गीत- रजनीगंधा बुला रही है....
अन्तर में मकरन्द छिपाये रजनीगन्धा बुला रही है

रचना- डॉ मधु प्रधान,कानपुर
रजनीगंधा बुला रही है
अन्तर में मकरन्द छिपाये
रजनीगन्धा बुला रही है
खोली सुधियों की किताब तो
कुछ गुलाब महके
संयत रही कामना के भी
भाव जरा बहके
ताल दे रही रिमझिम बूंदें
मधुर गीत गुनगुना रही है
मधुर गन्ध से सिक्त बावरी
झूम रही है डाली
कभी चाँदनी की चूनर को
ओढ़े मतवाली
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ग्रन्थि खोल कर अवसादों की
मन सुमनों को खिला रही है
लरज लरज अधरों पर आई
मन की अभिलाषा
प्रत्यंचा पर तीर चढ़ाये
चंचल प्रत्याशा
लहराते जल में चन्दा सी
छवि बन कर झिलमिला रही है
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