27 नये पैसे लेकर मुंबई पहुंचे थे जावेद अख्तर: भुखमरी-बेघरगी से गुजरे 61 साल, फिर भी जीवन पर कोई शिकवा नहीं।
जावेद अख्तर, हिंदी सिनेमा के उन दिग्गजों में से एक हैं, जिन्होंने अपनी कलम से लाखों दिलों को छुआ। दीवार, जंजीर, शोले, डीए, डॉन जैसी कालजयी फिल्मों की कहानियां लिखकर उन्होंने बॉलीवुड को
जावेद अख्तर, हिंदी सिनेमा के उन दिग्गजों में से एक हैं, जिन्होंने अपनी कलम से लाखों दिलों को छुआ। दीवार, जंजीर, शोले, डीए, डॉन जैसी कालजयी फिल्मों की कहानियां लिखकर उन्होंने बॉलीवुड को नई दिशा दी। लेकिन इस सफलता के पीछे छिपी है एक ऐसी कहानी, जो संघर्ष, भुखमरी और बेरोजगारी की कठोर सच्चाई बयां करती है। हाल ही में 4 अक्टूबर 2025 को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर उन्होंने अपने मुंबई आने के 61 साल पूरे होने पर एक भावुक पोस्ट शेयर की। इसमें उन्होंने बताया कि 1964 में 19 साल की उम्र में वे बॉम्बे सेंट्रल स्टेशन पर सिर्फ 27 नये पैसे लेकर उतरे थे। बेघरगी, भुखमरी और बेरोजगारी के दिनों से गुजरते हुए भी आज जब वे जीवन का हिसाब लगाते हैं, तो लगता है कि जिंदगी ने बहुत मेहरबानी की। जावेद ने लिखा, "इसके लिए मैं मुंबई, महाराष्ट्र, अपने देश और उन सभी लोगों का शुक्रिया अदा करता हूं, जिन्होंने मेरे काम को सराहा। धन्यवाद, बहुत-बहुत धन्यवाद।" यह पोस्ट न सिर्फ उनके व्यक्तिगत सफर को उजागर करती है, बल्कि उन अनगिनत सपनों को भी दर्शाती है, जो मुंबई की सड़कों पर टूटते-बनते हैं।
जावेद अख्तर का जन्म 17 जनवरी 1945 को ग्वालियर में एक साहित्यिक परिवार में हुआ। उनके पिता जानिसार अख्तर एक प्रगतिशील कवि और लेखक थे, जबकि मां सफिया अख्तर भी साहित्य से जुड़ी थीं। दादा मुज्तर खैरावादी एक प्रसिद्ध शायर थे, जिनकी गजलें आज भी गाई जाती हैं। परिवार की जड़ें लखनऊ और अलीगढ़ से जुड़ी हैं। लेकिन जावेद का बचपन ज्यादा खुशहाल नहीं रहा। मात्र 11 साल की उम्र में ही मां का निधन हो गया। पिता की दूसरी शादी के बाद घर का माहौल बदल गया। जावेद को लगने लगा कि वे अब अनचाहे हैं। 15 साल की उम्र में उन्होंने घर छोड़ दिया और लखनऊ के कोल्विन तालुकदार कॉलेज में पढ़ाई की। बाद में भोपाल चले गए, जहां सैफिया कॉलेज से ग्रेजुएशन पूरा किया। पढ़ाई के दौरान ही उनका झुकाव साहित्य और सिनेमा की ओर हुआ। वे गुरु दत्त और राज कपूर जैसे फिल्ममेकर्स के फैन हो गए। ग्रेजुएशन के बाद उन्होंने फैसला लिया कि बॉम्बे जाकर फिल्म इंडस्ट्री में एंट्री लेंगे। सपना था कि गुरु दत्त या राज कपूर के साथ असिस्टेंट डायरेक्टर बनेंगे। लेकिन हकीकत इससे कहीं अलग निकली।
1964 का अक्टूबर महीना जावेद के जीवन का टर्निंग पॉइंट था। 4 अक्टूबर को वे बॉम्बे सेंट्रल स्टेशन पर उतरे। जेब में सिर्फ 27 नये पैसे थे, जो उस समय की मुद्रा थी। ट्रेन का किराया चुकाने के बाद कुछ नहीं बचा। वे सोचते थे कि सहिर लुधियानवी जैसे कवि की वजह से गुरु दत्त से कनेक्शन बन जाएगा। लेकिन किस्मत ने साथ नहीं दिया। गुरु दत्त की मौत 10 अक्टूबर को हो गई, बस छह दिन बाद। जावेद के पास रहने को जगह नहीं थी। वे पहले पिता के एक दोस्त के घर रुके, लेकिन छह दिन बाद ही वहां से निकाल दिए गए। इसके बाद शुरू हुआ लंबा संघर्ष। वे रेलवे स्टेशन, स्टूडियो के कंपाउंड, गलियारों, बेंचों और यहां तक कि पेड़ों के नीचे सोते रहे। दोस्तों के साथ बारी-बारी से रहते। कभी एक दोस्त के घर, कभी दूसरे के। लेकिन ज्यादातर रातें सड़कों पर गुजरीं। भुखमरी के दिन तो और कठोर थे। कई-कई दिन बिना खाए गुजरते। एक बार तो तीन दिन तक कुछ न खाया। महिम दरगाह के बाहर लंगर मिलता था, लेकिन जावेद का स्वाभिमान इतना ऊंचा था कि उन्होंने कभी हाथ नहीं फैलाया। वे कहते हैं, "इंसान और कुत्ते में कोई फर्क नहीं रह जाता जब भूख से तड़पते हो। लेकिन मैंने कभी भीख नहीं मांगी।" कपड़ों की हालत तो और बुरी थी। उनके पास सिर्फ दो जोड़ी कपड़े थे, जो फटे-पुराने हो चुके थे। स्टूडियो के चक्कर लगाते, लेकिन काम नहीं मिलता। कभी-कभी छोटे-मोटे काम मिल जाते, जैसे डायलॉग लिखना, लेकिन 50 रुपये मिलते, जबकि एक चपरासी को 80 रुपये वेतन होता। बेरोजगारी ने उन्हें तोड़ने की कोशिश की, लेकिन जावेद ने हार नहीं मानी। वे मानते थे कि सफलता बस समय की बात है।
ये संघर्ष 1965 से 1970 तक चले। इस दौरान जावेद ने कई असफलताएं देखीं। वे बी.आर. चोपड़ा के असिस्टेंट बने, लेकिन वहां भी स्थायी काम नहीं मिला। फिर के. आसिफ की मeron में ट्राय किया, लेकिन फिल्म रुक गई। कर्जा फिल्म में छोटा रोल मिला, लेकिन पैसे नहीं मिले। वे कहते हैं, "मैं ट्रक के नीचे आ सकता था, कैंसर हो सकता था, लेकिन ये सब नहीं हुआ। जिंदगी ने मुझे मौका दिया।" इस कालखंड में उन्होंने उर्दू साहित्य पढ़ा, कविताएं लिखीं। कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित हुए, जो उनके पिता से मिली। लेकिन सबसे बड़ा टर्निंग पॉइंट 1970 में आया, जब उनकी मुलाकात सलीम खान से हुई। सलीम भी संघर्ष कर रहे थे। दोनों ने मिलकर स्क्रिप्ट लिखनी शुरू की। पहली फिल्म जंजीर (1973) आई, जिसमें अमिताभ बच्चन को एंग्री यंग मैन बनाया। यह हिट हुई। फिर दीवार (1975) और शोले (1975) ने उन्हें स्टार बना दिया। सलीम-जावेद जोड़ी ने 70 के दशक को बदल दिया। 24 फिल्में लिखीं, जिनमें से 20 हिट रहीं। डॉन, त्रिशूल, क्रांति जैसी फिल्मों ने उन्हें अमीर बना दिया। लेकिन सफलता ने पुराने घाव नहीं भुलाए। जावेद कहते हैं, "भूख और नींद की कमी का निशान कभी मिटता नहीं। आज पांच सितारा होटलों में रहता हूं, लेकिन पुरानी यादें ताजा हो जाती हैं।"
सफलता के बाद जावेद का जीवन नया रंग ले लिया। 1972 में उन्होंने हनी ईरानी से शादी की। दो बच्चे हुए- फरहान अख्तर और जोया अख्तर, जो आज बॉलीवुड के प्रमुख नाम हैं। लेकिन शादी टूट गई। 1984 में तलाक हो गया। शराब की लत ने रिश्ते बिगाड़ दिए। जावेद ने 1991 में क्विट किया। फिर 1984 में शबाना आजमी से शादी हुई, जो आज भी साथ हैं। जावेद ने गीतकार के रूप में भी कमाल किया। लगान, कल हो ना हो, वीर जारा के गाने लिखे। पांच राष्ट्रीय पुरस्कार जीते। 1999 में पद्मश्री और 2007 में पद्मभूषण मिला। वे राज्यसभा सदस्य भी रहे। लेकिन संघर्ष की यादें उन्हें आज भी प्रेरित करती हैं। हाल की डॉक्यूसीरीज एंग्री यंग मेन (2024) में उन्होंने रोते हुए कहा, "ये दिन गुजरेंगे। बस धैर्य रखो।" जावेद की कहानी हर संघर्षरत कलाकार के लिए मिसाल है। वे कहते हैं, "मुंबई ने मुझे अपनाया। यहां सपने सच होते हैं, अगर हार न माने।"
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