Special Article: संवेदनाओं की साँझ में रिश्तों का सूर्यास्त...
हाल ही में कर्नाटक के पूर्व डीजीपी (सेवानिवृत्त) की हत्या की जो खबर सामने आई, उसने न केवल अपराध की भयावहता को उजागर किया...

लेखक: डॉ. कौशलेंद्र विक्रम सिंह
हाल ही में कर्नाटक के पूर्व डीजीपी (सेवानिवृत्त) की हत्या की जो खबर सामने आई, उसने न केवल अपराध की भयावहता को उजागर किया बल्कि हमारे सामाजिक ताने-बाने को भी प्रश्नों के घेरे में खड़ा कर दिया। जब यह सामने आया कि इस हत्या में उनकी ही पत्नी की संलिप्तता की संभावना है, तो यह घटना मात्र अपराध नहीं, संबंधों के विघटन की घोषणा बन गई। ठीक इसी तरह मेरठ की घटना, जहाँ एक महिला ने अपने प्रेमी के साथ मिलकर अपने पति की हत्या कर दी, इस बात की गवाही देती है कि आज के समाज में ‘परिवार’ एक भावनात्मक संस्था न रहकर अब केवल एक औपचारिक ढांचा बनता जा रहा है।
इन घटनाओं को केवल सनसनीखेज समाचार मानकर छोड़ देना हमारी भूल होगी। इन्हें हम समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य से समझने का प्रयास करते हैं। चार्ल्स हॉर्टन कूले ने ‘लुकिंग ग्लास सेल्फ’ का सिद्धांत दिया। कूले के अनुसार व्यक्ति स्वयं को वैसा ही देखता है जैसा समाज उसे दिखाता है। जब एक बेटी पिता को मात्र नियंत्रक और दमनकारी रूप में देखती है, या पत्नी पति को जीवन की स्वतंत्रता में बाधा, तो यह सामाजिक संवाद के संकट की ओर इशारा करता है। जॉर्ज मीड ने भी कहा था कि व्यक्ति का ‘स्व’ सामाजिक अंतःक्रिया का उत्पाद होता है। यदि यह अंतःक्रिया विकृत हो जाए या संवाद समाप्त हो जाए, तो संबंध केवल सामाजिक भूमिका बनकर रह जाते हैं, भावनात्मक गहराई खो बैठते हैं।
एमिल दुर्खीम ने जिस ‘एनोमी’ की बात की थी – सामाजिक नियमों के अभाव की स्थिति, वह आज के समाज में स्पष्ट दिखाई देती है। जब मूल्य और दिशा दोनों लुप्त हो जाएँ, तब व्यक्ति के पास अपने निजी तनावों से निपटने का कोई नैतिक ढांचा नहीं बचता। रिश्ते अब त्याग और समर्पण के नहीं, बल्कि सुविधा और स्वार्थ के बन चुके हैं। पति-पत्नी, माता-पिता, और संतान, सभी संबंध अब स्थायित्व के नहीं, बल्कि प्रयोग के प्रतीक बनते जा रहे हैं
टाल्कॉट पार्सन्स ने परिवार को समाज के मूल संस्थान के रूप में देखा था, जहाँ व्यक्ति का सामाजीकरण होता है और उसे भावनात्मक स्थिरता मिलती है। लेकिन आज जब परिवार स्वयं अस्थिर हो चला है, और उसके भीतर संवाद, सहानुभूति और नैतिकता का अभाव है, तो वह अपने मूल कार्य में विफल हो जाता है। इस विफलता का सीधा परिणाम यह होता है कि व्यक्ति अन्य विकल्पों – हिंसा, विश्वासघात या पलायन की ओर मुड़ता है।
इन सामाजिक विफलताओं की जड़ में हमारी शिक्षा प्रणाली की एक बड़ी भूमिका है। आज की शिक्षा केवल जीविका देती है, जीवन नहीं। वह पेशेवर दक्षता तो सिखाती है, पर नैतिक विवेक नहीं। दुर्खीम ने शिक्षा को सामूहिक विवेक का वाहक माना था, लेकिन आज का विद्यार्थी अंकों और अंहकार से लैस होकर निकलता है, संवेदनशीलता और दायित्व की भावना से नहीं। मूल्य शिक्षा का स्थान पाठ्यक्रम के हाशिए पर है, और नैतिकता की चर्चा केवल भाषणों और दीवारों तक सीमित रह गई है।
यह विघटन केवल स्त्रियों का नहीं, पुरुषों का भी है। जहाँ स्त्रियाँ स्वतंत्र होकर अपने लिए नए विकल्प तलाश रही हैं, वहीं पुरुष अपने पितृसत्तात्मक अहंकार को अब भी नहीं छोड़ पा रहे। नतीजा यह है कि दोनों के बीच सह-अस्तित्व का स्थान टकराव और प्रतिशोध ने ले लिया है। स्त्री का सशक्तिकरण यदि संवेदनहीनता की ओर मुड़ता है, और पुरुष का प्रभुत्व यदि ईर्ष्या और हिंसा की प्रतिक्रिया में आता है, तो यह सामाजिक असंतुलन केवल व्यक्तिगत नहीं, सामूहिक संकट बन जाता है।
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इस सबके बीच मीडिया और डिजिटल संस्कृति भी एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में सामने आई है। आज की वेब सीरीज़, फिल्में और रील संस्कृति संबंधों को ‘थ्रिल’ के नाम पर ‘थ्रोअवे’ बना रही है। विवाहेतर संबंध, भावनात्मक छल, और हिंसा को ‘स्टाइल’ और ‘चॉइस’ के रूप में दिखाया जा रहा है। युवा पीढ़ी इन कथाओं को मात्र मनोरंजन नहीं, बल्कि जीवन का विकल्प मानने लगी है। इस कल्पनाजगत से निकलकर जब यथार्थ की पीड़ा सामने आती है, तो उसके लिए कोई नैतिक ढाल नहीं बचती।
समाज की इस टूटन को केवल कानून से नहीं रोका जा सकता। इसकी आवश्यकता है एक नैतिक पुनर्जागरण की। हमें शिक्षा को फिर से मूल्यनिष्ठ बनाना होगा, परिवार को संवाद का केंद्र बनाना होगा। यदि हम समय रहते नहीं चेते, तो यह व्यक्तिगत घटनाएँ सामाजिक महामारी का रूप ले लेंगी।
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