विशेष लेख (संस्मरण) मेरा शहर बस्ती, बचपन की जगहें..... ।
एक शहर जिसका भूगोल, क्षेत्रफल,मौसम, जगहें सब आज भी आबाद, जिंदाबाद हैं। उसने मुझे बहुत प्यार से विदा किया। लेकिन उसकी हुड़क,कसक ....

प्रोफ़ेसर पूनम सिंह की कलम से... |
विभागाध्यक्ष,हिन्दी विभाग, एस.डी.पी.जी. कालेज, गाज़ियाबाद |
मेरा शहर बस्ती, बचपन की जगहें (राजकीय इंटर कॉलेज खेल मैदान)
एक शहर जिसका भूगोल, क्षेत्रफल,मौसम, जगहें सब आज भी आबाद, जिंदाबाद हैं। उसने मुझे बहुत प्यार से विदा किया। लेकिन उसकी हुड़क, कसक मुझे कभी आज़ाद नहीं करतीं.. दुनिया भर दस बारह देशों की यात्राएं करके भी वे जगहें कभी उतनी याद नहीं आती, जितना ये नामामूली सा शहर बस्ती.. इसे मैं हर रोज़ धिक्कारती हूं, दुलारती हूं और मैं इस शहर की यादों को हर रोज़ कहती हूं- तू निकल जा... मेरे भीतर कांटे सा धंसा... बस्ती मेरे शहर! तू दिन रात मुस्कुराता, कुम्हलाता और कभी-कभी कसकता... चुभता है.. तुझसे हज़ारों हज़ार मलाल.. मेरे जन्मभूमि..
इसी शहर में कहीं गड़ी है नाल और दुद्धा दांत फिर भी खुद को आईने में देखते ही तू मुझे प्रत्युष बेला की लालिमा की तरह याद आता है..आज भी मेरा हर सुबह उठना राजकीय इंटर कॉलेज बस्ती के खेल मैदान के घासों पर दौड़ लगाने जैसा लगता है.. मेरे बाबूजी सुबह उठने के अनुशासन का पहला सबक इसी मैदान से शुरू करते थे.. वे अम्मा के न रहने के बाद हर दिन इसी मैदान में हम तीनों भाई बहनों को दौड़ाने ले आते थे..शीत हो या कड़क ठंड वे बेरहम हो हम सभी को नंगे पांव ही दौड़ाते थे। उन दिनों हम लोग बाबूजी से हर सुबह भीतर ही भीतर कुढ़े, गुस्साए रहते थे। कभी बेमन, कभी मन से दौड़ लगाते थे। हम भाई-बहन में कौन सबसे पीछे और कौन आगे वे दौड़ प्रतियोगिता के परिणाम पर भी गुरु ज्ञान, लेक्चर देते चलते थे- उनका एक ही तकियाकलाम था- आगे बढ़ने के लिए मेहनत जरुरी है, आज पीछे रह गई न.. सर्वोत्तम रहने के लिए हर दिन बराबर मेहनत करनी होती है। लेकिन तुम लोगों को ये बात कब समझ में आयेगी..पता नहीं।
हम लोग उनका धिक्कार हर दिन सहते। बेसिक स्कूल पार करते माली टोला मुहल्ले में पहुंच जाते थे.. आज जब अपने इस शहर में प्रवेश करती हूं तो मेरे पैर फर फर इसी मैदान पर दौड़ने लगते हैं..वहीं शीत-ठंड, मखमली घास की छूअन पैरों को गुदगुदाने लगती हैं.. मैं अब भी इस मैदान को तब तलक अपलक निहारती हूं जब तक ये मैदान गुज़र नहीं जाता..
एक स्मृति इसी मैदान की अब तक विस्मृत नहीं होती.. मैदान में हैलीपैड में उतरते राजनेताओं की..विशेषकर इंदिरा गांधी जी, सोनिया गांधी जी, राजीव गांधी, चन्द्रशेखर सिंह जी के अभिभाषण के.. और खूब याद आते पेड़ों की..मुझे इन पेड़ों को अपलक निहारना बहुत पसन्द था..अब भी याद आती है- मंच के पास हरियल आम के दो दरख्तों की..मैदान के दो और बहुत पुराने सटे हुए पेड़ों की - उनमें से शायद एक पीपल का था, दूसरा पर्ण रहित..ये पेड़ मुझसे बतियाने लगते थे जब हम कभी बेमन से लक्ष्य हीन दौड़ लगाते थे।
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वह दौर पिता के अनुशासन के आगे सिर झुकाकर चलने का दौर था.. हर बार, हर दिन हम भाई-बहन कुढ़ते और आपस में मलाल करते थे कि भला। किसी के बाप ऐसे नहीं होंगे! जो रोज़ रोज़ बिना मतलब दौड़ाते होंगे.. लेकिन हम में से किसी की इतनी मजाल नही थी कि बाबूजी से दौड़ने से मना करने की हिम्मत कर सकें।
सो मैं हर दिन ये मलाल उस सूखे पेड़ पर टांग जाती थी..मेरे मलालों से भरा पेड़ अब गायब है.. लेकिन मेरी स्मृतियों में वे दोनों पेड़ जस के तस खड़े मुझे पुचकार कर दुलार रहें हैं- दौड़ बेटा दौड़। तेरा दौड़ना मुझे खड़े रहने का बल देता है। मैं तेरे दौड़ने तक खड़ा रहूंगा..तेरे मलाल जो टांगने हैं।
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