कहानी- मैं हारूँगी नहीं.....
मिस्टर मनचंदा ने उसका बायोडाटा देखते हुए कहा--आपका एकेडेमिक कैरियर ....
डॉ.मधु प्रधान, कानपुर
मिस्टर मनचंदा ने उसका बायोडाटा देखते हुए कहा--आपका एकेडेमिक कैरियर तो बहुत अच्छा है।आप ईमानदारी और मेहनत से कार्य करेंगी यह आप स्वयं कह रही हैं।हमें भी कम्पनी के लिए डिवोटी वर्कर्स ही चाहिये।कस्टमर्स की संतुष्टि हमारे लिये बहुत महत्वपूर्ण है।ऑफिस में काम ज्यादा है कभी-कभी ओवरटाइम भी करना पड़ सकता है।क्या आप समय दे सकेंगी। हम ओवरटाइम का पेमेंट भी अच्छा देते हैं।आपको भी जॉब की बहुत ज्यादा जरूरत है।जाहिर है कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है।
सुनीता चुपचाप सुन रही थी।उस अधिकारी के मुँह से शब्द कुछ और निकल रहे थे आँखें कुछ और कह रहीं थीं।वह समझ रही थी शब्दों के पीछे छिपे अर्थ को ,मन तिलमिला रहा था, जी चाह रहा था कि वह कह दे कि वह यहाँ श्रम बेचने आई है आत्मसम्मान नहीं पर जरूरतों का तकाजा था नौकरी भी जरूरी थी।वह विनम्रता से बोली ---सर!बच्चा बहुत छोटा है। ससुर साहब भी बहुत बीमार हैं।मैं ऑफिस टाइम में ही अधिक से अधिक कार्य कर लूँगी।ओवरटाइम करना तो बहुत मुश्किल होगा।बच्चों को देर तक आया के भरोसे छोड़ा भी नहीं जा सकता।आया भी तय किये समय के बाद पन्द्रह मिनट भी नहीं रुकती। चाहे जितना प्रलोभन दो।
देखिये नियम तो नियम होते हैं किसी एक कर्मचारी के लिए ऑफिस के नियम तो नहीं बदले जा सकते हैं उन्हें तो पालन करना ही होगा।मिस्टर मनचन्दा ने सख्ती से कहा-----आप खूब सोच-समझ लीजिए ।दो-तीन दिन में अगर चाहें तो सर्विस ज्वाइन कर लीजिएगा कह कर वह अर्थपूर्ण हँसी हँस दिया।ठीक है सर कहते हुए सुनीता उसे अभिवादन कर ऑफिस से बाहर आ गई।
कैसा रहा इन्टरव्यू ।कब से ज्वाइन कर रही हो।बाहर आते ही कोमल ने उससे पूछा वह कई साल से वहाँ काम कर रही थी।उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही बोली सर बहुत जेंटिल हैं मुझे विश्वास है तुम्हें यहाँ जॉब मिल जायेगा।सुनीता ने नजरें उठा कर कोमल के चेहरे की तरफ देखा उसकी आँखों में आत्मविश्वास था।घुंघराली लटें उड़-उड़ कर चेहरे पर आ रही थीं जिन्हें वह बड़ी अदा से पीछे कर देती।लॉन्ग स्कर्ट व उँची हील के सैंडिलों में वह बहुत सुन्दर लग रही थी।पर क्या मजाल जो कोई उसकी तरफ गलत नजरों से देखने की भी हिम्मत करे।दबंग भाइयों का साया उसके चारों तरफ सुरक्षा का घेरा बनाये रखता।वह बेधड़क कहीं भी जाती-आती।अविवाहित होने के कारण उस पर कोई जिम्मेदारी भी नहीं थी।
सुनीता उसे क्या बताती ।अहसासों को शब्दोँ में व्याख्यायित करना आसान नहीं होता।वह भी जब कोई प्रत्यक्ष प्रमाण न हो।दूसरा कोई भी उसकी बातों को सुन उसके दिमाग में छिपे भय को उसके दिमाग का फितूर मान कर हँसी में उड़ा देता।सुनीता सोच नहीं पा रही थी कि वह क्या करे ।बीते दिनों की यादें कसक बन कर दिल में करकती रहतीं। विनय की यादें एक पल के लिये भी उससे जुदा नहीं होतीं।किस तरह एक पल में ही उसका हँसता-खेलता संसार उजड़ गया था।
अरे! कहाँ खो गईं ,क्या सोचने लगीं ?कोमल ने उसे खयाली दुनियां से बाहर खींच लिया और कहा---कब तक पुरानी बातें याद कर घुटती रहोगी।गया वक्त लौट कर नहीं आता।भविष्य की ओर देखो और उसे सँवारो।अब तुम्हें ही अपने दोनों बच्चों को संभालना है।तुम्हें मां का ही नहीं पिता का दायित्व भी निभाना है।--–--तुम ठीक कह रही हो कोमल ! मैं अपने को मजबूत बनाने की कोशिश कर रही हूँ न ,पर गहरा जख्म भरने में भी समय लगता है।एक -दो दिन में मैं फिर तुमसे मिलती हूँ।कह कर सुनिता अपने घर की ओर चल दी।
समय कितना भी आगे बढ़ गया हो पर औरतों के लिए कहीं भी सुरक्षा नहीं ।जब तक पुरुषों का सोच नहीं बदलेगा।कितने भी कानून बन जायें औरत यूँ ही भयभीत रहेगी।उसे गाँव वाली ताई की बातें रह-रह कर याद आ रही थी।उन्होंने कहा था कि बिटिया अपनी उम्र देखो ,ऊपर से ये रूप-रंग।अब वो जमाना नहीं रहा जब औरतें घर से बाहर पैर नहीं रखती थीं।बाप-भाई की छाया में उम्र गुजर जाती थी।अब बिना आदमी की औरत को दुनियां चैन से नहीं जीने देती। गाँव में कहावत है----रांड़ रंड़ापा काट ले रंडुआ काटन देय "।घर से बाहर निकलते ही चार पीछे लग लेंगे ।औरत को एक रखवाले की जरूरत होती है। दूसरी शादी में कोई बुराई नहीं अपना आदमी होगा तो किसी की उल्टा-सीधा बोलने की हिम्मत नहीं पड़ेगी।तुम दुनियादारी नहीं जानतीं ।बूढ़े ससुर तुम्हारी कब तक रखवाली करेंगे।
ताई के दूर के रिश्ते के भतीजे विनोद की पत्नी का कुछ माह पहले देहांत हो गया था। वह एक छोटी सी मात्र दो वर्ष की बेटी छोड़ गई थी।ताई का कहना था कि यदि सुनीता विनोद से शादी कर लेगी तो उस बिन मां की बच्ची को मां का प्यार मिल जायेगा और सुनीता के बच्चों को भी पिता की छत्रछाया व सुरक्षा मिल जायेगी।दो दुखी दिल एक दूसरे के दर्द को आसानी से समझ सकते हैं।पुत्र विछोह की पीड़ा से टूटे सुनीता के ससुर जी भी इस प्रस्ताव से सहमत थे पर निर्णय तो सुनीता को लेना था ।वह ही अपने मन को तैयार नहीं कर पा रही थी।कैसे अपने विनय का स्थान किसी दूसरे को दे दे।
समय गुजर रहा था।ससुर जी की बीमारी और बच्चों की उदास आँखों ने उसे पुनः सोचने पर विवश कर दिया।ठीक ही कह रहीं हैं ताई, सुनीता ने मन ही मन में खुद से कहा।इस तरह रोज-रोज दूसरों की तीखी -चुभती निगाहों से तन-मन घायल करने से बेहतर है किसी एक का हाथ थाम कर जिंदगी की वैतरणी पार कर ली जाय।वह जियेगी विनय की यादों के साथ उसे तो भूलना सम्भव ही नहीं ।पर अब वह यथार्थ को नकारेगी भी नहीं।उसे ताई की सलाह स्वीकार है।उसका जी चाह रहा था कि वह उड़ कर ताई के पास पहुँच जाये और उनकी गोद में मुँह छिपा कर जी भर कर रो ले व उनसे कहे ताई आप सही हो।
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घर आ गया था।दरवाजा खोलते ही समने बबलू खड़ा था दुःखों ने उसे समय से पहले ही समझदार बना दिया था।उसका उतरा हुआ चेहरा देख कर बोला - सर दुख रहा है मम्मा! मैं दबा दूँ। सुनीता का मन भर आया। उसने बेटे को गले से लगा लिया और खुद से कहा - अब मैं हारूँगी नहीं खुद को मजबूत बनाऊँगी अपने बच्चों पर अब किसी गम का साया भी नहीं पड़ने दूँगी। मन को संयत कर वह ताई को फोन करने लगी।
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