Special Article: 'क्या मृत्यु (शरीर-परिवर्तन) ही लौकिक सम्बन्धों की इतिश्री है?'

सामान्यतः लोगों की धारणा है कि सांसारिक रिश्ते जन्म से बनते और मृत्यु पर समाप्त हो जाते हैं। यह तो तभी सत्य हो सकता है जब हमारा वर्तमान....

May 20, 2025 - 11:36
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Special Article: 'क्या मृत्यु (शरीर-परिवर्तन) ही लौकिक सम्बन्धों की इतिश्री है?'

डॉ. ईश्वर चन्द्र वर्मा

सामान्यतः लोगों की धारणा है कि सांसारिक रिश्ते जन्म से बनते और मृत्यु पर समाप्त हो जाते हैं। यह तो तभी सत्य हो सकता है जब हमारा वर्तमान जीवन अपने में पूर्ण और स्वतन्त्र हो तथा हमारे सारे लौकिक सम्बन्ध एक संयोगमात्र हों, परन्तु ऐसा है नहीं। पूर्वजन्म के कर्मों के फलस्वरूप हमारा वर्तमान जीवन है और हमारे वर्तमान जीवन के कर्म पुनर्जन्म का कारण बनेंगे। जीवन एक सतत प्रक्रिया है।

वस्तुतः हमारी ज्ञानेन्द्रियों की ग्राह्य-क्षमता बहुत सीमित है, कारण यह है कि हमने उसे केवल 'प्रत्यक्ष' पर ही अवलम्बित कर रखा है; अर्थात् जो प्रत्यक्ष नहीं है, उसका अस्तित्व ही नहीं है। जिससे वस्तु के स्वरूप, अस्तित्व और सम्बन्ध का ज्ञान होता है, उसे 'प्रमाण' कहते हैं। भारतीय दर्शन में प्रमाणों की संख्या आठ (प्रत्यक्ष, अनुमान, अपमान, शब्द, अर्थापत्ति, अभाव, संभव और ऐतिह्य) मानी गई है, जबकि घोर नास्तिक 'चार्वाक दर्शन' केवल 'प्रत्यक्ष' को ही प्रमाण मानता है। लौकिक सम्बन्धों को 'मृत्यु' से ही जोड़ना स्वार्थ की पराकाष्ठा है। प्रत्यक्ष के अतिरिक्त सम्बन्धों के निर्धारण और उनको मानने के उक्त अन्य सात प्रमाण और भी हैं, जिनको संज्ञान में लेना चाहिए।

क्या हम अपने दिवंगत माता-पिता, पूर्वजों, महापुरुषों, विद्वान् ऋषि-मुनियों, अन्य पारिवारिक सदस्यों, मित्रों को इस आधार पर विस्मृत कर दें, उनसे सम्बन्ध-विच्छेद कर दें कि वे अब इस संसार में नहीं हैं और सारे लौकिक सम्बन्ध मृत्यु के पश्चात् समाप्त हो जाते हैं? भारतीय संस्कृति में तो मृतकों के श्राद्ध, तर्पण, जयन्ती, पुण्यतिथि के आयोजनों का भी विधान है। वस्तुतः पूर्णरूपेण कोई मर ही नहीं सकता, केवल शरीर-परिवर्तन कर पुनः हमारे इर्द-गिर्द ही नए रिश्तों के साथ ऋणानुबन्ध के अनुरूप हमसे जुड़ जाता है।

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तथाकथित 'मृत्यु' अर्थात् शरीर-परिवर्तन के पश्चात् पूर्वजन्म की 'स्मृति' को खो देने के कारण हम अपने पूर्व लौकिक सम्बन्धों को जान नहीं पाते और अज्ञानवश कहते हैं कि 'मृत्यु ही लौकिक सम्बन्धों की इतिश्री है', जबकि जन्म के पश्चात् बहुत से शिशु अपने पूर्वजन्म के सम्बन्धियों को पूरी तरह से पहचान लेते हैं। भारतीय संस्कृति में सात-जन्मों तक साथ निभाने की परिकल्पना जहाँ प्रगाढ़ प्रेम को प्रदर्शित करती है, वहीं जीवन के लौकिक सम्बन्धों की निरन्तरता की भी पुष्टि करती है।

बिना सशक्त कारण के कोई कार्य नहीं होता। हमारे वर्तमान सांसारिक सम्बन्धों का कारण उन सम्बन्धियों के साथ पूर्वजन्म के ऋणानुबन्ध ही हैं और यही प्रक्रिया पुनर्जन्म के सम्बन्धों के लिए भी लागू होगी। कोई सम्बन्ध अकारण नहीं होता।


डॉ. ईश्वर चन्द्र वर्मा
   अखिल भारतीय साहित्य परिषद', हरदोई इकाई
   'संवेदना' संस्था, हरदोई
   उ•प्र• वरिष्ठ नागरिक सेवा समिति, हरदोई'

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