जीएसटी सुधार: अमेरिकी टैरिफ चुनौतियों के बीच घरेलू अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने का माध्यम

स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगली पीढ़ी के जीएसटी सुधारों की घोषणा की। यह घोषणा वैश्विक आर्थिक अस्थिरता के

Oct 4, 2025 - 14:04
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जीएसटी सुधार: अमेरिकी टैरिफ चुनौतियों के बीच घरेलू अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने का माध्यम
जीएसटी सुधार: अमेरिकी टैरिफ चुनौतियों के बीच घरेलू अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने का माध्यम

लेखक: विक्रांत निर्मला सिंह शोधार्थी, राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान राउरकेला।

स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगली पीढ़ी के जीएसटी सुधारों की घोषणा की। यह घोषणा वैश्विक आर्थिक अस्थिरता के बीच आई, जहां एक ओर अमेरिका द्वारा लगाए जा रहे टैरिफ भारत के निर्यात को प्रभावित कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर लंबे समय से लंबित घरेलू कर सुधारों की आवश्यकता महसूस हो रही थी। वैश्विक परिदृश्य में देखा जाए तो किसी भी देश की आर्थिक मजबूती का आधार उसकी घरेलू मांग और उपभोग होना चाहिए।

अमेरिका ने हाल ही में भारत सहित कई देशों पर 25 प्रतिशत अतिरिक्त टैरिफ लगाए हैं, जो पहले से मौजूद 25 प्रतिशत शुल्क के ऊपर हैं। यह कदम अमेरिका के 'अमेरिका फर्स्ट' नीति का हिस्सा है, जिसका उद्देश्य व्यापार घाटे को कम करना और घरेलू उद्योगों को बढ़ावा देना है। भारत के साथ व्यापार घाटा 2024 में 45.7 अरब डॉलर तक पहुंच गया था, और अमेरिका भारत के कृषि उत्पादों, डेयरी तथा अन्य क्षेत्रों में बाजार पहुंच की मांग कर रहा है। लेकिन भारत ने स्पष्ट कर दिया है कि वह किसी भी ऐसे समझौते पर सहमत नहीं होगा जो उसके किसानों, छोटे व्यापारियों तथा पशुपालकों के हितों को नुकसान पहुंचाए। अमेरिकी टैरिफ से भारत के निर्यात पर असर पड़ेगा, खासकर वस्त्र, फार्मास्यूटिकल्स, रत्न-आभूषण तथा समुद्री खाद्य पदार्थों जैसे क्षेत्रों में, जहां निर्यात मूल्य 2024 में 87 अरब डॉलर था। इससे जीडीपी वृद्धि में 1 प्रतिशत की गिरावट आ सकती है।

ऐसे में, टैरिफ से उत्पन्न चुनौतियों का समाधान घरेलू स्तर पर सुधारों के माध्यम से उपभोग, मांग तथा निवेश की प्रक्रिया को तेज करने में निहित है। इससे न केवल जीडीपी वृद्धि स्थिर रहेगी, बल्कि बढ़ती मांग निवेश तथा रोजगार के चक्र को भी बनाए रखेगी। यह स्थिरता भारत को वैकल्पिक बाजारों की ओर बढ़ने का अवसर प्रदान करेगी। इसलिए, जीएसटी सुधारों को केवल कर संरचना में बदलाव के रूप में नहीं, बल्कि एक नई अर्थव्यवस्था के निर्माण के रूप में देखना चाहिए। यह डिरेगुलेशन का अगला चरण है, जिसकी नींव 2025 के बजट में रखी गई है। ठीक वैसे ही जैसे 1991 के आर्थिक सुधारों ने भारत की अर्थव्यवस्था को नई दिशा दी, वैसे ही अब हो रहा डिरेगुलेशन आने वाले वर्षों में बड़े परिवर्तनों की शुरुआत करेगा। यह वह मजबूत आधार बनेगा जिस पर आने वाले कई दशकों की भारतीय अर्थव्यवस्था टिकी रहेगी।

भारत की कुल जीडीपी में उपभोग या खपत का योगदान लगभग 60 प्रतिशत है। विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, 2024 में भारत का अंतिम उपभोग व्यय जीडीपी का 59.7 प्रतिशत रहा। यह खपत बनी रहे, इसके लिए दो मुख्य शर्तें हैं: पहली, लोगों की आय निरंतर बढ़े, और दूसरी, मुद्रास्फीति नियंत्रण में रहे। आय तभी बढ़ेगी जब देश में निवेश तथा उत्पादन को गति मिले और नए रोजगार अवसर सृजित हों। मुद्रास्फीति पर नियंत्रण के लिए अप्रत्यक्ष करों में कमी सबसे प्रभावी उपाय है। इसी आर्थिक दृष्टिकोण से सरकार ने 2025 में डिरेगुलेशन की दिशा में दो प्रमुख सुधार किए। पहला, आयकर में 12 लाख रुपये तक की छूट, जिससे लोगों के पास अधिक धन बचेगा और उपभोग तथा मांग दोनों में वृद्धि होगी।

बजट 2025 में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने नई कर व्यवस्था के तहत 12 लाख रुपये तक की आय पर शून्य कर की घोषणा की, जो पहले 7 लाख रुपये थी। इससे करदाताओं को औसतन 80,000 रुपये की बचत होगी। दूसरा, 'नेक्स्ट-जनरेशन जीएसटी सुधार', जो कर ढांचे को सरल बनाता है। पहले जीएसटी में 5, 12, 18 तथा 28 प्रतिशत की चार दरें थीं। अब इसे घटाकर मुख्य रूप से दो मानक दरें 5 प्रतिशत तथा 18 प्रतिशत कर दी गई हैं। यानी, 12 प्रतिशत स्लैब की अधिकांश वस्तुएं अब 5 प्रतिशत पर और 28 प्रतिशत स्लैब की अधिकतर वस्तुएं 18 प्रतिशत पर आ जाएंगी। लक्जरी तथा हानिकारक वस्तुओं के लिए नई 40 प्रतिशत की दर लागू की गई है। 56वीं जीएसटी परिषद की बैठक में 3 सितंबर 2025 को यह निर्णय लिया गया, और बदलाव 22 सितंबर 2025 से प्रभावी हो गए। इस बदलाव का सीधा प्रभाव यह होगा कि दैनिक आवश्यक वस्तुएं सस्ती होंगी, मुद्रास्फीति पर अंकुश लगेगा तथा उपभोग को नई गति मिलेगी।

जॉन मेनार्ड कीन्स के 'उपभोग सिद्धांत' के अनुसार, लोगों की अतिरिक्त आय का बड़ा हिस्सा उपभोग पर खर्च होता है, जिससे कुल मांग बढ़ती है। परिणामस्वरूप उत्पादन तथा रोजगार को प्रोत्साहन मिलता है और समग्र अर्थव्यवस्था गतिमान रहती है। उदाहरण के लिए, दूध, पनीर, स्नैक्स, ब्रेड, हेयर ऑयल, टॉयलेट सोप, शैंपू, टूथब्रश, टेबलवेयर तथा किचनवेयर जैसी 175 दैनिक वस्तुएं अब 5 प्रतिशत पर आ गई हैं। सीमेंट की दर 28 से घटकर 18 प्रतिशत हो गई, जिससे आवास क्षेत्र को बढ़ावा मिलेगा। टीवी, एयर कंडीशनर, डिशवॉशर तथा छोटी कारों पर भी 18 प्रतिशत की दर लागू हुई, जो पहले 28 प्रतिशत थी।

लेकिन यहां दो महत्वपूर्ण प्रश्न उठते हैं। पहला, यदि यह सुधार इतना व्यापक है तो जीएसटी लागू होने पर 2017 में ही क्यों नहीं किया गया? दूसरा, इससे होने वाली राजस्व हानि कहीं आवश्यक बड़े प्रोजेक्टों की गति को तो धीमा नहीं कर देगी? पहले प्रश्न का उत्तर यह है कि 2017 में जीएसटी लागू होने पर शुरुआती वर्षों में राजस्व स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए बहु-दर संरचना आवश्यक समझौता था, ताकि राज्यों को होने वाली राजस्व कमी की भरपाई हो सके।

अब भारतीय अर्थव्यवस्था का कर आधार काफी विस्तृत हो चुका है, इसलिए जीएसटी दरों का सरलीकरण न केवल कर प्रणाली को आसान बनाएगा, बल्कि दरों से जुड़े विवाद तथा भ्रम को भी कम करेगा। हालांकि, शुरुआती दौर में इससे राजस्व पर दबाव पड़ेगा। अनुमान के अनुसार, जीएसटी सुधारों से लगभग 48,000 करोड़ रुपये (जीडीपी का 0.13 प्रतिशत) की राजस्व हानि होगी। वित्त मंत्रालय के अनुसार, यह हानि उपभोग पैटर्न पर आधारित है और केंद्र तथा राज्यों के लिए वित्तीय रूप से सहनीय है। आर्थिक अध्ययनों से पता चलता है कि कर दरों के सरलीकरण से समय के साथ कर संग्रह न केवल बहाल होता है, बल्कि पहले से अधिक हो जाता है। मुख्य कारण यह है कि जब नियम सरल होते हैं, कर दरें तर्कसंगत रहती हैं तथा लालफीताशाही कम होती है, तो कर चोरी की प्रवृत्ति घटती है और करदाता आधार बढ़ता है। एसबीआई की रिपोर्ट में अनुमानित हानि मात्र 3,700 करोड़ रुपये बताई गई, जो उपभोग वृद्धि से संतुलित हो जाएगी।

इस संदर्भ में 'लैफर कर्व सिद्धांत' महत्वपूर्ण है। यह सिद्धांत बताता है कि यदि कर दरें बहुत अधिक हों तो लोग कर चोरी या बचाव के उपाय अपनाते हैं, जिससे राजस्व घटता है; यदि बहुत कम हों तो भी पर्याप्त राजस्व नहीं मिलता। लेकिन एक आदर्श मध्यम दर पर राजस्व अधिकतम होता है। इसी दृष्टि से भारत आयकर तथा जीएसटी सुधारों के माध्यम से संतुलित कर दर की ओर बढ़ रहा है। डिरेगुलेशन से अनुपालन लागत घट रही है। इससे निकट भविष्य में आर्थिक गतिविधियां तेज होंगी तथा कर संग्रह बढ़ेगा, क्योंकि कम कर बोझ उपभोग तथा निवेश दोनों को प्रोत्साहित करेगा। यदि टैरिफ तथा वैश्विक अस्थिरता से जीडीपी वृद्धि में 1 प्रतिशत गिरावट आए, तो ये सुधार उतनी ही वृद्धि प्रदान करेंगे। यानी, भारत अपनी वृद्धि स्थिर रखने में सफल रहेगा। 2024-25 में जीएसटी संग्रह 22 लाख करोड़ रुपये पार कर चुका है, जो 18 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि दर्शाता है। सुधारों से अनुपालन आसान होने से यह वृद्धि और तेज होगी।

1991 के उदारीकरण के बाद आर्थिक सुधार प्रक्रिया निरंतर चली, फिर भी भारत ईज ऑफ डूइंग बिजनेस सूचकांकों में शीर्ष पर नहीं पहुंच सका। कारण अनावश्यक नियम-कानून, लाइसेंस तथा धीमी नौकरशाही थे। जीएसटी के साथ भी यही समस्या रही। 'एक देश, एक कर' का सपना जटिल बहु-दर संरचना में उलझ गया। अंततः 2025 के बजट में सरकार ने नियंत्रक की बजाय सुविधादाता की भूमिका अपनाते हुए डिरेगुलेशन की दिशा में निर्णायक कदम उठाया। इसी सोच से जन विश्वास अभियान 2.0 की घोषणा हुई। पहले जन विश्वास अधिनियम 2023 के तहत 180 छोटे अपराधों को अपराधमुक्त कर केवल आर्थिक दंड तक सीमित किया गया था। अब जन विश्वास बिल 2.0 से 288 धाराओं को अपराधमुक्त किया गया है तथा 67 धाराओं में ईज ऑफ लिविंग को ध्यान में रखते हुए संशोधन किया गया। लोकसभा में 18 अगस्त 2025 को पेश इस बिल का उद्देश्य है कि तकनीकी उल्लंघनों पर उद्यमियों को आपराधिक कार्रवाई का डर न रहे और वे निडर होकर कार्य कर सकें। पिछले दस वर्षों में 40,000 से अधिक अनुपालनों को समाप्त किया गया, जो अप्रासंगिक या व्यापार पर बोझ डालने वाले थे।

डिरेगुलेशन की प्रक्रिया कानूनी सुधारों तक सीमित नहीं, बल्कि अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों को खोलने तक फैली है। सरकार रक्षा तथा बीमा जैसे क्षेत्रों में खुले बाजार को प्रोत्साहित कर रही है। 2025 के बजट में बीमा क्षेत्र में एफडीआई सीमा 74 प्रतिशत से बढ़ाकर 100 प्रतिशत कर दी गई, बशर्ते कंपनियां संपूर्ण प्रीमियम भारत में निवेश करें। इससे क्षेत्र में पूंजी तथा तकनीक का प्रवाह होगा, प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी तथा उपभोक्ताओं को अधिक विकल्प तथा बेहतर सेवाएं मिलेंगी। 2000 से सितंबर 2024 तक बीमा क्षेत्र में 82,847 करोड़ रुपये का एफडीआई आया। इसी प्रकार, राजमार्ग, रेलवे तथा बंदरगाहों में निजी निवेश बढ़ाने के लिए लगभग 10 लाख करोड़ रुपये की संपत्तियों के मुद्रीकरण का लक्ष्य रखा गया। नीति आयोग द्वारा तैयार राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन 2025-30 के तहत राजमार्गों से 3.5 लाख करोड़, रेलवे से 1.5 लाख करोड़ तथा बंदरगाहों से 1 लाख करोड़ जुटाने का इरादा है। पहले चरण (2021-25) में 5.8 लाख करोड़ जुटाए गए, जो लक्ष्य से थोड़ा कम था, लेकिन कोयला तथा सड़क मंत्रालय ने प्रमुख योगदान दिया। डिरेगुलेशन के ये प्रयास नव-उदारीकरण की कहानी हैं, जो नई अर्थव्यवस्था को आकार दे रहे हैं।

उपभोग, निवेश तथा उद्यमशीलता की त्रिवेणी पर आधारित यह नई अर्थव्यवस्था का प्रभाव आने वाले वर्षों में दिखेगा। जीएसटी दरों में कमी से दैनिक वस्तुएं सस्ती होंगी तथा मध्यम वर्ग की बचत बढ़ेगी। यही बचत नए घरों, उपभोक्ता वस्तुओं तथा यात्रा-पर्यटन पर खर्च होगी तथा मांग का नया चक्र चलेगा। बढ़ती मांग उद्योगों को विश्वास देगी कि बाजार स्थिर है तथा सरकार नीतिगत रूप से सहयोगी है। विदेशी कंपनियां निवेश की ओर आकर्षित होंगी तथा भारतीय कंपनियां तथा स्टार्टअप अनुपालन बोझ से मुक्त होकर नवाचार में आगे बढ़ेंगे। उदाहरणस्वरूप, छोटी कारें तथा मोटरसाइकिलें (350 सीसी तक) अब 18 प्रतिशत पर आ गईं, जिससे ऑटो क्षेत्र में बिक्री बढ़ेगी। इलेक्ट्रिक वाहनों पर 5 प्रतिशत की दर बनी रहेगी, जो हरित ऊर्जा को बढ़ावा देगी। स्वास्थ्य तथा जीवन बीमा पर दरों की समीक्षा से प्रीमियम कम होंगे। लेकिन चुनौती क्रियान्वयन की है। केंद्र तथा राज्य मिलकर प्रक्रियाएं सरल करेंगे। केंद्र को जीएसटी दर बदलाव से राजस्व हानि की भरपाई का आश्वासन राज्यों को देना होगा तथा राज्यों को अपने स्तर पर नियम सरल कर निवेश-अनुकूल वातावरण बनाना होगा। यदि यह समन्वय बना रहा, तो 7 से 8 प्रतिशत की सतत आर्थिक वृद्धि संभव होगी। अमेरिकी टैरिफ से उत्पन्न झटके को जीएसटी सुधार घरेलू मांग मजबूत कर संतुलित करेंगे, जिससे भारत वैश्विक अस्थिरता में भी मजबूत बनेगा।

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