एक ऐतिहासिक शोध : यदुवंशी (जादों ) क्षत्रियों की कुलदेवी भगवती योगमाया।
कुलदेवी के विषय में यह मान्यता है कि प्रत्येक क्षत्रिय वंश की रक्षा (युद्ध के समय या आपत्ति काल में) करने वाली देवीय शक्ति ने उस की मदद कर दी.....
एक ऐतिहासिक शोध : यदुवंशी (जादों ) क्षत्रियों की कुलदेवी भगवती योगमाया
क्षत्रियों में कुलदेवी की महत्ता-
कुलदेवी के विषय में यह मान्यता है कि प्रत्येक क्षत्रिय वंश की रक्षा (युद्ध के समय या आपत्ति काल में) करने वाली देवीय शक्ति ने उस की मदद कर दी ,उसी शक्तिरूपा देवी को उस वंश के संस्थापक ने अपनी कुलदेवी मान लिया और उस वंश के सभी लोग उसी देवी को पूजने लगे। जब तक क्षत्रिय वंश की रक्षा करने वाली कुलदेवी का संसार में अस्तित्व है तब तक क्षत्रिय वंशों को कोई भी शक्ति नष्ट नहीं कर सकती ।क्षात्र धर्म के पतन के इस भीषण दौर में भी क्षत्रियों ने ज्ञानतावश अपनी कुलदेवी -देवताओं का पूजन करके उनका अस्त्तित्व बनाये रखा है।आज भी क्षत्रियों के यहां कोई भी संस्कार , विवाह ,मुंडन ,छेदन बिना कुलदेवी के पूजन के सम्पन्न नहीं होता है ।इसी लिए कुलदेवी की कृपा से क्षत्रियों का अस्तित्व आज भी कायम है। लेकिन यह भी सत्य है के वंशों में भी जब विभाजन हुआ तो अलग -अलग नए कुल और बने तो उनके संस्थापकों ने भी अलग -अलग स्थानों पर जहां पर वे स्थापित हुए वहां जिस शक्तिरूपा देवी ने उनकी मदद की उसी को उन्होंने अपनी कुलदेवी मान लिया।
यदि वंशों की परम्पराओं को माना जाय तो सूर्यवंश, चन्द्रवंश ,अग्निवंश ,ऋशिवंश की अलग -अलग कुलदेवी होंगी ।समय एवं परिस्थिती के अनुसार इन वंशों की भी अलग -अलग शाखाएं हुई और उन शाखाओं के संस्थापकों ने अपने मूल वंश की कुलदेवी को छोड़ कर जहां पर वे स्थापित हुए उस समय जिस दैवीय शक्ति ने उनकी मदद की उसी को उन्होंने अपने नये कुल की कुलदेवी बना लिया।कहने का तात्पर्य यह है कि समय एवं स्थान पर स्थापित होने के अनुसार उस कुल के संस्थापक ने क्षेत्रीय देवी शक्ति को जिसने उस शासक की आपत्तिकाल में मदद की अपनी कुलदेवी बना लिया जिसे उस सम्पूर्ण समाज ने मान्य किया।प्रत्येक वंश के अपनी शाखों में विभक्त होने पर अलग -अलग कुल देवियों का वर्णन मिलता है।
यदुवंश में भी कालान्तर में कई कुल अलग -अलग संस्थापकों ने स्थापित किये जिनमें जादोंवंश (योगेश्वरी /योगमाया ) , यदु भाटी वंश (सांगियाजी ) , जडेजा(आशापुरी जी ) , चुडासमा /सरवैया /रायजादा (अम्बाजी ) , बनाफर (शारदा जी )सभी की अलग -अलग कुलदेवी है ।
- विविध नामो से जानी जाती है भगवती योगमाया -
भगवती योगमाया को विभिन्न पुराणों एवं ग्रन्थों में योगेश्वरी ,योगनिद्रा ,एकांनशा , एकादशा नामों से भी वर्णित किया गया है । प्राचीन जदुवंश की वृष्णि शाखा की गाथा के प्राचीनतर मातृ सत्तात्मक आधार को इंगित करने वाला सर्वाधिक साक्ष्य बलदेव एवं वासुदेव श्री कृष्ण की बहिन एकांनशा पर केन्द्रित है। हरिवंश पुराण के अनुसार वह श्री कृष्ण के पालक माता -पिता नंद एवं यशोदा की पुत्री , विष्णु की मायशक्ति योगनिंद्रा की अवतार है ,जो कंस के द्वारा पत्थर पर पटके जाने पर आकाश में उड़ गई औरअपने दिव्य रूप मैं प्रकट होकर कंस को कृष्ण के जन्म के होने की सूचना दी (1 )।मगर वही विवरण हमें आगे बताता है कि वह मरी नही , वृष्णियों के बीच पुत्र की तरह पाली -पोसी गई और केशव की रक्षा करने के कारण वे लोग उसे पूजने लगे (2) ।वायु एवं ब्रह्मांड पुराण भी हमें स्पस्ट रूप से बताते है कि नंद की पुत्री वृष्णियों के बीच पली थी और वे लोग उसकी पूजा करते थे(3) ।ये पुराण उसका नाम"एकदशा "बताते है।ललित विस्तर (4) में एकदशा की चर्चा एक देवी के रूप में है , जो अपनी बहनों ,अलंबुशा , कृष्णा ,द्रौपदी आदि के साथ पश्चिम में निवास करती है।एकांनशा की व्याख्या उस एकमात्र तिथि के मानवीकृत रूप में की गई है , (5) 'जिस तिथि को चन्द्रमा का कोई भी अंश उदित नहीं होता ,यह अमावस्या का ही एक विशेषण है ।' महाभारत के वन पर्व में वह श्याम वर्ण की देवी कुहु के साथ( 6) जिसकी तुलना यदाकदा अमावस्या एवं सिनीवली (7) के साथ भी की गई है ,अभिज्ञापित है । वह भद्रा अथवा सुभद्रा से भी अभिन्न कहीं गई है ,जो बलराम और केशव के साथ उड़ीसा (8 )के पुरी मंदिर में पूजी जाती है ।इससे अनिवार्यतः यही निष्कर्ष निकलता है की श्यामवर्णा देवी एकांनशा ,जिसका अपर नाम एकदशा था ,वृष्णि जदुवंशियों की अधिष्ठातृ देवी थी और वह उनकी रक्षिका समझी जाती थी।
वराहमिहिर अपनी 'वृहत संहिता' के अंतर्गत मूर्तिकला विषयक संक्षिप्त परिच्छेद में कहते है (9) कि एकांनशा की प्रतिमा के दोनों ओर बलदेव एवं कृष्ण की प्रतिमा खडी की जानी चाहिए।इससे पता चलता है कि ई0 सन की छठी शाताब्दी में भी एकांनशा अपने सहयोगी देवताओं ,बलदेव एवं वासुदेव के साथ पूजी जाती थी ।एकांनशा का संप्रदाय बलदेव एवं कृष्ण के संप्रदाय से बहुत प्राचीनतर है । कुषाण काल के कई उद्भ्रत चित्र जो मथुरा शैली में है ,प्रकाशमें आ चुके है (10) जिनमें इस देवी के संप्रदाय का ई0 सन की प्रारंभिक शताब्दियों में प्रचलित होना सिद्ध होता है ।किन्तु,उक्त दोनों देवताओं से इसका संबन्ध और इसकी उपासना का प्रारम्भ निश्चय ही उससे भी बहुत अधिक पहले ही हुआ होगा।
घटजातक (11) में बलदेव और वासुदेव को कृष्ण वर्ण की अंजना देवी का अनुज कहा गया है , जो हमारी समझ से वही देवी है ,जिसे अन्यत्र एकांनशा के नाम से अभिहित किया गया है ।कंस , असितांजना अर्थात काली अंजना के नगर का शासक था और कहा जाता है कि कन्हदीपायन (कृष्णदैवपायन )के अभिशाप से अंजना को छोड़ कर समस्त वृष्णियों का नाशह हो गया था ।उक्त देवी की उपासना के विषय में महाकाव्यों एवं पुराणों की आपेक्षिक खामोशी का कारण यह तथ्य हो सकता है कि उससमय तक वह अपना महत्व खोकर नगण्यता की स्थिति में पहुंच चुकी थी और अब उनके लेखको को , जो कृष्ण और बलराम के पराकर्मों के प्रति अधिक अनुरक्त थे ,आकृष्ट नहीं कर पाती थी ।समाज में पितृसत्तात्मक तत्वों की प्रधानता के कारण उक्त दोनों देवताओं (बलराम और कृष्ण ) की शक्ति शनैः -शनैः बढ़ती गई ।किंतु एकांनशा लगभग भुला दी गई और उसकी उपासना की विशिष्टताएं महादेवी दुर्गा और लक्ष्मी केद्वारा आत्मसात कर ली गई।ई.पू. शताब्दी के अभिलेख संकर्षण (बलदेव ) एवं वासुदेव (श्री कृष्ण ) को सम्मलित रूप में और समान श्रद्धा के साथ पूजे जाते हुए प्रदर्शित करते है ।वे इस बात के भी संकेत देते है कि किसी समय केवल उपयुक्त दो ही नहीं अपितु वृष्णियों के पांच वीर देवताओं की सम्मलित रूप से पूजा की जाती थी ।जे.एन.बनर्जी (12) ,वायुपुराण (13) के आधार पर उनकी पहिचान बलदेव ,वासुदेव श्री कृष्ण ,साम्ब ,प्रधुम्न ,एवं अनिरुद्ध के रूप में करते है ।ई0 सन की प्रथम शताब्दी में वृष्णियों के पौराणिक पूर्वजों की कथाएं काफी प्रसिद्ध प्रतीत होती है ।इन पंचवृष्णियों की पूजा पंचदेवों की सभी कल्पनाओं से पुरानी है ।इनकी पूजा और दो पुरुष सहवर्तियों के साथ एकांनशा की उपासना के बीच क्या संबंध था ,यह स्पष्ट नहीं है ।तथापि एक अनुमान के तौर पर हम कह सकते है कि पंचवृष्णियों की पूजा अपने दो भाइयों के साथ एक अधिष्ठातृ देवी की पूजा तथा कालांतर में उसके छोटे भाई के सर्वोच्च देवता के अवतार के रूप में प्रतिष्ठित हो जाने के बीच की अवस्था का द्योतक है ।वासुदेव श्रीकृष्ण की उपासना के साथ-साथ कुछ समय तक तो उपासना के प्राचीनतर रूप भी प्रचलित रहे;किन्तु वासुदेव कृष्ण की लोकप्रियता बढ़ते जाने के कारण अंततः लुप्त हो गए।
- हरिवंश पुराण में योगमाया देवी (14)-
यह योगमाया भगवान विष्णु के अंश से उतपन्न हुई थी।वह एक होते हुए भी अनंशा ---अंशरहित अर्थात अविभक्त थी ,इस लिए एकांनशा कहलाती थी ।योगबल से कन्यारूप में प्रकट हुई वह देवी भगवान श्री कृष्ण की रक्षा के लिए आविर्भूत हुई थी ,इस लिए योगमाया कहलायी ।
यदुकुल में उत्तपन्न हुए समस्त देवता उसदेवी का आराध्यदेव के समान पूजन करते थे ;क्यों कि उसने अपने दिव्य देह से श्रीकृष्ण की रक्षा की थी ।वसुदेव जी की आज्ञा से उस चिदनन्दमयी देवी का कन्यारूप से जदुवंशियों में पूजन होने लगा ।योगमाया ने ही भगवान श्री कृष्ण की आज्ञा से संकर्षण (बलराम ) जी को रोहिणी जी के गर्भ में स्थापित किया था।
भगवान के द्वारा योगमाया से कहा है कि तुम गोपकुल की स्वामिनी यशोदा नाम से विख्यात नन्दगोप की पत्नी के नवम गर्भ के रूप में हमारे कुल में उतपन्न हो ओगी ।भाद्रपद कृष्णपक्ष की नवमी तिथि को ही तुम्हारा जन्म होगा जब रात्रि युवावस्था में स्थित होगी ,उस आधी रात के समय अभिजित मुहूर्त के योग में , मैं सुखपूर्वक गर्भवास का त्याग करूँगा ।हम दोनों भाई -बहिन गर्भ के आठवें महीने में जन्म लेंगे।फिर कंसके भावी विनाश का करण प्राप्त होने पर हम दोनों साथ ही गर्भवयतयास को प्राप्त होंगे (बदल दिए जाएंगे ) (14)
- विष्णुपुराण में योगमाया(15) -
जिस अविद्या रूपिणी से सम्पूर्ण जगत मोहित हो रहा है ,वह योगनिद्रा भगवान विष्णु की महामाया है ।इसने भगवान श्री कृष्ण के साथ ही वर्षा ऋतु में भाद्रपद नवमी को पैदा हुई(15)।
- गर्गसंहिता में योगमाया(16)-
महावन में नंदपत्नी के गर्भ से योगमाया ने स्वतः जन्म ग्रहण किया था ।उसी के प्रभाव से स लोग सो गए।कंस ने अपनी बहिन की बच्ची के दोनों पैर पकड़कर उसे शिला पर् दे मारा ।वह कन्या साक्षात योगमाया का अवतार देवी अनंशा थी।कंस के हाथों सेछुट कर भगवती योगमाया विन्ध्यपर्वत पर चली गई।वहां वे अनेक नामों से प्रसिद्ध हुई(16)
- श्रीमदभागवत में योगमाया देवी (17) -
नन्दपत्नी यशोदा के गर्भ से योगमाया का जन्म हुआ , जो भगवान की शक्ति होने के कारण उनके समान ही जन्म रहित है।उसी योगमाया ने द्वारपाल और पुरवासियों की समस्त इन्द्रिय वृतियों की चेतना हर ली ,वे सब -के -सब अचेत होकर सो गए(17)
- बृज के सांस्कृतिक इतिहास ( लेखक बाजपेई एवं प्रभुदयाल मित्तल- (18 )में भगवती एकांनशा -
श्री कृष्ण के पालक माता -पिता नंद -यशोदा की उस पुत्री का नाम एकांनशा था ,जिसे जन्मते ही वसुदेव अपने नवजात पुत्र कृष्ण के बदले गोकुल से मथुरा ले आये थे ।उसे उन्होंने कंस को सौंप दिया ।भागवत के अनुसार वह योगमाया थी ,जो कंस द्वारा मारे जाने से आकाश मे तिरोहित हो गयी थी ।किन्तु अन्य प्राचीन ग्रंथों के अनुसार वह जीवित रही थी ।एकांनशा का उल्लेख महाभारत (सभा पर्व ,अध्याय 38 ,हरिवंश 4-47 , ब्रह्दसंहिता 37-57, और विष्णु धर्मोत्तर में मिलता है )।
एकांनशा श्री कृष्ण की रक्षिका थी ,धाय -माता यशोदा की पुत्री होने के कारण उनकी बड़ी बहिन भी थी ।इस कारण लोक में वह देवी के रूप में पूजित हुई।उसके दो रूप माने गये है ---एक सौम्य रूप , जो एकांनशा के नाम से भागवतों में पूज्य हुआ ,दूसरा रौद्र रूप , जो विंध्यवासिनी दुर्गा एवं भद्रकाली के नामों से शास्त्रों में मान्य हुआ ।मथुरा संग्रहालय में महामाया की कई खंडित मूर्तियां रखी है ।मथुरामण्डल से वाहर बिहार राज्य के गया जिले के देवगढ़ नामक टीला से भी एकांनशा की एक कुषाण कालीन मूर्ति मिली है जिसमें एकांनशा के साथ वासुदेव-संकर्षण भी है जो पटना संग्रहालय में विद्यमान है।
- वायुपुराण में योगमाया देवी (19)-
वसुदेव जी ने रात्रि के समय श्रीवत्स चिन्ह से विभूषित , अन्यान्य दिव्य लक्षणों से अलंकृत अधोक्षज भगवान को पुत्र रूप में समुतपन्न देखा और निवेदन किया कि हे प्रभो !आप अपने इस रूप को समाप्त कीजिये ।हे तात !मैं कंस से बहुत भयभीत हूँ --यही इतना निवेदन आप से कर रहा हूँ ,मेरे ज्येष्ठ पुत्रों को जो देखने में अद्भुत सौन्दर्यशाली थे , उसने मार डाला है । (श्लोक 202-205 ) ।वसुदेव जी की ऐसी बातें सुनकर महमहिमामय भगवान ने अपने दिव्य स्वरूप को समेट लिया ।पिता वसुदेव जी ने भगवान की आज्ञा से उन्हें नन्दगोप के घर पहुंचाकर महाराज उग्रसेन की सहमति से यशोदा की गोद में दे दिया ।उस समय संयोगत :देवकी और यशोदा ---दोनों ही गर्भवती थी ।यशोदा गोपों के अधिपति नन्दगोप की पत्नी थीं । जिस रात्रि को वृष्णिकुलोउद्धारक भगवान कृष्ण प्रादुर्भूत हुए थे उसी रात में नन्दगोप की पत्नी यशोदा ने भी एक कन्या को जन्म दिया था ।
महान यशस्वी वसुदेव जी पुत्र रूप भगवान को भली भाँति गोदी में छिपाकर यशोदा को दे आये और उनकी कन्या को अपने घर उठा लाये ।( श्लोक 206-208 ) ।ये सब महिमामय भगवान की आज्ञा से हुआ।नन्दगोप को भगवान श्री कृष्ण को समर्पित कर वसुदेव जी ने कहा कि आप मेरी रक्षा करें ,तुम्हारा यह पुत्र हम सब का कल्याण करने वाला है एवं यदुवंशियों का उद्धारक होगा ,यह देवकी का वह चिरभिलषित गर्भ है ,जो हम लोगों के समस्त क्लेशों को दूर करेगा।'इस प्रकार नन्दगोप के गृह से लौट कर आनकदुन्दुभि वसुदेव जी ने उग्रसेन के पुत्र कंस के हाथों में अर्पित करते हुए कहा कि यही शुभ लक्षण सम्पन्न कन्या उत्तपन्न हुई है ।अपनी बहन देवकी में कन्या की उत्तपत्ति सुनकर दुष्टात्मा कंस ने कुछ भी ध्यान नहीं दिया ,और अत्यंत प्रसन्न होकर उसे भी छोड़ दिया ।वह मूढ़ यह कहने लगा कि यदि कन्या ही उत्पन्न हुई है तो उसे भी मरी ही समझना चाहिए। (श्लोक 209-212 -1/2 ) ।इस प्रकार कंस द्वारा छोड़ दिए जाने पर वह कन्या वृष्णि गृह में सत्कार पूर्वक जीवन विताते हुए दिनानुदिन बढ़ने लगी।वसुदेव जी की आज्ञा से पुत्र की भाँति उसकी पालन होने लगा ।देवगण अपने में उसकी उत्पत्ति की चर्चा करने लगे ।उन्होंने प्रजापति ब्रह्मा से उस कन्या के बारे में विस्तार पूर्वक सब बातें बतलाईं और यह कहा कि यह भगवती एकदशा स्वयं प्रादुर्भूत हुई हैं ,उसकी यादवगण प्रसन्न मन से पूजा करेंगे ।दिव्यदेहधारी देवदेव भगवान श्री कृष्ण इसी भगवती एकादशा द्वारा सुरक्षित है। (श्लोक213-215 )
वसुदेवस्तु तं रात्रौ जातं पुत्रमधोक्षजम ।
श्रीवत्सलक्षणम दृष्टवा दिवि दिव्यै :सुलक्षनै :।।204
भीतोड़हं कंस तस्तात एतदेव ब्रवीम्यहम ।
मम पुत्रा हतास्तेन जयेष्ठास्ते अद्भूतदर्शना : ।।205
वसुदेववच :श्रुत्वा रुपं संहत्वांप्रभु :।
अनुज्ञात :पिता त्वेनं नन्दगोप गृहं गत :।।
उगसेनमते तिष्ठन्यशोदायै तदा ददौ ।।206
तुल्यकाळं तु गर्भिणौ यशोदा देवकी तथा ।
यशोदा नंदगोपस्य पत्नी सा नंन्दगोपते :।। 207
यामेव रजनीं कृष्णो जज्ञे वृष्णिकुलप्रभु :।
तामेव रजनीं कन्यां यशोडपि व्यजायत ।। 208
तं जातं रक्षमानस्तु वसुदेवो महायशः ।
प्रादातपुत्रं यशोदायै कन्यां तु जगृहे स्वयम ।।209
दत्त्वैनं नंदगोपस्य रक्ष मामिति चाब्रवीत ।
सुतस्ते सर्वकल्याणों यादवानां भविष्यति ।।210
उग्रसेनात्मजे तां च कन्यामानकदुन्दुभि :।
निवेदयामास तथा कन्येति शुभलक्षणा ।।211
*स्वसायाम तनयां कंसो जातां नैवावधारयत ।
अथ तामपि दुष्टात्मा ह्युत्ससर्ज मुदाघनिवत: ।।212
हता वै या यदा कन्या जप्तयेष वृथामतिः ।
कन्या सा ववृधे तत्र वृष्णि सप्रसन्नि पूजिता ।।213
पुत्रवतपरिपालयंतो देवा देवान्यथा तदा (?)तामेव विधिनोतपन्नामाहु :कन्या प्रजापतिम ।।214
एकदशा तु जज्ञे वै रक्षार्थ केशवस्य ह।
तां वै सुमनस: पूजयिष्यन्ति यादवा :।।
देवदेवो दिव्यवपु: कृष्ण :संरक्षितोड़नया । 215
- योगमाया / योगेश्वरी देवी का प्राचीन मन्दिर-
मथुरा जिले में छटीकरा गांव से 6 किमी दूर देवी आटस में योगमाया का प्राचीन मंदिर है।गर्भगृह में योगमाया के साथ मनसा देवी और अष्टभुजी मां विराजी है।मन्दिर के सामने मनसा कुण्ड भी है।यहां पर गोपाल व ग्वाल बालों ने इस स्थान पर गैया चराई है।वे अपनी बहन योगमाया के साथ आटे-बाटे खेलते थे इस लिए इस गांव का नाम आट्स पडा ।
लीला----कृष्ण की अनुजा देवी एकांशा कंस के हाथों से छूट कर आकाश में अष्टभुजा वाली भगवती के रूप में अट्टहास करने लगी।बोली मूर्ख तू मुझे क्या मरेगा ,तुझे मारने वाला तो ब्रज में आ चुका है।अट्टहास से ही इस स्थल का नाम देवी आटस पड़ा।यह भी कहा जाता है आकाश में अंतर्ध्यान होकर योगमाया इसी स्थान पर प्रकट हुई थी ।इस लीला स्मृति में वज्रनाभ जी ने यह गांव बसाया था।योगमाया के अष्टभुजी रूप में होने से भी यह स्थान देवी आटस कहलाता है।
- दिल्ली के इतिहास में योगमाया देवी-
दिल्ली के इतिहास में भी चंद्रवंशी तंवरों की कुलदेवी का नाम भी योगमाया मिलता है ।तंवरों के पूर्वज पांडवों ने भी भगवान कृष्ण की बहिन को कुलदेवी मान कर केशव के सहयोग से इंद्रप्रस्थ राजधानी में कुलदेवी का मन्दिर विधिवत स्थापित किया जो आज भी यथावत विराजमान है।विभिन्न प्राप्त इतिहास ग्रंथों व लेखों में भी तंवरों की कुलदेवी के नाम योगमाया ,योगेश्वरी मिलते है । उसी स्थान पर दिल्ली के संस्थापक राजा अनंगपाल प्रथम ने पुनः योगमाया के मन्दिर का निर्माण करवाया था।यह मन्दिर दिल्ली में कुतुब महरौली मार्ग पर स्थित है । योगमाया का मन्दिर होने से इस स्थान को योगिनी पुरी भी कहते है।इसका इतिहास भारतीय पुरातत्व से भी पुष्ट है ।तोमरों की अन्य शाखा ग्वालियर के इतिहास में तंवरों की कुलदेवी का नाम योगेश्वरी और जोगेश्वरी भी मिलता है ।ऐसा माना जाता है कि योगमाया (जोगमाया) को ही बाद में योगेश्वरी /जोगेश्वरी के नाम से पुकारा गया ।
संदर्भ-
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- देखें 'एकांनशा 'शब्द , आप्टे सं 0ई0 डि.
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- बनर्जी ,ज.इ.सो.आ.अ., 13 , पृ0 64 एवं आगे
- वा0.पु ., बि.इं .संस्करण ,2 .35 .2-2
- हरिवंश पुराण ,विष्णुपर्व दुतीय अध्याय -पेज 217-231.
- श्री विष्णुपुराण ,पहला अध्याय ,पृ0318-319
- श्री गर्गसंहिता ,अध्याय 11 ,पृ0 ,30-31
- श्रीमदभागवत ,दशम स्कंध ,पृ0 ,124-125
- बृज का सांस्कृतिक इतिहास लेखक प्रभुदयाल मित्तल।
- वायुपुराणम , विष्णु -वंश वर्णन ,अध्याय 96 ,पृ0 878-879
लेखक:- डॉ0 धीरेन्द्र सिंह जादौन
गांव:- लढौता, सासनी ,जनपद- हाथरस
प्राचार्य:- राजकीय कन्या महाविद्यालय, सवाईमाधोपुर, राजस्थान
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