से माता-पिता का देहांत हो गया उसको वापस लाना भी मुश्किल हो गया। पड़ोस में रहने वाली चाची ने उसे पहचाना। पड़ोस में रहने वाले कई लोग उससे अपना-अपना नाम पूछने लगे यह देखने के लिए कि उसका दिमाग काम कर रहा है या नहीं। चिकित्सक दल ने चाची को यह समझाते हुए कि आशीष शर्मा को दवा कैसे खिलानी है उसे उनको सौंप दिया। डाॅ. शुक्ल ने चाची को यह भी बताया कि आशीष शर्मा बाध्यता (स्किजोफ्रीनिया) नामक बीमारी से पीड़ित है एवं सही दवा दी जाएगी और किसी काम में उसका मन लगा रहेगा तो वह घर छोड़ कर नहीं जाएगा। डाॅ. शुक्ल ने इस बात की भी गारंटी ली कि दवा खत्म होने पर वे और दवा भेज देंगे। और हां, इस सबके लिए आशीष शर्मा के परिवार को कोई पैसा नहीं देना होगा।
यह गणतंत्र दिवस (republic day) मनाने का अनोखा तरीका था। चुपचाप देश की सेवा करना, खासकर उन लोगों की जिन्हें हमारी सबसे ज्यादा जरूरत है और जिन्हें समाज अवांछित या परित्यक्त मानता है। कोई झण्डा रोहण नहीं हुआ, कोई राष्ट्रªवादी नारे नहीं लगाए गए, कोई भाषण नहीं हुए, कोई ध्यानाकर्षण करने वाले कार्यक्रम नहीं हुए और न ही कोई मिठाई बांटी गई। हम एक दोगले चरित्र वाले समाज हैं। हम बात तो सेवा और त्याग की करते हैं किंतु करते हैं हम दिखावा व धूम-धाम, शोर हमें पसंद है। कई बार राष्ट्रवाद के नाम पर भी हम जो करते वह भी दिखावा ज्यादा होता है। उससे समाज का कुछ भला नहीं होता। हमें डाॅ. शुक्ल से सीखने की जरूरत है कि कैसे हम समाज को बेहतर बनाने के लिए ठोस योगदान कर सकते हैं।
यह इस लेखक का सौभाग्य रहा कि डाॅ. शुक्ल ने आशीष शर्मा को उसके घर छोड़ने जाते वक्त लेखक को साथ आने का निमंत्रण दिया।
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