विशेष आलेख: दूरदर्शी नेता को समाजहित में लेने पड़ते हैं कड़े फैसले।

बात 21 अगस्त, 2025 की है। संसद ने 'ऑनलाइन गेमिंग बिल, 2025' पारित कर दिया। समाज हित में दूरगामी सकारात्मक असर डालने वाला साहसिक बिल। ऑनलाइन सट्टेबाजी

Oct 11, 2025 - 19:26
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विशेष आलेख: दूरदर्शी नेता को समाजहित में लेने पड़ते हैं कड़े फैसले।
दूरदर्शी नेता को समाजहित में लेने पड़ते हैं कड़े फैसले।

आलेख: हरिवंश (उप सभापति राज्य सभा)

बात 21 अगस्त, 2025 की है। संसद ने 'ऑनलाइन गेमिंग बिल, 2025' पारित कर दिया। समाज हित में दूरगामी सकारात्मक असर डालने वाला साहसिक बिल। ऑनलाइन सट्टेबाजी वाले खेलों पर पाबंदी लगी साथ ही, ई-स्पोर्ट्स और सामान्य ऑनलाइन गेमिंग को हरी झंडी भी दिखा दी। इस फैसले पर अखबारों व टीवी चैनलों में खूब बहस छिड़ी। एक बड़ी दलील यह दी गयी कि सरकार को इस धंधे से मोटी कमाई होती है, लाखों लोगों को रोजगार मिला है। कुछ लोगों का मानना था कि इसी नफा-नुकसान के चक्कर में सरकार कोई कड़ा कदम उठाने से हिचकेगी, क्योंकि इससे कई लोगों की रोजी-रोटी पर असर पड़ेगा।

पर, समाज की रहनुमाई करने वाले या सरकार चलाने वाले, बड़े व दूरदर्शी नेता को बार-बार ऐसे कड़े फैसले लेने ही पड़ते हैं। जो नेता अपनी नीतियों में साफ मूल्यों और दूरदृष्टि के साथ खड़े होते हैं, वे समाज के कल्याण को सबसे ऊपर रखते हैं। दुनिया में जिन मुल्कों ने अपना नया इतिहास लिखा है, ऐसी ही कई मिसालें हैं।

इसी क्रम में शराबबंदी का इश्यू है। शराब, मोटी कमाई का जरिया है। लिहाजा बहुत कम लोगों ने इस पर रोक लगाने की हिम्मत दिखाई। बिहार ने अप्रैल 2016 में 'बिहार मद्यनिषेध और उत्पाद अधिनियम' लागू करके यह कड़ा फैसला लिया। शराबबंदी के सामाजिक लक्ष्य को पूरा करने के लिए टैक्स के भारी नुकसान को सहने का सरकार का फैसला, समाज पर पड़ने वाले असर और मूल्यों की राजनीति का नतीजा है। एक बैठक में एक महिला के आग्रह पर यह कदम मुख्यमंत्री ने उठाया. उस महिला ने भरी सभा में उन्हें बताया कि शराब की लत परिवारों को कैसे बर्बाद कर रही है।

जब बिहार विधानसभा में शराबबंदी विधेयक पर बहस चल रही थी, तो विपक्ष के एक वरिष्ठ नेता ने बिल का विरोध करते हुए लंबा भाषण दिया। हालांकि, उनका भाषण शराबबंदी के खिलाफ नहीं था। वे उन तरीकों पर जोर दे रहे थे, जिनसे इस सामाजिक लक्ष्य को बेहतर ढंग से पाया जा सकता है। अपनी बात को सही ठहराने के लिए उन्होंने अपना निजी अनुभव भी साझा किया। बताया कि कैसे नशे की लत ने उनके अपने दामाद की जान ले ली थी। उन्होंने सदन में चारों ओर देखकर कहा कि यहां बैठे कई सदस्य तंबाकू से लेकर पान तक किसी न किसी लत के शिकार हैं। उन्होंने परिवारों को बर्बाद होने से बचाने के लिए महिलाओं के बीच जागरूकता फैलाने के मुख्यमंत्री के प्रयासों की सराहना भी की। हां, यह तर्क दिया जा सकता है कि शराबबंदी का इतिहास दशकों से उतार-चढ़ाव भरा रहा है। लेकिन राजनीतिक बिरादरी में ऐसे लोग बहुत कम मिलेंगे, जो इससे होने वाले नुकसान को नजरअंदाज कर दें। किसी भी नेता के लिए फैसले लेना कभी आसान नहीं होता। इस मामले में, अर्थशास्त्र और समाज कल्याण के बीच एक को चुनना था, बिहार के मुख्यमंत्री के लिए समाज कल्याण स्पष्ट रूप से प्राथमिकता थी। 

नशे का दंश सिर्फ शराब तक सीमित नहीं है। किसी भी तरह की लत, समाज पर गहरा नकारात्मक असर डालती है। शराबबंदी के असर को लेकर स्वतंत्र शोधकर्ताओं के कई आकलन हैं। प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नल 'द लैंसेट' की एक स्टडी (2024) बताती है कि बिहार में शराबबंदी के कारण हर दिन या साप्ताहिक शराब पीने के 24 लाख मामले कम हुए। सबसे बड़ी बात, इसके चलते जीवनसाथी के साथ होने वाली घरेलू हिंसा के 21 लाख मामले टल गए। इससे राज्य में मोटापे की दर को भी नियंत्रित करने में मदद मिली।

एक दूसरे अध्ययन में, महिलाओं के खिलाफ हिंसा में आई कमी को 'जीविका' जैसे मजबूत जमीनी स्वयं-सहायता समूहों से भी जोड़ा गया। जीविका ने महिलाओं को आर्थिक और अन्य सहायता देकर उन्हें और सशक्त बनाया। इसी संदर्भ में भावनात्मक हिंसा में 4.6 फीसदी और यौन हिंसा में 3.6 फीसदी की कमी आई। बिहार में शराबबंदी लागू होने के तत्काल बाद, आरा में एक परिवार से बात हुई। सड़क किनारे झुग्गी में रहनेवाले दंपत्ति-बच्चे, खुश पत्नी ने बताया, पहले पति जो कमाते थे, शराब में जाता था। अब उस पैसे से घर में खाने-पीने व बच्चों को पढ़ाने का काम हो रहा है। समय से पति घर आते हैं। पहले ढूंढ़ना पड़ता था। कहां नशे में पड़े हैं? घर में कलह, मारपीट व हिंसा बंद है। गरीब व असमर्थ बच्चे, स्कूल जाने लगे. घर में हिंसा बंद या कम हो, तो 'सामाजिक सुख' का एहसास ही हो सकता है। जो शराबबंदी से असहमत हैं, वे भी 2016 के पहले, बारातों में शराब पीकर सड़क पर घंटो नृत्य, सड़क अवरोध, मारपीट-तनाव और हिंसा की वारदातों से मुक्ति की सराहना करते हैं।

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