गीत:- सांझ

सांझ
ढलती उम्र ने, ढ़लते सूरज से कहा,
आ बैठ कुछ गुफ्तगू करले,
कुछ अपनी सुना और,
कुछ मेरी भी सुन ले।
तेरे उगते हुए पल को और मेरे बीते हुए कल को,
इस लम्बे सफ़र का बड़ा आलम था।
सुहाने सपनो का पीटारा लिये,
हौंसलों का सफ़र सुहाना था।
तेरा बादलों में छिपना और मेरा परछाई पकड़ना,
दोनों ही खेल नादानी के।
तेरा जोश मे जलना और मेरा क्रोध में खोना,
पर मिटना तो दोनों में तय था।
अब कोई न पूछे तुमसे और परवाह नहीं किसी को मेरी,
फिर अफसोस किस बात का करे
मुठि मे कैद न उम्र होगी और न बंधेगा कोई पल,
आ साथ में बैठ कर निहारे,
तेरी क्षण-क्षण ढलती और मेरी पल-पल जाती, "सांझ"।
रतन खंगारोत
समाज सेविका और लेखिका
राजस्थान प्रदेश उपाध्यक्ष
अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा 1897
शिक्षा- एम. ए. , बी एड
जयपुर, राजस्थान
उपन्यास- अनछुआ दर्द
साझा काव्य संग्रह- सरफिरे परिंदे
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